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Showing posts from March, 2024

अपनी देवनागरी लिपि - केदारनाथ सिंह

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 अपनी देवनागरी लिपि ज्ञानपीठ ,  साहित्य अकादेमी व अन्य कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह जी के स्मृति दिवस पर नमन !    और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ  मेरी जिह्वा पर नहीं  बल्कि दांतों के बीच की जगहों में  सटी है।                                                        (फर्क नहीं पड़ता)      ~केदारनाथ सिंह ••• यह जो सीधी-सी, सरल-सी अपनी लिपि है देवनागरी इतनी सरल है कि भूल गई है अपना सारा अतीत पर मेरा ख़याल है 'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले नहीं आया था दुनिया में 'च' पैदा हुआ होगा किसी शिशु के गाल पर माँ के चुम्बन से! 'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं कि फूट पड़े होंगे किसी पत्थर को फोड़कर 'न' एक स्थायी प्रतिरोध है हर अन्याय का 'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़ जो किसी कंठ से छनकर  बन गयी होगी 'माँ"! स' के संगीत में संभव है एक हल्की-सी सिसकी सुनाई पड़े तुम्हें। हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे किसी लिखते हुए हाथ की  तकलीफ़ दबी हो कभी देखना ध्यान से  किसी अक्षर में झाँककर वहाँ रोशनाई के तल में एक ज़रा-सी रोशनी तुम्हें हमेशा

कांशीराम

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आज प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ एवं भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के अधिकारों एवं कर्तव्यों के लिए आवाज बुलंद करने वाले मान्यवर #कांशीराम  (15 मार्च, 1934 – 09 अक्टूबर 2006) की जन्म जयंती हैं ।   #कांशीराम जी सत्ता में वंचितों की भागीदारी के समर्थक थे। पर आधुनिक रुप में नहीं जहां दलितों के आवाज के नाम पर समाज में #कपोल-कल्पित अवधारणाएं स्थापित की जा रही है ।  #कथित मनुवादी भय दिखाकर सनातन समाज को बांटने का कार्य किया जा रहा है। कांशीराम जी ने #संतुलित धारा के साथ कार्य किया। वे अविभाजित भारत के उस प्रांत में जन्में थे जहां अनुसूचित जातियों की एक बड़ी आबादी निवास करती थीं। उन्होंने सरकारी नौकरियों में इस वर्ग को आवाज देने हेतु बामसेफ का गठन किया।  आज #दलित विमर्श के नाम पर #सनातन परंपराओं को विभाजनकारी मानसिकता के तहत गाली देने का षड्यंत्र चल रहा है ।  जरूरत है इससे बचने की। क्योंकि सामाजिक सुधार का मतलब उत्थान होता है न किसी वर्ग को हर वक्त गाली देना।  इससे विरोध और संघर्ष पनपता है। समाज सार्थक संघर्ष एवं समन्वय से मजबूत होता है। जय भीम, जय मीम से ज्यादा जरूरी है #जय #भारत की ।  इसी संदर्भ

साहित्य और बाज़ार

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साहित्य अब बाजार की गिरफ़्त में आता जा रहा है। साहित्य सिर्फ़ होर्डिंग, बैनर तक सिमटता जा रहा है।  यह सिस्टम और बाजार का घालमेल है।  उदारीकरण के बाद से साहित्य में बाजार का निर्णायक दख़ल शुरू हुआ।  अब लेखक पहले की भांति बाजार का प्रतिरोध करने की बजाय उससे जुगत भिड़ाने लगे। साहित्य और बाज़ार के घालमेल से लेखन उनके लिए व्यवहार, साधना, पीड़ा, भोग, यथार्थ से अधिक शौक का विषय होने लगा।  लेखन का एकमात्र ध्येय चर्चित होना रह गया। ऐसे में प्रतिबद्धता और सरोकार जैसे शब्द गौण हो गए। इसमें प्रकाशक भी शामिल है।  साहित्य के नाम पर साहित्य से इतर सब कुछ।  कुछ दिनों पूर्व मैं एक लेखन प्रतियोगिता में निर्णायक के रूप में शामिल था।  यह संस्था पिछले पाँच सालों से हिन्दी साहित्य के प्रसार हेतु गतिविधियाँ आयोजित करा रही है।प्रतियोगिता में मैंने यह देखा कि अधिकांश प्रविष्टियाँ रिश्तों के विघटन, अनैतिक संबंधों पर ही प्रेषित किए जाते हैं। हम सभी जानते है साहित्य का एक स्थायी भाव बोध होता है।  इसमें समाज, देश और काल का ऐतिहासिक  भाव बोध भीछुपा होता है। पर इस प्रकार के नकारात्मक भाव बोध से हम किस प्रकार के समाज

सुविचार_साकेत

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 सुविचार ‘डर के आगे हार है विश्वास के आगे जीत है। ‘ ©️डा. साकेत सहाय     14 मार्च, 2024 #साकेत_विचार #भाव_विचार_भाषा

13 मार्च, 1940

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आज विशेष  देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए सैकड़ों सेनानियों ने अपना बलिदान दिया था।  आज का दिन उन्हीं में से एक है। जब महान क्रांतिकारी पंजाब में जन्मे भारत माता के अमर सपूत ऊधम सिंह जी ने १३ मार्च, १९४० की ऐतिहासिक तारीख़ को माइकल ओ’डायर की हत्या करके जलियांवाला बाग कांड के नृशंस हत्याकांड का  बदला लिया था ।   ऊधम सिंह जी पर अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार का गहरा असर पड़ा और उन्होंने हर कीमत पर इसका बदला लेने का प्रण लिया ।  इस नृशंस हत्याकांड का बदला लेने के लिए वे लंदन तक गए और वहां जाकर उन्होंने पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ डायर की हत्या कर दी। आजादी के इस दीवाने ने निहत्थे हिंदुस्तानियों की मौत का आदेश जारी देने वाले ओ’डायर पर 13 मार्च, 1940 को ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर उसकी जान ले ली और देश के प्रति समर्पण एवं सर्वोच्च बहादुरी की नयी मिसाल कायम की। शहीद उधम सिंह जी के साहस, त्याग एवं बलिदान को शत शत नमन ! #आज़ादी #स्वाधीनता #ऊधम_सिंह #भारतीय _स्वाधीनता_संग्राम #जलियाँवाला #साकेत_विचार

क से कविता

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   क से कोमल लिखा  तो वे प्रसन्न हुए  वाह! बड़ा सुंदर, मोहक शब्द है।  क से काम लिखा  तो वे असहज हो गए  और जब 'क' से कर्तव्य लिखा  तो वे मौन हो गए । ©️डा. साकेत सहाय     11 मार्च, 2024 #साकेत_विचार #कविता #लिखना #भाषा  #WorldsLargestLiteratureFestival #FestivalofLetters2024 #SA70

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

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 #अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस #InternationalWomen'sDay महिला और पुरूष  दोनों ही सृष्टि की आत्मा है।  एक के बिना दूसरे का अस्तित्व शून्य है। आइए महिला दिवस पर इस समभाव को स्वीकारें ।  भारतीय संस्कृति में पुरुष को नाथ और स्त्री को देवी  के रुप में सर्वोच्च मानने की परंपरा स्थापित रही हैं। भारतीय संस्कृति में औपनिवेशिक प्रभाव ने इस परंपरा को विकृत किया है। हम और आप अपने सात्विक  इतिहास से कोसों दूर हैं । जहाँ तक समानता की बात है तो स्त्री और पुरूष को  उनकी प्रकृति के अनुरूप उच्चतम शिक्षा,श्रेष्ठ संस्कार दें तथा समाज दोनों के गुण एवं अवगुण का आकलन कर उच्चतम सामाजिक मानदंड स्थापित करने की मंशा रखते हुए उनसे व्यवहार करें। स्त्री में करुणा,दया,प्रेम,रचनात्मकता ,सृजनात्मकता जैसे  दिव्य गुण ईश्वर द्वारा नैसर्गिक रूप से प्रदत्त रहते  हैं। पुरुष को परमात्मा ने अलग जिम्मेदारी दी है। पश्चिम प्रेरित समाज आजकल महिला सशक्तिकरण की आड़ में पुरुष को महिला बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं महिला को पुरुष जिससे सामाजिक ढांचे में व्यापक परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं । इस वजह से कई दुष्परिणाम देखने को आ रहे हैं। जब

महाशिवरात्रि

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देवाधिदेव महादेव के आराधना पर्व महाशिवरात्रि की आप सभी को हार्दिक शुभकामना!  हर-हर महादेव!! भगवान शिव समस्त जगत के आदि कारक माने जाते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता  है।  शिव व्यक्ति की चेतना के अर्न्तयामी हैं । वेदों में शिव ‘रुद’ और शिव ‘कल्याण’ भी है। शिव - लय भी, प्रलय भी; कला भी, काल भी; डमरू भी, त्रिशूल भी; गंगाजल भी, विष भी! दिशा-दिशा में हर-हर है।  कहा भी गया है- ‘कंकर-कंकर में शंकर’ ।  भगवान शिव से जुड़ी एक कथा हैं-  'एक बार माँ काली क्रुद्ध अवस्था में थीं।  देव, दानव और मानव सभी उन्हें रोकने में असमर्थ थे। तब सभी ने माँ काली को रोकने हेतु भगवान शिव का सामूहिक स्मरण किया।  शिवजी ने भी यह अनुभव किया कि माता काली को रोकने का एकमात्र मार्ग है -प्रेम और वे माँ काली के मार्ग में लेट गए। माँ काली ने ध्यान नहीं दिया और उन्होंने उनकी छाती पर पैर रख दिया।  अभी तक महाशक्ति ने जहाँ-जहाँ कदम रखा था, वह जगह नष्ट हो गया था। पर यहां अपवाद हुआ । माँ काली ने जब देखा उनका पैर भगवान शिव की छाती पर हैं, वे पश्चाताप करने लगीं। इस कथा का सार यहीं हैं कि हर कठिन क

अज्ञेय

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  आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तंभों में से एक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी का जन्मदिन है। आपका जन्म वर्ष 1911 में उतर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। कालेज के दौरान आप सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए और कई बार जेल भी गए। कारावास में रहकर अपनी कुछ प्रमुख कृतियों का सृजन किया। 1943 में काव्य संग्रह तार सप्तक का संपादन किया। 1947 में अपने संपादन में नया प्रतीक पत्रिका में आधुनिक साहित्य की नई धारणा के साहित्यकारों को स्थान देकर साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। चार अप्रैल, 1987 को आपका निधन हुआ। उनकी स्मृति में उनकी दो रचनाएँ-   (१) ‘मन बहुत सोचता है’ -अज्ञेय     मन बहुत सोचता है कि उदास न हो   पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?   शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,   पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!   नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,   खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,   पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,   धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,   सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,   वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—   इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!   मन बहुत स

हिंदी की वर्तमान स्थिति व हमारी मनोवृत्ति

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  हिंदी की वर्तमान स्थिति व  हमारी  मनोवृत्ति   अक्सर भारत में राजभाषा हिंदी की स्थिति तथा इसके प्रयोग की मनोवृत्ति पर सवाल उठते रहते है।  क्या हिंदी के प्रयोग को लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है ?    हिंदी का प्रश्न सिर्फ भाषा का प्रश्न नहीं है बल्कि इस प्रश्न का संबंध हमारी राष्ट्रीयता से भी जुड़ा हुआ है।  परंतु इधर इस सोच में भी परिवर्तन आ गया है। हिंदी के प्रति जिस संकल्पशील निष्ठा की ज़रूरत है उसकी झलक हिंदी से जुड़े लोगों के अलावा और कहीं नहीं दिख रही है।  यह भी कहा जाता है कि गैर सरकारी ,  गैर शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्य वास्तव में हिंदी के  प्रचार - प्रसार में ज़्यादा सहायक हैं। इसका मतलब है कि अन्यत्र इस विषय में सकारात्मक सोच का अभाव है या नकारात्मक सोच सकारात्मक सोच पर ज्यादा हावी  हो गया है। जिससे राजभाषा के रूप में हिंदी में किए गए अच्छे कार्य छुप जाते हैं।   स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे नीति निर्माताओं ने गहन विचार-विमर्श के बाद ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था।  यह राजभाषा देश के सभी निवासियों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सभी पर समान रूप