पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण

पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण ! 

जब बच्चे महर्षि वेदव्यास , वाल्मीकि, संत तिरुवल्लुवर, रामानुज, कबीर, नानक, महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द सिंह से इतर सेंट अलबर्ट, जेवियर्स, जोसेफ, माइकल,केरेन के नाम और संस्कृति से प्रभावित होंगे तो भारतीय संस्कृति नाम की ही बचेगी। हमारी पूरी संस्कृति शिक्षा और संस्कारों के अपसंस्कृति के कारण विलुप्ति की ओर हैं । सब कुछ में मिलावट। किसी प्रकार की शुद्धता नहीं, यह स्थिति तब और कठिन होगी जब एक से दो दशक में भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाली, पालन करने वाली पीढ़ी अपनी वय पूरी कर परलोक गमन कर जाएगी। अनुशासन से जीने वाली, ब्रह्ममूहर्त में जगने वाली, रात को जल्दी सोने वाली, आस-पड़ोस को परिवार का सदस्य मानने वाली, रिश्तों का लिहाज करने वाली, घर के आंगन, दालान, तुलसी का चौबारा, ब्रह्मबेला में देवपूजा के लिए पुष्प तोड़ने वाली, पूजा-पाठ करने वाली, प्रतिदिन मंदिर जाने वाली आदि का पालन करने वाले पीढ़ी कम हो रही है। घर से निकलते ही रास्ते में मिलने वालों से बात करने वाली, उनका सुख-दु:ख पूछने वाली, बड़े-बुजुर्ग के पैर छूने वाली, प्रणाम करने वाली, पूजा किये बगैर अन्नग्रहण न करने वाली, चाचा-चाची, मामा-मामी, फूफा-फुआ, मौसा-मौसी आदि के नाम से अपने रिश्तों को पहचानने वाली पीढ़ी अब सिर्फ अंकल तक सिमटती जा रही है। तीज-त्यौहार, अतिथि देवो भव, शिष्टाचार, अन्न, धान्य, सब्जी, तीर्थयात्रा, चाहे कोई भी पंथ धारी हो, पर सनातन पंथ के रीति रिवाजों में आस्था रखने वाली पीढ़ी खो-सी रही है। बेहद संतुष्टि के साथ जीने वाली, पंचाग याद रखने वाली, हिंदी माह याद रखने वाली, दीपावली के छः दिन बाद छठ का तर्क देने वाली पीढ़ी, अमावस्या और पूर्णमासी याद रखने वाली, ईश्वर पर अपने-से अधिक विश्वास रखने वाली, समाज से लिहाज पालने वाली, पुरानी चीजों पर यकीन करने वाली, घर में परिवार और समाज के लिए निःशुल्क अचार-पापड़ बनाने वाली, घर का बना मसाला इस्तेमाल करने वाली, अपने खेत का सब्जी खाने वाली पीढ़ी अब खो-सी रही है। जरूरत है भारत के लिए इस पीढ़ी को बचाने की, जरूरत है इनकी नज़र उतारने की। क्योंकि यह पीढ़ी अब खो, समाप्त या कमजोर पड़ रही है। इनके खो-जाने, कमजोर पड़ने से एक महान जीवन शैली, महत्वपूर्ण सीख, गहरे समंदर में डूब जायेगी। आज के इस भागम-भाग में संतोषप्रद, सादगीपूर्ण, मिलावटरहित, धर्म सम्मत मार्ग पर चलने वाला आत्मीय जीवन खो-सा गया है। जरुरत है इनसे सीखने की। स्वयं के लिए,परिवार के लिए, समाज के लिए,देश के लिए । सच में किसी ने कहा है 'यह मानव इतिहास की आखिरी पीढ़ी है , जिसने अपने-से बड़ों की सुनी और अब अपने छोटों की भी सुन रही हैं।'

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