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Showing posts from September, 2021

हिंदी के साथ देश की पहली सरकार का दोयम व्यवहार

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स्वतंत्रता  प्राप्ति के बाद अधिकांश सरकारों ने 'अंग्रेजी बसाओ' की नीति के नाम पर भाषाई क्षेत्रवाद का ही पोषण किया। आजादी के बाद की प्रथम सरकार ने माहौल के विपरीत हिंदी के साथ सबसे अधिक धोखा किया। जनता मूढ़मति के रूप में इस भाषाई राजनीति का शिकार होकर न अपनी भाषा की रही, न अंग्रेजी की और न अपनी संस्कृति और परंपरा की।  सबसे विमुख । हम अंग्रेजी के तो कभी हो भी नहीं सकते। क्योंकि जब आँख यानी मातृभाषा को ही चश्मा मानेंगे और चश्मा यानी विदेशी भाषा को आँख मानेंगे तो क्या होगा?  अब भी वक्त है संभल जाए।  

दिनकर जी और राष्ट्रभाषा

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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश सरकारों ने 'अंग्रेजी बसाओ' की नीति के नाम पर भाषाई क्षेत्रवाद का ही पोषण किया। हम भी मूढ़मति इस भाषाई राजनीति के शिकार होकर न अपनी भाषा के रहे, न अंग्रेजी के और न अपनी संस्कृति और परंपरा के।  सबसे विमुख । हम अंग्रेजी के तो कभी हो भी नहीं सकते। क्योंकि जब आँख यानी मातृभाषा को ही चश्मा मानेंगे और चश्मा यानी विदेशी भाषा को आँख मानेंगे तो क्या होगा?  अब भी वक्त है संभल जाए।  मॉरीशस में हिंदी प्रचारिणी सभा का संदेश वाक्य है - 'भाषा गई,  संस्कृति गई।' कल राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की जयंती थी।  वे भी राष्ट्रभाषा  हिंदी  की पीड़ा और सत्ता के षड्यंत्र को समझते थे। तभी तो 20 जून, 1962 को राज्यसभा में हिंदी के अपमान को लेकर उन्होंने अपनी पीड़ा को इस प्रकार अभिव्यक्त किया- 'देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी प्रेमियों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा जरूर प्रधानमंत्री से मिली

रिश्ते और भाषा

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 रिश्ते और भाषा  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश सरकारों ने 'अंग्रेजी बसाओ' की नीति के नाम पर भाषाई क्षेत्रवाद का ही पोषण किया। हम भी मूढ़मति इस भाषाई राजनीति के शिकार होकर न अपनी भाषा के रहे, न अंग्रेजी के और न अपनी संस्कृति और परंपरा के।  सबसे विमुख । हम अंग्रेजी के तो कभी हो भी नहीं सकते। क्योंकि जब आँख यानी मातृभाषा को ही चश्मा मानेंगे और चश्मा यानी विदेशी भाषा को आँख मानेंगे तो क्या होगा?  अब भी वक्त है संभल जाए। मॉरीशस में हिंदी प्रचारिणी सभा का संदेश वाक्य है - 'भाषा गई,  संस्कृति गई।' साड़ी का विरोध करने से क्या देश को समृद्धि मिलेगी? क्या सब को अंकल बोलकर रिश्तों का भारतीय अहसास मिलेगा?  पीसी माँ, चाचा, ताऊ, अन्ना, बुआ जैसे शब्दों को विस्थापित करके क्या आनंद की प्राप्ति होगी? या परिहास के पात्र बनेंगे।   क्या कभी वो भाव अंकल.....में आ पाएगा? रिश्तों में भाव तो शाब्दिक संस्कारों से आते हैं ।  शायद यही कारण है कि अब रिश्ते भी शब्दों की तरह आंग्ल होते जा रहे हैं । वैसे भी कहा जाता है 'भाषा से हमारे संस्कार, संस्कृति और विरासत भी जुड़े होते है। आमीन! #सा

भारत की प्राचीनता पर राष्ट्रकवि दिनकर जी के विचार

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भारत कोई नया देश नहीं है। जिस भाषा में उसकी संस्कृति का विकास हुआ, वह #संसार की सबसे #प्राचीन भाषा है।  जो ग्रंथ भारतीय सभ्यता का आदि-ग्रंथ समझा जाता है, वही समग्र मानवता का भी प्राचीनतम ग्रंथ है। विदेशियों के द्वारा बार-बार पद-दलित होने पर भी भारत अपनी संस्कृति से मुँह मोड़ने को तैयार नहीं हुआ । अब जो वैज्ञानिक और औद्योगिक सभ्यता आ रही है, वह भी भारत से उसके अतीत का प्रेम नहीं छीन सकेगी। सत्य केवल वही नही है, जो पिछले दो सौ वर्षों में विकसित हुआ है। उस ज्ञान का भी बहुत-सा अंश सत्य है, जिसका विकास पिछले छह हजार वर्षों में हुआ है। भारत को वह नवीन सत्य भी चाहिए, जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और  प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि के लिए आत्मा के हनन को पाप समझता है। - रामधारी सिंह दिनकर  शत -शत नमन आइए दिनकर जी की जन्म जयंती पर इन पंक्तियों को स्मरण करें ।  तुम कौन थे और क्या हो गए.....

हिंदी दिवस पर कुछ भाव

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आज पता नहीं क्यूँ 'हिंदी दिवस' के अवसर पर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'बूढी काकी' की याद आ गई ।   इस अवसर पर एक विनम्र  अपील- हिंदी को चाहिए हिंदी के लिए बोलने वाला, हिंदी के लिए कुछ सोचने, करने वाला, हिंदी का प्रहसन न करने वाला, हिंदी पर गर्व करने वाला, हिंदी को चाहिए ऐसा हिंदी वाला जो इसे अग्रगामी भाषा बनाने में सहयोग करे।  फिर भी भारतीय संविधान के सभी प्रेमियों को हिंदी दिवस की मंगलकामना! जय हिंद! जय हिंदी!! #साकेत_विचार

हिंदी अपमान नहीं सम्मान की भाषा

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 सोशल मीडिया में दो चुटकुले अक्सर दिखते हैं -  1. भारत के भाषिक गुलाम और अंग्रेजी के अंध अनुचर हिंदी शब्दावली को कठिन कहकर इसे हास्य-व्यंग्य का हिस्सा बनाकर खुद को  ही मसखरा सिद्ध करते  है। उन्हें स्वयं को पता होना चाहिए कि वे अपनी ही भाषा की अपमान कर रहे है । जो उनके देश की, राष्ट्र की, बाबा साहब के संविधान की भाषा है। जिसे जन व नीति निर्माताओं ने राष्ट्रभाषा से राजभाषा बनाया। तो क्या हिंदी का अपमान  भारतीय संविधान, स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान और बाबा साहब और राष्ट्रपिता का अपमान नहीं है।  अक्सर हिंदी द्रोही  ट्रेन के लिए लौहपथगामिनी जैसे निरर्थक शब्दों  का प्रयोग करते है। पता नहीं ऐसे मूर्ख कौन-से विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करके आए हैं? यह हिंदी का शाब्दिक अपमान तो हैं ही, उस भाव का भी अपमान है जिस भाव के तहत हिंदी ने सबको एक सूत्र में पिरोया। क्या यह पिरोना बिना हिंदी की सहजता और सरलता के संभव था?  आज भी गांव में लोग ट्रेन को पटरी गाड़ी कहते हैं । फिर किस षड्यंत्र के तहत इस प्रकार की शब्दावली गढ़ी गयी।   तथ्य यह है कि लौह पथ गामिनी जैसे शब्द हिंदी के किसी भी शब्दक

एक आम करदाता की पीड़ा ....

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 एक आम करदाता की पीड़ा .... आज सोशल मीडिया पर एक अच्छा संदेश दिखा। इस पर मन में कुछ विचार आए। यह कि क्या कथित विश्व गुरु  का सपना दिखाने वाले,  सभी को छ: छजार रूपए देने का सपना दिखाने वाले, बिजली-पानी निःशुल्क, लैपटॉप और तीर्थयात्रियों को निःशुल्क  तीर्थाटन का सपना दिखाने वाले नेताओं के लिए यह संदेश ध्यान देने योग्य नहीं हैं । क्या लालच से,आरक्षण से नैतिक बल से किसी समृद्ध  राष्ट्र का निर्माण हो सकता हैं?  जो देश कभी अपने समृद्ध संस्कार और संस्कृति के लिए जाना जाता था, वहां का चुनावी तंत्र किस प्रकार की भावी व्यवस्था के निर्माण की नींव रख रहा है? सब कुछ नैतिकता विहीन। लोभ-लालच पर आधारित ।  संदेश देखें (आवश्यक संंशोधन के साथ) तुम हमें वोट दो हम तुम्हें- ... लैपटॉप देंगे .. ... स्कूटी देंगे .. ...  बिजली देंगे .. ... कर्जा डकार जाना, हम माफ कर देंगे  ... ये देंगे .. वो देंगे ..  ये क्या खुल्लम- खुल्ला रिश्वत नहीं ? इस देश में क्या कोई तंत्र भी है ? सरकार, न्यायपालिका को इस पर रोकथाम के लिए  विशेष रूप से चुनाव आयोग को तुरंत सुनवाई करनी चाहिए।  इस संबंध में आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किए जाने

आधुनिक हिंदी के पितामह- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

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कहते हैं पुण्यात्माओं को ईश्वर अपने पास जल्दी बुला लेता हैं  या इसे यूं कह सकते हैं  महानता कभी आयु की प्रतीक्षा नहीं करती।  नचिकेता और ध्रुव जैसे बालक, आदि शंकराचार्य (32), स्वामी विवेकानंद,(39) जैसे आध्यात्मिक पुरूष, शेरशाह सूरी  जैसे शासक, भगत सिंह, खुदीराम बोस, अशफ़ाक उल्ला खां, जतीन भगत जैसे देशभक्त योद्धा और  साहित्यकार "भारतेन्दु" हरिश्चन्द्र जैसे नाम इस कड़ी  में आते हैं।  आधुनिक हिंदी के पितामह कहे जाने वाले गद्यकार, कवि, नाटककार, व्यंग्यकार,उपन्यासकार, पत्रकार और चिंतक के रूप में विख्यात भारतेंदु हरिश्चन्द्र अपनी ज़िन्दगी बहुत लंबी तो नहीं जिए, पर उनका यही अल्प जीवन साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अवदान की दृष्टि से उन्हें इतिहास पुरुष के रूप में स्थापित कर गया।  वंचितों और शोषितों  के समर्थन में अपनी  सशक्त लेखनी बुलंद करने वाले इस महान साहित्यकार ने 6 जनवरी, 1885 को असमय इस दुनिया से विदाई ली।   उनके योगदान हेतु हिंदी एवं भारतीय साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा। स्वतंत्र सोच रखने वाले भारतेन्दु कई भारतीय भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों से संस्कृत, प

शिक्षक दिवस और हम

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शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि  वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करें ।  -डा. सर्वपल्ली  राधाकृष्णन, भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति भारत जैसे देश में जहां गुरु का स्थान सर्वोपरि है।  यह दिन हम विद्यार्थियों के लिए भी बेहद खास है। भारत में यह दिवस डा. राधाकृष्णन के व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने के लिए मनाया जाता है।  भले ही आज शिक्षक की परिभाषा में व्यापक बदलाव आया है। पर हमारे सामाजिक बोध में आज भी शिक्षक, गुरु की भूमिका में ही बसे हुए हैं ।  हालांकि शिक्षक की भूमिका में आए बदलाव हेतु दोषी आधुनिक शिक्षा पद्धति भी हैं । जहां शिक्षा का पर्याय ज्ञान से अधिक रोजगार हो चला हैं।  शिक्षा का बोध मात्र डिग्री तक सीमित हो चुका है। यह उस भारतीय ज्ञान  परंपरा के लिए बेहद घातक है जहां गुरु की महिमा का पता सहज ही इस श्लोक से लगाया जा सकता है-  गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ आज व्यक्ति अपनी  इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के बोझ तले कराह रहा है

राही मासूम रज़ा और हिंदी

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 राही मासूम रज़ा और हिंदी  यह सुखद संयोग है कि हिंदी  के महान कवि,संवाद लेखक, उपन्यासकार एवं महाकाव्य ‘महाभारत’ पर आधारित ऐतिहासिक टेलीविजन धारावाहिक ‘महाभारत’ की पटकथा लिखकर अपनी लेखनी को अमर करने वाले डॉ. राही मासूम रजा के जन्मदिन से हिंदी माह की शुरूआत हो रही है।  हम सभी ने जगजीत सिंह की आवाज में अमर गीत ‘हम तो है परदेश में, देश में निकला होगा चांद‘ को जरूर सुना होगा।इस मधुर गीत को कलमबद्ध करने वाले डॉ.राही मासूम रजा जी ही थे।   इस प्रसिद्ध गीत का भाव बोध हमारी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से प्रेम पर आधारित है।  हम सभी अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। बिना इसके मानव का अस्तित्व नहीं है।  हिंदी केवल एक भाषा-मात्र नहीं है वरन् यह सभी भारतीय भाषाओं, बोलियों का क्रियोलाइजेशन है।  इससे सभी भारतीय प्रेम करते है।  यह राजनीति, संस्कृति, समाज,लोक की भाषा है।इसीलिए यह लोकभाषा, संस्कृति की भाषा, संपर्क की भाषा, राष्ट्रभाषा से होते हुए राजभाषा के पद पर आसीन हुई और अब संचार की भाषा से तकनीक की भाषा के रूप में परिवर्तित होकर विश्व भाषा के रूप में उपस्थित है। आज विश्व धरातल पर ह