हिंदी की वर्तमान स्थिति व हमारी मनोवृत्ति
हिंदी की वर्तमान स्थिति व हमारी मनोवृत्ति
अक्सर भारत में राजभाषा हिंदी की स्थिति तथा इसके प्रयोग की मनोवृत्ति पर सवाल उठते रहते है। क्या हिंदी के प्रयोग को लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है? हिंदी का प्रश्न सिर्फ भाषा का प्रश्न नहीं है बल्कि इस प्रश्न का संबंध हमारी राष्ट्रीयता से भी जुड़ा हुआ है। परंतु इधर इस सोच में भी परिवर्तन आ गया है। हिंदी के प्रति जिस संकल्पशील निष्ठा की ज़रूरत है उसकी झलक हिंदी से जुड़े लोगों के अलावा और कहीं नहीं दिख रही है।
यह भी कहा जाता है कि गैर सरकारी, गैर शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्य वास्तव में हिंदी के प्रचार-प्रसार में ज़्यादा सहायक हैं। इसका मतलब है कि अन्यत्र इस विषय में सकारात्मक सोच का अभाव है या नकारात्मक सोच सकारात्मक सोच पर ज्यादा हावी हो गया है। जिससे राजभाषा के रूप में हिंदी में किए गए अच्छे कार्य छुप जाते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे नीति निर्माताओं ने गहन विचार-विमर्श के बाद ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था। यह राजभाषा देश के सभी निवासियों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सभी पर समान रूप से लागू है। इस देश की अधिकांश बड़ी सरकारी एवं निजी कंपनियों का कार्यक्षेत्र अखिल भारतीय है। सरकारी क्षेत्र में तो राजभाषा नीति लागू ही है।
ऐसे में हम सभी को विचारना चाहिए कि एक ऐसी संस्था में कार्य कर रहे हैं जिसका स्वरूप अखिल भारतीय है और हमारा संपर्क अनेक भाषा-भाषी व्यक्तियों से होता है। उस परिस्थिति में हमसे क्या अपेक्षित है और हमारा व्यवहार कैसा हो ?
इससे पहले हम इस पहलू पर विचार कर लें कि सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच क्या है और इसका प्रभाव किस प्रकार पड़ता है? –
क्या हम सभी ने कभी इस विषय में गंभीरता से सोचा है कि भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुसार हमें अपना काम-काज ’हिंदी’ में ही क्यों करना चाहिए ? अंग्रेजी में क्यों नही?
हिंदी में करो या अंगेजी में क्या फर्क पडता है?
ऐसे बहुत से सवाल है जो अक्सर पूछे जाते है। इन सभी से राजभाषा प्रहरियों को अक्सर जूझना पड़ता है। दुर्भाग्यवश इन सवालों पर बहुत गंभीरता से कभी चर्चा नहीं की जाती है।
पहला सवाल- सरकारी कर्मचारियों को अपना सरकारी काम-काज हिंदी में क्यों करना चाहिए?
उत्तर- हमारे देश भारत में, तानाशाही नहीं, एक स्पष्ट लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है, देश का शासन जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है, सरकारी काम करने व करवाने के क्या नियम, होंगें- इसका निर्धारण करना- हम सरकारी कर्मियों का काम नहीं, उन जन-प्रतिनिधियों का है, जिन्हें जनता ने चुनकर भेजा है। सरकारी कर्मचारी हमें किसी ने जबर्दस्ती नहीं बनाया, बल्कि हमने इसे स्वयं स्वीकार किया है। नियुक्ति के समय हम सभी ने शपथ ली है कि सरकार द्वारा समय-समय पर बनाये गये नियमों का पालन करेंगें। सरकार हमसे जो काम करवाती है - उसके बदले हमें वेतन देती है-जिससे हमारे परिवार का गुजारा चलता है। हम एक अच्छा सभ्य जीवन जीते है। ’हिंदी’ को राजभाषा का संवैधानिक दर्जा मिले-74 वर्ष बीत चुके है लेकिन सरकारी काम-काज में, अभी तक हमने मूल रूप में इसे कितना अपनाया है ? यह बात किसी से छिपी नहीं है।
जिस अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के रुप में,कुछ वर्षों के लिए अपनाने की छूट दी गयी थी-वही वास्तव में राजभाषा के सिंहासन पर जमी बैठी है। राजभाषा ‘हिंदी’ को लागू करने के संबंध में सरकार की नीति अभी तक सहयोग व प्रोत्साहन की रही है। कोई जोर-जबर्दस्ती का रवैया अभी तक नहीं अपनाया गया है हालांकि कानून बन गए है। लेकिन लोकतांत्रिक देश होने का नाजायद फायदा कुछ अंग्रेजीपरस्त अधिकारी और कर्मचारी ’हिंदी’में काम करने का प्रयास ही नहीं करते-जबकि सरकार की तरफ से हर प्रकार का सहयोग उन्हें दिया जा रहा है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते है-’भय बिनु होय न प्रीति’अर्थात भय दिखाये बिना तो प्रेम भी नहीं होता है। क्या हम सभी उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे है। जब सरकार राजभाषा नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान करेगी ? क्या हमारा कोई नैतिक दायित्व नहीं बनता कि जनता का काम, उस जनता की भाषा में करें जिसे देश की 93% से अधिक आबादी आसानी से समझती है। थोड़ी-सी सुविधा और एक विदेशी भाषा के प्रति अनावश्यक मोह के लिए
लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्यक जनता को, उसके अधिकारों से वंचित कर देना – कहां तक जायज है?
दूसरा सवाल – सरकारी काम-काज अंग्रेजी में क्यों नहीं?
अंग्रेजी ही नहीं विश्व की कोई भाषा बुरी नहीं है।
अंत में, इन परिस्थितियों पर विचार करने के बाद यह कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति,परिवार,संगठन, या समाज कमजोर नहीं होता। अगर कमजोर होता है तो हमारे अंदर का आत्मविश्वास और नेतृत्वकर्ता। अगर बात स्वयं के स्तर पर आती है तो किसी व्यक्ति के मन का विश्वास ही जीत की नींव तैयार करता है। परिवार, संगठन, समाज के बारे में भी यही तथ्य लागू होता है। इन सभी को सार्थक नेतृत्व एवं आत्मविश्वास द्वारा ही शिखर पर ले जाया जा सकता है। दुर्भाग्यवश, हिंदी के ऊपर भी यह तथ्य लागू होता है। हिंदी एक सर्वश्रेष्ठ भाषा है, इसमें अपार शब्द भंडार है, हिंदी ने देश को जोड़ने में, आजादी दिलाने में इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन सभी तथ्यों के बावजूद, हिंदी आज भी अंग्रेजी के समक्ष दोयम दर्जे की भाषा मानी जाती है , विशेष रूप से उन लोगों के बीच जो देश को दिशा देते है। परंतु हिंदी के मूल तथ्य से जो परिचित हैं वे गरीब है, कमजोर है उनके हाथों में कुछ नहीं। जिससे वे हिंदी के लिए कुछ नहीं कर पाते बस अफसोस करते रहते है। लेकिन तभी तक जब तक वे मध्य या निम्न वर्ग का हिस्सा बने रहते है। जैसे ही उनके पास अर्थ की ताकत आती है वे भी अंग्रेजी की माला जपने लगते है। और यह बहस काफी पुरानी प्रतीत होती है।
ऐसे में, अगर हम सभी वास्तव में हिंदी के प्रति कुछ करना चाहते है, इसे इसके वास्तविक पद पर आसीन करना चाहते है तो हम सभी को जिन्हें हिंदी से मातृभाषा, संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मीडिया की भाषा, रोजगार की भाषा, सिनेमा की भाषा, कला-संस्कृति की भाषा, संस्कार की भाषा के रुप में थोड़ा भी फायदा हुआ है या वे जो हिंदी की मदद से सफलता की सीढ़िया चढ़े है उन्हें आगे बढ़कर हिंदी के गुणों, ताकत को गौरवान्वित करने की जरुरत है। न कि थोथी भाषणबाजी ।
हालाँकि स्थिति में बदलाव आ रहे है। जो एक अच्छा संकेत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति व तकनीकी शिक्षण में हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के प्रयोग से सकारात्मक संकेत गया है। आशा है और अधिक बदलाव होंगे।
पर इसी के साथ यह भी ज़रूरी है कि हम अपने अंदर झांके। शुरुआत स्वयं से करें। अपने बच्चों के समक्ष हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को संपन्न भाषा के रुप में चित्रित करें। तकनीक, चिकित्सा की भाषा के रुप में हिंदी की महत्ता को स्थापित करें। तभी विभिन्न उपनामों से अलंकृत राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, विश्व भाषा हिंदी सशक्त होगी। हिंदी सशक्त होगी तो समस्त भारतीय भाषाओं का प्रसार होगा।
डॉ साकेत सहाय
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक
भाषा-संचार विशेषज्ञ
www.vishwakeanganmehindi.blogspot.com
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