आचार्य रघुवीर और हिंदी
आचार्य रघुवीर जी की पुण्यतिथि पर शत-शत नमन💐
आज उनकी आत्मा रो रही होगी हमारी स्वभाषा के प्रति हीनता-बोध के कारण😒
डॉ रघुवीर जीवनपर्यन्त अंग्रेजी के एकाधिकार के विरुद्ध सभी भारतीय भाषाओं के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में कार्यरत रहे। यह अलग प्रसंग है कि आज भी उनका यह स्वप्न अधूरा है और ब्रिटिशों से मात्र रक्त आधार से अलग अंग्रेज़ीप्रेमी भारतीय का आज भी अनैतिक राज चालू है। यह घोर पीड़ा का विषय है कि आज़ादी मिलने के ७४ वर्ष के भीतर ही जो हिंदी संपूर्ण देश में एकमेव रूप से स्वीकार्य थीं और देश की प्रमुख भाषा से राजभाषा के पद पर आसीन हुई थी, उसे हमारे सत्ता-प्रधानों ने आज उत्तर भारत की भाषा के रूप में उपस्थित करने का कुत्सित प्रयास किया है।
आचार्य रघुवीर महान भाषाविद, प्रख्यात विद्वान्, राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे। उन्होंने कोशकार, शब्दशास्त्री के रूप में एक तरफ़ जहां कोशों की रचना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्दभण्डार संपन्न किया, तो वहीं दूसरी तरफ़ एशिया और पूरी दुनियामें फैली भारतीय संस्कृति की खोज कर उसका संग्रह एवं संरक्षण किया। उन्होने 4 लाख शब्दों वाला अंग्रेजी-हिन्दी तकनीकी शब्दकोश के निर्माण का महान कार्य भी किया।
भारतीय संविधान के प्रथम हिंदी अनुवादक
डॉ. रघुवीर मध्यप्रदेश और बरार क्षेत्र से वर्ष 1948 में संविधान सभा के सदस्य चुने गये। उन्हें भारत की संविधान सभा में सबसे युगान्तरकारी व्यक्ति माना जाता था। वास्तव में उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए युगांतकारी योगदान दिया। सन् 1950 में उन्होंने संविधान का पहला खण्ड हिंदी में प्रस्तुत किया, जिसे उन्होंने संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया। परंतु पण्डित नेहरू और संविधान सभा के दक्षिण भारतीय प्रतिनिधियों ने हिंदी में प्रस्तुत इस संविधान को नहीं अपनाया। हालाँकि राधाकृष्णन, के.एम. मुंशी और गोपालस्वामी अय्यर ने आचार्य रघुवीर के प्रयासों के लिए उंनका आभार प्रकट किया।
उन्हीं से जुड़ा एक प्रसंग
वे प्रायः स्वभाषा और संस्कृति को समर्पित देश फ्रांस जाया करते थे। वे अपने आत्मीय संबंधों के कारण फ्रांस के एक राजपरिवार में ठहरा करते थे। उस परिवार में ग्यारह वर्ष की एक विचारवान लड़की भी थी। वह डॉ. रघुवीर का बहुत ध्यान रखती थी। एक बार डॉ. रघुवीर को स्वदेश से एक पत्र प्राप्त हुआ। बच्ची को उत्सुकता हुई की देखे तो भारत की भाषा की लिपि कैसी है? तो उसने कहा-
“महात्मन! कृपया लिफाफा खोलकर पत्र दिखाए। "
आचार्य रघुवीर ने उसे टालना चाहा पर वह लड़की अपने ज़िद पर अड़ गयी। आचार्य रघुवीर दुविधा में पड़ ग़ए। पर बालिका के दबाव के कारण उन्हें पत्र दिखाना पड़ा। पत्र देखते ही बच्ची का मुख मंडल क्रोधित हो गया। उसने कहा - अरे ! यह तो अंग्रेजी में लिखा हुआ है, क्या आपके देश की कोई अपनी भाषा नहीं है? डॉ. रघुवीर से कुछ कहते नहीं बना। बच्ची उदास होकर चली गयी। दोपहर में हमेशा की तरह सभी ने एक साथ भोजन किया परन्तु पहले की तरह उत्साह नहीं था। भोजन के बीच गृहस्वामिनी बोली - "डॉ रघुवीर भविष्य में जब आप फ़्रांस आए तो किसी और जगह रहा करें। हम फ़्रांस के लोग जिस देश की अपनी कोई भाषा नहीं होती उसे हम 'बर्बर' कहते है। ऐसे लोगो से हम कोई संबंध नहीं रखते।
महिला ने उन्हें आगे बताया, "मेरी माता लॉरेन प्रदेश के राजा की पुत्री थी। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व वह फ़्रांस का यह प्रदेश जर्मनी के अधीन था। जर्मन सम्राट ने वहां फ्रेंच बंद करके जर्मन भाषा थोप दी थी। परिणामस्वरूप सारा कार्य जर्मन में ही होने लगा। मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थी और एक विद्यालय में पढ़ती थी। मेरी माता अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की थी। एक बार जर्मन महारानी कैथराइन उस विद्यालय का निरीक्षण करने पहुंची।
बच्चियों के व्यायाम, खेल इत्यादि प्रदर्शन के बाद महारानी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है ? मेरी माँ को छोड़कर किसी को याद न था। मेरी माँ ने उसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुन्दर ढंग से गाया कि महारानी ने मेरी माँ से कुछ पुरस्कार मांगने को कहा। मेरी माँ चुप रही बार-बार आग्रह करने पर वह बोली - "महारानी जी क्या मैं जो कुछ माँगूगी आप देंगी? महारानी उत्तेजित होकर बोली -
“बच्ची मैं महारानी हु। मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता तुम जो चाहे मांगो।" इस पर मेरी माँ ने कहा, महारानी जी , यदि आप सचमुच अपने वचन पर दृढ है तो, मेरी केवल एक ही प्रार्थना है की अब आगे से इस प्रदेश में सारा कार्य केवल फ्रेंच में ही हो जर्मन में नहीं। इस सर्वथा अप्रत्याशित मांग को सुनकर महारानी पहले तो आश्चर्यचकित रह गयी; किन्तु फिर क्रोध से लाल हो उठी। वो बोली -
“महारानी होने के कारण मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता, पर तुम जैसी छोटी सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज जो पराजय दी है वह मैं कभी नहीं भूल सकती। जर्मनी ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया। मैं भलीभांति जानती हूँ की अब आगे से लॉरेन अधिक दिनों तक जर्मनी के अधीन नहीं रह सकेगा। यह कहकर वह उदास होकर वहां से चली गयी। “ गृहस्वामिनी ने आगे कहा -"डॉ रघुवीर, इस घटना से आप समझ सकते है कि मैं किस माँ की पुत्री हूँ। हम फ्रांसीसी लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते है; क्योंकि हमारे लिए राष्ट्रप्रेम और भाषा प्रेम में कोई अंतर नहीं।"
आचार्य रघुवीर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यहीं होगी कि हम अपनी भाषाओं का सम्मान, उपयोग एवं इसे बढ़ावा दें।
स्रोत - विभिन्न समाचार पत्र एवं वेबसाइट
विचार एवं संकलन- डॉ साकेत सहाय
#साकेत_विचार
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