दिनकर जी और राष्ट्रभाषा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश सरकारों ने 'अंग्रेजी बसाओ' की नीति के नाम पर भाषाई क्षेत्रवाद का ही पोषण किया। हम भी मूढ़मति इस भाषाई राजनीति के शिकार होकर न अपनी भाषा के रहे, न अंग्रेजी के और न अपनी संस्कृति और परंपरा के। सबसे विमुख । हम अंग्रेजी के तो कभी हो भी नहीं सकते। क्योंकि जब आँख यानी मातृभाषा को ही चश्मा मानेंगे और चश्मा यानी विदेशी भाषा को आँख मानेंगे तो क्या होगा? अब भी वक्त है संभल जाए।
मॉरीशस में हिंदी प्रचारिणी सभा का संदेश वाक्य है - 'भाषा गई, संस्कृति गई।'
कल राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की जयंती थी। वे भी राष्ट्रभाषा हिंदी की पीड़ा और सत्ता के षड्यंत्र को समझते थे। तभी तो 20 जून, 1962 को राज्यसभा में हिंदी के अपमान को लेकर उन्होंने अपनी पीड़ा को इस प्रकार अभिव्यक्त किया-
'देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी प्रेमियों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा जरूर प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?
यह सुनकर पूरी राज्यसभा सन्न रह गई। दिनकर जी ने फिर कहा- ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है।'
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