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Showing posts from June, 2021

पिता

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आजकल बिहार में लगातार बारिश हो रही है। रुकने का नाम नहीं, पुराने दिनों की तरह। जैसे बचपन में कहते थे सोमवार से शुरू हुआ है तो सोमवार को ही ख़त्म होगा। कल जब बैंक गया तो हमारे वरिष्ठ सहकर्मी श्री शराफ़त हुसैन बोले- स्कूल की तरह ‘रेनी डे’ कर दिया जाए, तो कितना अच्छा होता😊 मैंने कहा- अब कहां वे मासूमियत भरे दिन! फिर मैंने कहां पहले सर पर पिता का हाथ होता था, तो सब अच्छा लगता था, सब दिन वसंत की माफ़िक़। पर अब कहां वे दिन।  सच में पिता बनकर ही लोग पिता को महसूस करते है। जीवन आपको पिता की भांति कर्मवान बनने को प्रेरित करता है ताकि आप अपने कर्तव्य-पथ पर रंग भर सके। अपनों के जीवन में ख़ुशियाँ ला सके। वास्तव में व्यक्ति के जीवन में पिता की सीख और आशीर्वाद का शब्दों से परे महत्व है।  पिता घर की आधारशिला होते है,  नींव होते है। 🙏💐 इस अवसर पर अपनी स्वरचित कविता की याद आई, जो पिता को समर्पित है।  पिता यूँ तो दो अक्षरों का मेल दोनों ही व्यंजन शायद इसीलिए भौतिकता के प्रतीक माने जाते पर इनका त्याग अजर-अमर-अविनाशी पर पिता होना इतना आसान भी तो नहीं ईश्वरीय कृपा पिता यानी पथ-प्रदर्शक, संरक्षक जिंदगी क

मिल्खा सिंह- जो दिल पर लेते थे, दिल से जीते थे।

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 कभी दूरदर्शन पर उनको देश के लिए स्वाभिमान के साथ नंगे पैर दौड़ते देखना एक अलग-सा अहसास देता था।  इस अलग से अहसास से उपजे खेलों के प्रति रोमांस ने लाखों भारतीयों को खेल की दुनिया में जाने को प्रेरित किया। जिसमें आनंद और रोमांच से बढ़कर देश के लिए मान-वृद्धि का उद्देश्य था। मिल्खा सिंह पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है। उन्होंने खेल की दुनिया को रुपयों के लिए नहीं अपनाया था बल्कि देश के स्वाभिमान से जोड़ा था।  कोरोना विषाणु से संक्रमित होने के करीब एक महीने बाद 91 वर्षीय इस महान धावक के निधन से देश ने खेल संस्कृति के महान योद्धा को खो दिया। वर्ष 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों के विजेता और 1960 के ओलिंपियन ने चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में अंतिम सांस ली। मिल्खा सिंह बीते 20 मई को कोरोना विषाणु की चपेट में आए थे। पहले उनके पारिवारिक रसोइए को कोरोना हुआ था, जिसके बाद मिल्खा और उनकी पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह भी कोरोना पॉजिटिव हो गए थे, जिनका इसी माह देहांत हुआ।  चार बार के एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता मिल्खा सिंह ने 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में भी रजत पदक हासिल किया था। उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन

ज़ेहाद- मुंशी प्रेमचंद

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बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे।  पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्ला

भाषा और पर्यावरण

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस अवसर पर भारतीयता के मूल- प्रकृति को दर्शाने वाली हिंदी भाषा को लेकर मेरे मन में कुछ चिंतन उभरते हैं जिनका समाधान सत्ता एवं व्यवस्था के पास है पर वो इसे अमल में नहीं लाना चाहती। स्वतंत्रता के अमृत वर्ष पर क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है कि इस देश की राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप इसकी अपनी कोई भाषा सरकारें या व्यवस्था अभी तक स्वीकार नहीं कर पाई है। ज़रा सोचिए! इस देश के निवासियों के अधिकार एवं कर्तव्य की रक्षा सरकारें किस भाषा में करती हैं। मतलब हम आज भी भाषाई एवं वैचारिक तौर पर ग़ुलाम हैं। फिर हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण की निर्मिति किस प्रकार की होगी? यह प्रश्न निश्चय ही विचारणीय है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वर्गीय अनुपम मिश्र कहते हैं, “किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझकर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं। हम ‘विकसित’ हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी। एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज