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Showing posts from November, 2021

मेरी स्वरचित कविता-जिंदगी एक सपर

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जिंदगी कई नए रंग देती है। यह  रंग हमें  जीवन यात्रा को देखने, महसूस करने का अवसर देती है। वास्तव में हम सभी एक यात्री के रूप में इस सफर को महसूस करते है। यहीं तो जिंदगी है। आइए महसूस करते है इस कविता के माध्यम से- मेरी स्वरचित कविता  सफर सफर इच्छाओं का  सफर आकांक्षाओं का सफर  अरमानों का सफर उम्मीदों का सफर  ना-उम्मीदों का सफर  आशावाद का सफर  प्रतीकवाद का सफर  बचपन का सफर  जवानी का सफर  बुढ़ापे का सफर  जीवन के हर मोड़ का सफर  बदलाव का सफर  नए आयाम का सफर  कुछ पाने का  कुछ खोने का सफर  ग़ैरत का सफर  बेगैरत का सफर  तनाव का सफर  कुछ खोकर पाने का सफर कुछ देकर पाने का सफर  अपने को खोकर   स्वयं को पाने का सफर  खुशियों का सफर गमों का सफर  इन सब में  संतुलन बनाने का सफर  स्वयं को स्थापित करने का सफर  अपने अधिकारों को पाने का सफर  अपने कर्तव्यों को जानने का सफर  जिम्मेदारियों का सफर  खुद के बडे होने का सफर  बड़ो से सीखने का सफर  छोटे से बड़े बन जाने का सफर  मानवता का सफर  बराबरी का सफर  दूसरों के हकों के लिए  लड़ने का सफर  स्वयं को बचाने का सफर  खुद को समझने का सफर  खुद को

शादियों में बढ़ता ताम-झाम

शादी को पारिवारिक प्रसंग बनाइए आज तक जितनी शादियों में मैं गया हूँ , उनमें से करीब 80% में दुल्हा- दुल्हन की शक्ल तक नही देखी... उनका नाम तक नहीं जानता था... अक्सर तो विवाह समारोहों मे जाना और वापस आना भी हो गया पर ख्याल तक नहीं आया और ना ही कभी देखने की कोशिश भी की कि स्टेज कहाँ सजा है, युगल कहाँ बैठा है... भारत में लगभग हर विवाह में हम 75% ऐसे लोगों को आमंत्रित करते हैं जिसे आपके वैवाहिक आयोजन, व्यवस्था में कोई खास रुचि नही, जो आपका केवल नाम जानती है... जिसे केवल आपके घर का पता मालूम है, जिसे केवल आपके पद- प्रतिष्ठा, रसूख से मतलब है.. और जो केवल एक शाम का स्वादिष्ट और विविधता पूर्ण व्यञ्जनों का स्वाद लेने आती है।   आज की पेशवर शादियों का सच बन चुका है।  विवाह कोई सत्यनारायण भगवान की कथा नहीं है कि हर आते जाते राह चलते को रोक रोक कर प्रसाद दिया जाए... *केवल आपके रिश्तेदारों, कुछ बहुत close मित्रों के अलावा आपके विवाह मे किसी को रुचि नही होती...* ये ताम-झाम , पंडाल झालर , सैकड़ों पकवान , आर्केस्ट्रा DJ , दहेज का मंहगा सामान एक संक्रामक बीमारी का काम करता है... *लोग आते हैं इसे देखते है

गुरु तेगबहादुर, किसान, और पंजाब

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 दिखी न दूजी जाति कहुँ , सिक्खन -सी मजबूत ,   तेग बहादुर - सो पिता , गुरुगोविंद सो पूत ।  धर्म और मानवता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी दिवस पर मन में कुछ विचार आए। गुरु तेगबहादुर जी ने धर्म एवं संस्कृति के रक्षार्थ मुगलों के आगे कभी हार नहीं मानी। हाल में हमने देखा कि किस प्रकार से पंजाब के मजबूत समृद्ध किसानों ने राजनीतिक आंदोलन के नाम पर किसान कानून को निरस्त करवा दिया। हालांकि इस कानून को वापस करके सरकार ने कुछ नया तो नहीं किया, क्योंकि तीनों कानून पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण लंबित थे। पर आंदोलनजीवियों की राजनीतिक हठधर्मिता के कारण इस कानून में किसी भी प्रकार से संतुलन भी नही लाया जा सका था। अब सरकार ने एक राजनीतिक निर्णय के तहत इसे वापस ले लिया है, जिसे हठधर्मी किसान नेताओं की जीत मानी जा सकती है। अब आते है मूल बात पर। इस हठधर्मिता का अभिनंदन! पंजाबी समुदाय अपनी जिद, दृढ़ता, बहादुरी एवं मेहनत के कारण जाना जाता है। इस समुदाय ने अपनी इन्हीं गुणों के कारण पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया है। इस आंदोलन में हासिल

संविधान दिवस और देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद

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संविधान दिवस  आइए ! संविधान को सशक्त करने में अपना योगदान दें।  संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में समिति को संबोधित करते हुए कहा था "यदि लोग, जो चुनकर आएंगे योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वह दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। हमारे में सांप्रदायिक, जातिगत, भाषागत और प्रांतीय अंतर है। इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले और दूरदर्शी लोगों की जरूरत है जो छोटे छोटे समूह तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें।" इस संबोधन से स्पष्ट है कि देश को एक सशक्त, पारदर्शी नेतृत्व की जरूरत प्रारंभ से ही रही है। ऐसा नेतृत्व जो देश के व्यापक हितों को समझे न कि छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान करें । आइए भारतीयता एवं मानवता के लिए संविधान के मूल अर्थ को समझें।   जय हिंद ! जय हिंदी !! #संविधान_दिवस

भाषिक आत्महीनता

इस बार भी #valleyofwords वालों ने वही गलती करीं। वैली ऑफ वर्ड्स यानी शब्दों की घाटी, अब भला भारत में शब्दों की घाटी का आयोजन हो और बैनर अंग्रेजी में! वो भी तब जब यह देश विनोबा भावे जी की 125वीं वर्षगाँठ मनाने की तैयारी कर रहा है। जो हिंदी और देवनागरी लिपि के समर्थक थे। पर इनके लिए न हिंदी का महत्व है न संविधान का। यूँ तो हर चीज में संविधान का हवाला देंगे। पर भाषाई असमानता पर मौन? रोज ही बच्चे पीस रहे है अंग्रेजी की वजह से। पर किसी में हिम्मत नहीं । हम जड़ हो चुके है। हम अपनी भाषाओं को कब महत्व देंगे । हर आयोजन में विशेष रूप से निजी आयोजनों में हिंदी एवं देशी भाषाओं की अवमानना की जाती है। पिछली बार भी की थी, इस बार भी, हर बार करेंगे । क्योंकि अंग्रेजी से सम्मान जो बढ़ता है। ऐसे लोग गांधीजी के भक्त बनेंगे, सरकारों को कोसेगें। सरकारें भाषा के मामले में बहुत कुछ करती है। पर हम? कूंद हो चुके है। हर बड़े आयोजन में अंग्रेजी । कब आएगी अपनी भाषाएं। #जेएनयू की 30 से 300 पर राजनीतिक विरोध करने वालो, अन्य विषयों पर हंगामा बरपाने वालों को इस देश में शिक्षा में व्याप्त भाषिक असमानता नहीं दि

पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण

पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण !  जब बच्चे महर्षि वेदव्यास , वाल्मीकि, संत तिरुवल्लुवर, रामानुज, कबीर, नानक, महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द सिंह से इतर सेंट अलबर्ट, जेवियर्स, जोसेफ, माइकल,केरेन के नाम और संस्कृति से प्रभावित होंगे तो भारतीय संस्कृति नाम की ही बचेगी। हमारी पूरी संस्कृति शिक्षा और संस्कारों के अपसंस्कृति के कारण विलुप्ति की ओर हैं । सब कुछ में मिलावट। किसी प्रकार की शुद्धता नहीं, यह स्थिति तब और कठिन होगी जब एक से दो दशक में भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाली, पालन करने वाली पीढ़ी अपनी वय पूरी कर परलोक गमन कर जाएगी। अनुशासन से जीने वाली, ब्रह्ममूहर्त में जगने वाली, रात को जल्दी सोने वाली, आस-पड़ोस को परिवार का सदस्य मानने वाली, रिश्तों का लिहाज करने वाली, घर के आंगन, दालान, तुलसी का चौबारा, ब्रह्मबेला में देवपूजा के लिए पुष्प तोड़ने वाली, पूजा-पाठ करने वाली, प्रतिदिन मंदिर जाने वाली आदि का पालन करने वाले पीढ़ी कम हो रही है। घर से निकलते ही रास्ते में मिलने वालों से बात करने वाली, उनका सुख-दु:ख पूछने वाली, बड़े-बुजुर्ग के पैर छूने वाली, प्रणाम करने वाली, पूजा किये ब

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस - कुछ विचार

 कल बड़ी ख़ामोशी के साथ एक दिवस आया और चला गया। हर विषय पर मुखर रहने वाला सोशल मीडिया भी मौन रहा। अंध मुखरता के कारण यह वर्ग बड़ी खामोशी के साथ खुद को बदनाम महसूस कर रहा है। जैसे सरकार ने एक नकारात्मक भय से किसान कानून निरस्त कर दिया । खैर यहाँ हम बात कर रहे है अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस की। वैसे खुशी इस बात की है कि अन्य दिवसों की भांति इस मूक मजदूर वर्ग के लिए कोई तो दिवस बना। अन्यथा, यह वर्ग तो अपनी झूठी शान में जी रहा है। समाज में आधी से अधिक आबादी का हिस्सा इस तथाकथित अत्याचारी समाज से अपील है कि अपनी कमियों को पहचाने, अपनी खूबियों को जाने। आप समाज के महत्वपूर्ण हिस्सा है। आप निर्माता नहीं, पर निर्माण के स्तंभ जरूर हैं । समाज आपके बिना चल नहीं सकता। क्योंकि वर्तमान में समाज के बड़े हिस्से की अंधभक्ति में हम भावी पीढ़ी के लड़कों का हश्र वहीं न कर दें जो आज से तीन सदी पूर्व लड़कियों के साथ होता था। आज का यथार्थ यह है कि लडकें भी शोषण का शिकार हो रहे हैं। समाज का मूल स्वभाव है 'सख्तर भक्तों, निर्ममों यमराज'। वैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस 2021 का मुख्य प्रसार उद्दे

ट्रेन में बर्थ आवंटन की प्रक्रिया

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 सभी के लिए कुछ दिलचस्प।  क्या आप जानते हैं कि IRCTC आपको सीट चुनने की अनुमति क्यों नहीं देता है?  क्या आप विश्वास करेंगे कि इसके पीछे का तकनीकी कारण PHYSICS है।  ट्रेन में सीट बुक करना किसी थिएटर में सीट बुक करने से कहीं अधिक अलग है।  थिएटर एक हॉल है, जबकि ट्रेन एक चलती हुई वस्तु है।  इसलिए ट्रेनों में सुरक्षा की चिंता बहुत अधिक है।  भारतीय रेलवे टिकट बुकिंग सॉफ्टवेयर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि यह टिकट इस तरह से बुक करेगा जिससे ट्रेन में समान रूप से लोड वितरित किया जा सके।  मैं चीजों को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेता हूं: कल्पना कीजिए कि S1, S2 S3... S10 नंबर वाली ट्रेन में स्लीपर क्लास के कोच हैं और प्रत्येक कोच में 72 सीटें हैं।  इसलिए जब कोई पहली बार टिकट बुक करता है, तो सॉफ्टवेयर मध्य कोच में एक सीट आवंटित करेगा जैसे कि S5, बीच की सीट 30-40 के बीच की संख्या, और अधिमानतः निचली बर्थ (रेलवे पहले ऊपरी वाले की तुलना में निचली बर्थ को भरता है ताकि कम गुरुत्वाकर्षण केंद्र प्राप्त किया जा सके)  और सॉफ्टवेयर इस तरह से सीटें बुक करता है कि सभी कोचों में एक समान यात्री वितरण हो

छठ पर्व की महत्ता

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हमारे घर-समाज में छठी मइया की व्रत-पूजा की समृद्ध परम्परा रही है। परंपरागत रूप से घर के वरिष्ठ सदस्य माता, अपवाद स्वरूप पुरूष भी छठ व्रत करते थे। हालांकि समय के साथ इस स्वरूप में बदलाव आए है।  छठ पर्व यह सीख देता है कि  प्रकृति अथवा सृष्टि में सब कुछ क्षणभंगुर है,  समय के साथ बस रूपांतरण होता रहता है, अतः अहंकार का त्याग कर हर छोटी से छोटी वस्तु का सम्मान करना चाहिए।   जो उदय हुआ उसका अस्त होना तय है। इसकी अनुभूति छठ के अवसर पर अस्त होते सूर्यदेव तथा उगते सूर्य को आराधना के दौरान होती है।  छठ पर्व की परम्परा को आगे बढ़ाने में पीढ़ीगत क्रम में परिवार के सदस्यों द्वारा इसे अपनाने की परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है। बचपन से इस व्रत को देखने वाले, इसे करने वाले इसके सहज स्वरूप के कारण इसे अपनाते चले गए । दादी, छोटकी दादी, बड़की चाची, माँ, बड़की भाभी, पत्नी या घर के पुरूष द्वारा इसे करने से छठ की समृद्ध परंपरा स्थापित होती गयी। घर के बच्चों में भी इससे समृद्ध संस्कार का निर्माण हुआ । बच्चों को यह व्रत परम्परा बहुत लुभाती हैं । इसके लोक गीत, गांवों, परंपराओं की ओर खींचते हैं । परिवार के सभ

बिहार निर्माता डा. सच्चिदानंद सिन्हा -भारत के अग्रणी संविधान निर्माता

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आधुनिक बिहार के निर्माता डाॅ सच्चिदानंद सिन्हा की जयंती पर शत शत नमन!  उनसे जुड़ा एक संस्मरण है 'विधि शास्त्र की उच्च शिक्षा प्राप्त करके जब डाॅ सिन्हा बिहार लौटेें तो उनसे एक पंजाबी अधिवक्ता ने पूछा आप किस प्रदेश से हो तो उन्होंने उत्तर दिया बिहार से। वे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि उस समय बिहार का एक प्रदेश के रूप में गठन नहीं हुआ था। बिहार ब्रिटिश शासन में बने बंगाल का भाग था। अधिवक्ता महोदय ने पूछा कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो हिंदुस्तान में है ही नही तब डाॅ सिन्हा ने जवाब दिया कि है नहीं पर जल्दी ही हो जाएगा। यह बात फरवरी 1893 की है। उसके बाद मात्र 9 वर्षों के भीतर बिहार राज्य की सशक्त नींव रखी गयी। कहा जाता है जो स्थान बंगाल के नव निर्माण में राजा राम मोहन राय का है वहीं स्थान बिहार के नव निर्माण में डाॅ सच्चिदानन्द सिन्हा का है। साथ ही देश के युवाओं को यह भी नोट करनी चाहिए कि आधुनिक भारत के संविधान के निर्माण में कायस्थ कुल रत्न स्व. डा. सच्चिदानंद सिन्हा की अहम् भूमिका रही। वे बिहार की भोजपुरी माटी के महत्वपूर्ण स्थल बक्सर जिले के मूल निवासी थे। उनका जन्म वर्तमानु डु

चित्रगुप्त पूजा के बारे में

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  संकलन साभार 

भैया दूज की पौराणिक कथा

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भैया दूज की पौराणिक कथा भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ल का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया। यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने 'तथास्तु' कहकर यमुना को अमूल्य

एक विचार - निश्चल विश्वास

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सनातन सत्य आपके पास जो कुछ भी है वो इस संसार के करोड़ों लोगों के पास नही है। इसलिए परमपिता ने आपको जो दिया है उसके प्रति आभार प्रकट कीजिए और इन त्यौहारों पर अपनी ख़ुशियाँ साझा कीजिए। #साकेत_विचार

आदि गुरु शंकराचार्य और सांस्कृतिक एकता

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भारतवर्ष को सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से जागृत करने वाले आदि शंकराचार्य की केदारनाथ धाम स्थित समाधि पर मूर्ति का अनावरण । कभी इन चार धामों से तमाम भौगोलिक बाधाओं के बीच भारत की अद्भुत सांस्कृतिक, धार्मिक एवं भाषिक एकता का उद्घोष होता था। शायद इसी को देखते हुए कभी भाषाविद् एमनो ने कहा था-' पूरा भारत एक ही भाषिक परिवार का अंग हैं । धर्मो रक्षति रक्षितः।  #साकेत_विचार

हिंदी विश्व

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हिंदी राजनेताओं, पत्रकारों की चिंताओं से अलग कश्मीर से अमेरिका तक आम पथ पर सरपट भाग रही है। अतः हिंदी के बारे में एक वर्ग द्वारा दी जा रही जहरीली खुराक से दूर रहें। बहरहाल हिंदी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा के रूप में सर्वस्वीकृत है और तमाम दबावों एवं हीनता बोध के बावजूद यह विश्व स्तर पर मजबूती के साथ स्थापित हो रही है। लोग इसे सम्मान भी दे रहे है। समस्या या कमी हिंदी को अपनी मातृभाषा मानने वालों या हिंदी भाषी राज्यों में ज्यादा है यहां के लोग हिंदी को वह सम्मान नहीं देते जिसकी वह हकदार है। ऐसे में आज हिंदी तकनीक एवं ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में गरिमा के साथ स्थापित नही है। यदि इसमें लेखन हो भी रहा है तो हिंदी के मठाधीश उसे जगह नहीं देते। एक समय में ओडीशा या बंगाल जैसे प्रदेशों की ग्रामीण महिलाएं घरों में हिंदी की पत्र-पत्रिकायें पढ़ती थीं । आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व केरल में भी लिखित स्तर पर इसकी पहुँच बहुत अधिक थी। तमिलनाडु में भी पर्याप्त सम्मान था। पर अब? समस्या हिंदी के मठाधीशों से ज्यादा है। दूसरी हम हिंदी की मूल ताकत से भी अंजान है। केवल रोने से या सरकारों को कोसने क्या होगा?