राष्ट्रभाषा हिन्दी और राजनीतिक दोहरापन

  

हिंदी ब्रिटिश गुलामी से आजादी के बाद से ही नेतृत्व के कुबुद्धि की वजह से  ग़ुलामी की प्रतीक भाषा अंग्रेजी से पराजित होकर भारतीय भाषाओं की सौतन बनकर उभरती है या षड्यंत्र के तहत उभारी जाती है। भले ही हिंदी सौतन हो या नहीं । एक समस्या यह भी है हिंदी को लेकर जान-बूझकर काल्पनिक धारणाएं प्रस्तुत की जाती हैं । जिनसे किसी का भला नहीं होने वाला । क्षणिक राजनीति को यदि छोड़ दें तो भी हिंदी का जिन नेताओं ने, लोगों ने, ब्यूरोक्रेसी ने पूर्व में विरोध किया उन्हीं लोगों ने हिंदी की मलाई भी खूब काटी ।  हिंदी को लेकर तमाम लोग इनमें वैसे भी लोग शामिल है जिन्हें वैसे तो हिंदी की क ख ग नहीं आती पर बात जब विरोध की आती है तो ऐसे लोग भाषा विशेषज्ञ बन जाते हैं परंतु वे भी हिंदी पढ़ते है अपनी जरूरत के लिए। 

एक बार फिर तमिलनाडु सरकार ने राजनीतिक लाभ एवं दुराग्रह के तहत भारत सरकार की एक प्रमुख बीमा कम्पनी द्वारा संविधान सम्मत और सरकारी दिशानिर्देश के अनुरूप जारी परिपत्र का विरोध कर संघवाद की नीति के प्रति अवमानना ही प्रदर्शित की है जोकि देशहित में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। 

केंद्र सरकार के कार्यालयों की भाषा नीति के संबंध में किसी राज्य सरकार का ऐसा हस्तक्षेप एवं विरोध एक राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।  आखिर राज्य सरकारें भी तो अपनी राजभाषा से भिन्न भाषाभाषी  कर्मचारियों को राज्य की राजभाषा में प्रशिक्षित करती ही हैं। फिर इस कार्य में केंद्र सरकार का विरोध क्यों किया जा रहा है। इसके राजनीतिक निहितार्थ चाहे जो हो पर इसे देशहित में कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता। 

क्या भारत के संविधान की याद राज्यों को केवल अपने स्वार्थ के समय ही आती है। क्या इन्हें संविधान और राजभाषा नीति का पता नहीं ?  दी न्यू इंडिया एश्योरेंस कं भारत सरकार का एक उपक्रम है। किसी राज्य के मुख्यमंत्री को यह हक किसने दिया?  तमिलनाडु सरकार को राजनीतिक लाभ की ख़ातिर अपना उल्लू सीधा  करने से बचना चाहिए। 

बार-बार हिंदी के विरुद्ध ऐसे कृत्य केवल सत्ता के लिए वोट के नाम पर भला कौन-सी राजनीति है। दरअसल हिंदी की समस्या न राजनीतिक है न सामाजिक बल्कि लोगों को भड़का कर  स्वार्थ सिद्धि की है। यह भी सत्य है कि इस देश की ज़्यादातर सरकारों ने हिंदी का दोहन ही किया है। हिंदी के बल पर सरकारें सत्ता में तो आती हैं फिर उसे उसकी हालात पर छोड़ देती हैं । दरअसल हिंदी और इस देश के गरीबों की हालत एक ही है। जो स्वंय के बल पर आगे बढते हैं । यह स्थापित सत्य है कि हिंदी सबकी हैं । यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं है बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष की भाषा हैं । इसीलिए यह ईसा पूर्व से ही कभी पाली, प्राकृत,  अपभ्रंश,  ब्रज,  दक्खिनी , हिंदुस्तानी तथा आधुनिक हिंदी के रूप में व्यापक अभिव्यक्ति का जरिया बनी हुई हैं । आप सब हिंदी एवं भारतीय लोक भाषाओं में अद्भुत शाब्दिक समानता से इसे देख समझ सकते हैं ।  मराठी भाषी केशव  पेठे  जी ने १८९३ ई. में ‘राष्ट्रभाषा किंवा सर्व हिन्दुस्थानची एक भाषा करणे’ नामक पुस्तक में हिंदी को सर्वस्वीकृत राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर दिया था।  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी को 'राष्ट्रभाषा' नाम से प्रचारित किया था।  इसलिए हिंदी प्रचार सभाओं के नाम राष्ट्रभाषा सभा पंजीकृत किए गए थे।  जैसे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा और महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणे।

पर इस छद्म लोकतांत्रिक समाज में जहां न लोक के लिए जगह है न तंत्र के लिए । सब कुछ सत्ता है।  भले भाषा लोक को पाने का अद्भुत जरिया है पर दुर्भाग्य से इसकी याद केवल चुनाव के वक्त आती हैं । (यहां भाषा से मेरा पर्याय हिंदी से है।) 

आमतौर पर हिंदी को लेकर दो तर्क दिए जाते हैं - 

1. हिंदी उत्तर भारतीयों की भाषा है । मेरे विचार से यह तथ्य गलत है। इस देश में कोई भी व्यक्ति यह दावा नही कर सकता कि हिंदी उसकी मातृभाषा हैं । सबकी अपनी मातृभाषा या बोली है। हिंदी उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से लेकर पश्चिम तक सभी लोकभाषाओं का सम्मिश्र रूप हैं । इसीलिए इसे हर भारतीय जल्दी सीख लेता है। 

2 हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, यह तर्क भी गलत हैं । संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिंदी को इसीलिए राजभाषा घोषित किया था क्योंकि यह उस काल में भी व्यापक रूप से  स्वीकृत राष्ट्रभाषा थी। किसी देश की राजभाषा किसको घोषित किया जाता हैं?  हिंदी के अपमान पर यह कहा जा सकता है  -“महात्मा गांधी का रोज हम अपमान करते है जब हिंदी को रौंद कर अंग्रेजी को तरजीह देते हैं ।'  दुर्भाग्य से महात्मा गाँधी का माला जपने वाली सरकारें व लोग यहीं कर रही है।  साथ में  ‘हिंदी के विरोध पर सारे अंबेडकरवादी भी चुप हो जाते हैं ? तो क्या हिंदी  का विरोध बाबा साहेब के संविधान का अपमान नहीं हैं। 

इस देश की राष्ट्रीय एकता के लिए यह ज़रूरी है कि हिंदी को लेकर  हम सब बावेला न मचाए।  हिंदी सबकी है।  हम सभी अपनी भाषाओं का सम्मान करें । यह भी विचारणीय है कि हिंदी विरोध के नाम पर हम कहीं न कहीं अंग्रेजी भाषा का ही समर्थन करते हैं । जबकि भारत का विकास भारतीय भाषाओं में ही निहित हैं और हिंदी इसमें अग्रणी भूमिका में हैं। 

#जय हिंद जय हिंदी 

©डॉ. साकेत सहाय

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