भाषिक औपनिवेशिकता




यह स्थापित सत्य है कि इस देश में सबसे ज्यादा बोली एवं समझी जाने वाली भाषा हिंदी है।  अतः देशहित में भाषा के नाम पर सोशल मीडिया या राजनीतिक मंचों के माध्यम से स्वार्थपरक धारणाएं स्थापित की जानी तुरंत बंद की जाए। क्या दही प्रिंट करके व्यवस्था ने कोई गुनाह किया था?  वैसे व्यवहारिकता तो यही है कि इस देश में हर चीज पर राज्य विशेष की भाषा तथा हिंदी में ग्राहक सूचना प्रिंट होनी चाहिये। परंतु यह दुर्भाग्य है कि इस देश में हर चीज में राजनीतिक एजेंडा के तहत भाषा, जाति और पंथ को घसीटा जाता है। कब तक किसी आप संघ की राजभाषा हिंदी का अपमान करेंगे?  कभी भाषा को पंथ से जोड़कर कुतर्क प्रस्तुत करेंगे । भाषाएं राष्ट्रीय संस्कृति से जुड़ी होती हैं। कभी हिंदी-उर्दू का विवाद, कभी हिंदी की बोलियों के नाम राजनीतक रोटी सेंकना तो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेजी को आगे करना। हिंदी-उर्दू को ही लें तो यह है कि उर्दू और हिंदी हमारी अपनी  भाषाएं है।  मात्र लिपि का अंतर है। इतिहास  पढ़ लीजिये जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत उर्दू को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा।  यदि देश पर तुर्क-मुगल-अंग्रेजों द्वारा दासता नहीं थोपी जाती तो क्या यहाँ अंग्रेजी भाषा या फारसी लिपि वाली उर्दू  चलती? इस देश की सांस्कृतिक एकता के लिये जरूरी है कि इस देश की परंपरा, भाषा, लिपि, संस्कृति का सम्मान हों, उसे बढ़ावा देने का यत्न हो। 

अतः तमिलनाडु सरकार को यह समझना चाहिए यह देश समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का देशहै। इस देश में सदियों से एक भाषा राष्ट्रीय तौर पर अपनाने की परंपरा रही है। भारत एक संघीय गणराज्य है तो सभी राज्यों का यह राष्ट्रीय धर्म है कि वे संघ की राजभाषा हिंदी का सम्मान करें, न कि निहित स्वार्थ में देश का नुक़सान करें। राष्ट्रीय भावना को क्षति पहुँचाए। 

क्या यह देश अभी भी ब्रिटिश, मुगल या अरबों   का उपनिवेश है जो आप उनकी भाषा, संस्कृति, परंपरा का हर जगह प्रयोग करेंगे । आप हर भाषा का सम्मान करें, उसे सीखें,पर अपनी राष्ट्रभाषा, राजभाषा को क्यों अपमानित करते हैं ? यह जरूरी है कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर इस विषय को सकारात्मक तरीके से उठायें। जब तक सभी कंपनियां अपने उत्पादों पर राजभाषा और प्रदेश विशेष की भाषा में नहीं लिखती तब तक उसे न खरीदें ।  आजादी के अमृत काल में संविधान के रक्षार्थ हम सभी इतना तो कर ही सकते हैं।  

जरा सोचिये! क्या हमारे महान नेताओं ने स्वभाषा के लिए इसी दिन की खातिर अपना बलिदान दिया था? 

©डॉ. साकेत सहाय

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