हिंदी विश्व में भारतीय अस्मिता की पहचान है। हिंदी भारत की राजभाषा,राष्ट्रभाषा से आगे विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है।
एक विचार - निश्चल विश्वास
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सनातन सत्य
आपके पास जो कुछ भी है वो इस संसार के करोड़ों लोगों के पास नही है। इसलिए परमपिता ने आपको जो दिया है उसके प्रति आभार प्रकट कीजिए और इन त्यौहारों पर अपनी ख़ुशियाँ साझा कीजिए।
#साकेत_विचार
विनम्र श्रद्धांजलि! महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की आज पुण्यतिथि है। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आंइस्टीन के सिद्धांत को चुनौती दी थी। स्वर्गीय वशिष्ठ नारायण सिंह इस देश व विशेष रूप से बिहार प्रदेश की दुर्व्यवस्था के शिकार होकर 40 वर्षों से अधिक मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया से पीड़ित रहे और असमय ही यह देश उनकी प्रतिभा, ज्ञान के उपयोग से वंचित रहा। इसे किसका दुर्भाग्य माना जाए? अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक। अति पिछड़ा या महादलित। कांग्रेस या राजद बीजेपी या जेडीयू। इस हमाम में सभी नंगे खड़े नज़र आयेंगे। उनकी अकाल मृत्यु इस देश की व्यवस्था में व्याप्त अनैतिकता एवं असमानता पर बहस एवं विरोध की मांग करती है। शिक्षा में इलीट समझे जाने वाले लोग किस प्रकार से कमजोर व दलित (कृपया इसे किसी जाति समूह से न जोड़े) लोगों का शोषण करते है उनकी ' मृत्यु गाथा" 🥲 इस ओर इशारा करती है। वक्त की मांग है कि शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप एवं वर्गभेद समाप्त हो। सभी को समान अवसर मिले। साथ ही देशी भाषाओं में शिक्षा प्रदान करने हेतु हम सभी अपने अपने स्तर पर कार्य करें । प्रदेश की सरकार केवल विभाजनकारी
चित्रकार इमरोज या इंद्रजीत जी के निधन के बाद बाजार एवं चर्चा पोषित लेखनी के समर्थक लिक्खाड़ों से सोशल मीडिया ‘अनसोशल’ होता जा रहा है। साहित्य प्रेमियों, बाज़ार से भी अलग एक अनुशासित दुनिया है। अन्यथा😔 साहित्य का अर्थ जिस प्रकार जड़ के बिना पौधा सूख जाता है, उसी प्रकार मूल के अभाव में लिखा हुआ साहित्य भी निरर्थक होता है। दुर्भाग्यवश, आजकल लोग बिना मूल को जाने ही केवल अपनी ‘उद्भभावना’ को ही सर्वांग सत्य मानने लगे है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि लेखक, पत्रकार वैज्ञानिक ज्ञान एवं सार्थक समझ के साथ ही अपनी मूल परंपरा, विरासत को जाने-समझे। जिस प्रकार जड़ का अस्तित्व पौधे से पहले होता है उसी प्रकार साहित्य का स्थायित्व भी उसके मूल पर टिका हुआ है। तभी वह भावी पीढ़ी को मार्गदर्शित करने में सक्षम हो सकेगा। नकारात्मकता राष्ट्र, समाज की गति को बाधित करती है। ऐसे में साहित्य की सशक्त भूमिका को समझना बेहद ज़रूरी है। आवश्यक यह है कि हम सभी ‘भारतीय दृष्टि, सम्यक सृष्टि’ के भाव बोध को सशक्तता प्रदान करने में सहायक बने। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध ‘साहित्य की महत्ता’ में कहते है –‘ज्ञान
पसंद और लगाव कहा जाता है, राग, अनुराग स्नेह, प्रेम, लगाव प्रकृति के जीवंत रंग हैं। ये रंग हम सभी की जिंदगी के अनेक भावों को दर्शाते हैं। जीवन के विशाल रंगमंच पर जीवन के ये रंग ज़िंदगी को यादगार बनाते हैं। आमतौर पर हम सभी को ये शब्द एक जैसे लगते है। पर इनके भाव एवं चरित्र में व्यापक अंतर है। बात करते है पसंद और लगाव की। हालंकि ये दोनों शब्द आपस में अभिन्नता से जुड़े हुए है। क्योंकि पसंद से ही लगाव की उपज होती है। यानि लगाव की प्राथमिक सीढ़ी पसंद ही है। किसी ने क्या खूब कहा है लगन बने लगाव की तो बयार बहे बदलाव की । परंतु यदि भाव की व्यापकता में जाए तो पसंद और लगाव में बड़ा फर्क दिखता है। पर इसे विडम्बना ही कहेंगे कि लोग आजकल पसंद की ओर ज्यादा मुड़ते जा रहे हैं। आमतौर पर यह देखा जाता है कि इंसान को कोई भी पसंदीदा/ मनचाही चीज यदि मिल जाए तो वह इसके महत्व को भूलने लग जाता है। ऐसे में पसंद को पाने की तीव्र लालसा हमें अंधी दौड़ की ओर ही धकेलती है। जहां सब कुछ है, मगर प्रेम नहीं है। बतौर उदाहरण आज पूर्वी भारत में व्यापकता के साथ मनाया जाने वाला आस्था का त्यौहार हरितालिका व्रत 'ती
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