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Showing posts from June, 2023

साहित्यकार नागार्जुन

 प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार बाबा नागार्जुन को नमन! बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे बैद्यनाथ मिश्र उर्फ‘बाबा नागार्जुन’ने अपनी मातृभाषा मैथिली में 'यात्री' उपनाम से लिखा। काशी प्रवास में उन्होंने ‘वैदेह’ उपनाम से भी रचनाएँ लिखी। पाली सीखने के लिए वे श्रीलंका के बौद्ध मठ पहुंचे और यहीं  'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया। कबीर और निराला की श्रेणी के अक्खड़ लेखक नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली, संस्कृत एवं बांग्ला में मौलिक रचनाएँ एवं अनुवाद कार्य किया।आपने अपनी फकीरी व बेबाकी से अपनी अनोखी साहित्यिक पहचान बनाई।      नागार्जुन की एक कविता सुबह-सुबह   सुबह-सुबह तालाब के दो फेरे लगाए   सुबह-सुबह रात्रि शेष की भीगी दूबों पर नंगे पाँव चहलकदमी की   सुबह-सुबह हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए माघ की कड़ी, सर्दी के मारे   सुबह-सुबह अधसूखी पत्तियों  का कौड़ा तापा आम के कच्चे पत्तों का जलता, कडुआ कसैला सौरभ लिया   सुबह-सुबह गँवई अलाव के निकट घेरे में बैठने बतियाने का सुख लूटा   सुबह-सुबह आंचलिक बोलियों का मिक्सचर कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा सुबह-सुबह   स्रोत – नागार्जुन रचना सं

ओम जय जगदीश हरे के रचयिता- श्रद्धाराम फिल्लौरी को नमन

 विश्व के कोने-कोने में सनातन समाज द्वारा पूर्ण श्रद्धा के साथ गायी जाने वाली आरती "ओम जय जगदीश हरे" के रचनाकार पंडित श्रद्धाराम फिलौरी की आज 133वीं पुण्य तिथि है।  पंजाब के फिलौर नामक ग्राम में 30 सितंबर , 1837 को उनका जन्म हुआ था।  उनके द्वारा लिखित "भाग्यवती" नामक उपन्यास को अनेक विद्वानों द्वारा हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है।  वे एक ज्योतिर्विद् और आयुर्वेद के भी ज्ञाता थे।  उन्होंने महाभारत के उद्धरणों के माध्यम से अंग्रेजों को भारत से उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था।  युवाओं पर उनके बढ़ते प्रभाव को देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें उनके गांव से निष्कासित कर दिया था। एक ईसाई पादरी फादर न्यूटन के प्रस्ताव पर सरकार ने उनका निष्कासन रद्द कर दिया था।  44 वर्ष की अल्पायु में 24 जून, 1881 को वे इस संसार से विदा हुए।  1870 में उनकी रचित अमर रचना "ओम जय जगदीश हरे" आज भी जन-जन में लोकप्रिय है।  उनके इस योगदान को मैंने वर्ष 2020 में आप सभी के सामने लाने का प्रयास किया था।  आज पुनः आप सभी से साझा कर रहा हूँ।  “ओम जय जगदीश हरे" के इस अमर रचनाकार और हिंदी के

देवी प्रसाद चौधरी और पटना का शहीद स्मारक

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आज महान चित्रकार स्वर्गीय देवी प्रसाद राय चौधरी जी की जयंती है। आपकी प्रसिद्ध कृति है पटना का शहीद स्मारक । चित्रकार, मूर्तिकार एवं ललित कला अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष देवी प्रसाद चौधरी का जन्म 15 जून, 1899 को अविभाजित भारत के मीरपुर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। आप भारत सरकार से वर्ष 1958 में पद्म भूषण से सम्मानित कला साधक हैं।  विधान सभा भवन के पास स्थित पटना के शहीद स्मारक से भला आज कौन नहीं परिचित है। इस स्मारक में 7 वीर पुरुषों की कांस्य प्रतिमा लगी है। देवी प्रसाद जी के इस प्रमुख चित्र “शिल्प शहीद स्मारक” की स्थापना 1956 ईस्वी में पटना सचिवालय के बाहर की गई थी। इसमें  7 युवाओं को राष्ट्रीय ध्वज फहराने के प्रयास में अपने प्राणों का बलिदान करते दिखाया गया है।  भारत छोड़ो आंदोलन-1942 के दौरान पटना सचिवालय पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने के संकल्प के साथ एक जुलूस आगे बढ़ रहा था तभी अंग्रेजों ने उस पर गोली चला दी और इस घटना में 7 युवक शहीद हो गए । देवी प्रसाद ने इस घटना को मूर्ति शिल्प में जीवित कर दिया । इस शिल्प में प्रथम युवक राष्ट्रीय ध्वज लिए आगे बढ़ रहा है एक युवक घायल अवस्था में गिरते हु

भाषिक औपनिवेशिकता

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यह स्थापित सत्य है कि इस देश में सबसे ज्यादा बोली एवं समझी जाने वाली भाषा हिंदी है।  अतः देशहित में भाषा के नाम पर सोशल मीडिया या राजनीतिक मंचों के माध्यम से स्वार्थपरक धारणाएं स्थापित की जानी तुरंत बंद की जाए। क्या दही प्रिंट करके व्यवस्था ने कोई गुनाह किया था?  वैसे व्यवहारिकता तो यही है कि इस देश में हर चीज पर राज्य विशेष की भाषा तथा हिंदी में ग्राहक सूचना प्रिंट होनी चाहिये। परंतु यह दुर्भाग्य है कि इस देश में हर चीज में राजनीतिक एजेंडा के तहत भाषा, जाति और पंथ को घसीटा जाता है। कब तक किसी आप संघ की राजभाषा हिंदी का अपमान करेंगे?  कभी भाषा को पंथ से जोड़कर कुतर्क प्रस्तुत करेंगे । भाषाएं राष्ट्रीय संस्कृति से जुड़ी होती हैं। कभी हिंदी-उर्दू का विवाद, कभी हिंदी की बोलियों के नाम राजनीतक रोटी सेंकना तो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेजी को आगे करना। हिंदी-उर्दू को ही लें तो यह है कि उर्दू और हिंदी हमारी अपनी  भाषाएं है।  मात्र लिपि का अंतर है। इतिहास  पढ़ लीजिये जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत उर्दू को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा।  यदि देश पर तुर्क-मुगल-अंग्रेजों द्वार

राष्ट्रभाषा हिन्दी और राजनीतिक दोहरापन

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   हिंदी ब्रिटिश गुलामी से आजादी के बाद से ही नेतृत्व के कुबुद्धि की वजह से  ग़ुलामी की प्रतीक भाषा अंग्रेजी से पराजित होकर भारतीय भाषाओं की सौतन बनकर उभरती है या षड्यंत्र के तहत उभारी जाती है। भले ही हिंदी सौतन हो या नहीं । एक समस्या यह भी है हिंदी को लेकर जान-बूझकर काल्पनिक धारणाएं प्रस्तुत की जाती हैं । जिनसे किसी का भला नहीं होने वाला । क्षणिक राजनीति को यदि छोड़ दें तो भी हिंदी का जिन नेताओं ने, लोगों ने, ब्यूरोक्रेसी ने पूर्व में विरोध किया उन्हीं लोगों ने हिंदी की मलाई भी खूब काटी ।  हिंदी को लेकर तमाम लोग इनमें वैसे भी लोग शामिल है जिन्हें वैसे तो हिंदी की क ख ग नहीं आती पर बात जब विरोध की आती है तो ऐसे लोग भाषा विशेषज्ञ बन जाते हैं परंतु वे भी हिंदी पढ़ते है अपनी जरूरत के लिए।  एक बार फिर तमिलनाडु सरकार ने राजनीतिक लाभ एवं दुराग्रह के तहत भारत सरकार की एक प्रमुख बीमा कम्पनी द्वारा संविधान सम्मत और सरकारी दिशानिर्देश के अनुरूप जारी परिपत्र का विरोध कर संघवाद की नीति के प्रति अवमानना ही प्रदर्शित की है जोकि देशहित में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।  केंद्र सरकार के कार्यालयों की भाषा न