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Showing posts from December, 2023

आओ चलें थोड़ा

 *आओ चलें थोड़ा*  आओ चलें ! वाहन को घर पे ही छोड़ते हैं - कुछ दूर थोड़ा पैदल चलते हैं - एक नहीं तो आधा किलोमीटर चलते हैं - सवेरे नहीं तो शाम को चलते हैं - काम नहीं है तो बिना काम चलते हैं - केवलं मैंने लिखा ही नहीं किसीने गाया भी है - न हाथी होगा - न घोड़ा होगा - वहाँ तो पैदल ही जाना होगा - तेल बचाइए - सेहत बचाइए - और गुनगुनाते रहिए , " जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबह शाम " आओ चलें थोड़ा!

चिट्ठियाँ

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 “खो गयी वो......”चिठ्ठियाँ”जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते थे...!! “और बीच में लिखी होती थी “जिंदगी” नन्हें के आने की “खबर” “माँ” की तबियत का दर्द और पैसे भेजने का “अनुनय” “फसलों” के खराब होने की वजह...!! कितना कुछ सिमट जाता था एक “नीले से कागज में”... जिसे नवयौवना भाग कर “सीने” से लगाती और “अकेले” में आंखो से आंसू बहाती ! “माँ” की आस थी “पिता” का संबल थी बच्चों का भविष्य थी और गाँव का गौरव थी ये “चिठ्ठियां” “डाकिया चिठ्ठी” लायेगा कोई बाँच कर सुनायेगा देख देख चिठ्ठी को कई कई बार छू कर चिठ्ठी को अनपढ़ भी “एहसासों” को पढ़ लेते थे...!! अब तो “स्क्रीन” पर अंगूठा दौड़ता है और अक्सर ही दिल तोड़ता है “मोबाइल” का स्पेस भर जाए तो सब कुछ दो मिनट में “डिलीट” होता है... सब कुछ “सिमट” गया है 6 इंच में जैसे “मकान” सिमट गए फ्लैटों में जज्बात सिमट गए “मैसेजों” में “चूल्हे” सिमट गए गैसों में और इंसान सिमट गए पैसों में।

साहित्य का अर्थ

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चित्रकार इमरोज या इंद्रजीत जी के निधन के बाद बाजार एवं चर्चा पोषित लेखनी के समर्थक लिक्खाड़ों से सोशल मीडिया ‘अनसोशल’ होता जा रहा है। साहित्य प्रेमियों, बाज़ार से भी अलग एक अनुशासित दुनिया है। अन्यथा😔  साहित्य का अर्थ जिस प्रकार जड़ के बिना पौधा सूख जाता है, उसी प्रकार मूल के अभाव में लिखा हुआ साहित्य भी निरर्थक होता है। दुर्भाग्यवश, आजकल लोग बिना मूल को जाने ही केवल अपनी ‘उद्भभावना’ को ही सर्वांग सत्य मानने लगे है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि लेखक, पत्रकार वैज्ञानिक ज्ञान एवं सार्थक समझ के साथ ही अपनी मूल परंपरा, विरासत को जाने-समझे। जिस प्रकार जड़ का अस्तित्व पौधे से पहले होता है उसी प्रकार साहित्य का स्थायित्व भी उसके मूल पर टिका हुआ है।  तभी वह भावी पीढ़ी को मार्गदर्शित करने में सक्षम हो सकेगा। नकारात्मकता राष्ट्र, समाज की गति को बाधित करती है।  ऐसे में साहित्य की सशक्त भूमिका को समझना बेहद ज़रूरी है। आवश्यक यह है कि हम सभी  ‘भारतीय दृष्टि, सम्यक सृष्टि’ के भाव बोध को सशक्तता प्रदान करने में सहायक बने।    आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध ‘साहित्य की महत्ता’ में कहते है –‘ज्ञान

भाषा अभिमान और भाषा दुराग्रह "

 "भाषा अभिमान और भाषा दुराग्रह " भाषा अभिमान और भाषा दूराग्रह दो अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। भाषा अभिमान का अर्थ है अपनी भाषा पर गर्व करना और उसे अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ मानना। भाषा दुराग्रह का अर्थ है अपनी भाषा के प्रति पक्षपाती होना और अन्य भाषाओं के प्रति पूर्वाग्रह रखना। संत ज्ञानेश्वर जी ने "ज्ञानेश्वरी" लिखी जो गीता ज्ञान का प्राकृत मराठी अनुवाद था। तत्कालीन पंडितों ने इसका विरोध किया क्योंकि संस्कृत में कैद ज्ञान प्राकृत में प्रकट हुआ था। यह भाषा दुराग्रह का एक उदाहरण है। आधुनिक समय में भी हम भाषा दुराग्रह से ग्रसित हैं। उदाहरण के लिए, भारत में कई लोग अंग्रेजी को अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ मानते हैं। वे अंग्रेजी में बात करने वाले लोगों को अधिक शिक्षित और सभ्य मानते हैं। यह भाषा दुराग्रह का एक उदाहरण है। भाषा अभिमान और भाषा दुराग्रह दोनों ही हानिकारक हैं। भाषा अभिमान से भाषाई विविधता का नुकसान होता है। भाषा दुराग्रह से सामाजिक विभाजन और तनाव बढ़ता है। अनुवाद भाषा अभिमान और भाषा दुराग्रह को दूर करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। अनुवाद के माध्यम से हम विभिन्न भाषाओं के ज्ञ

डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद

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 अपनी सादगी एवं सरलता से देश की माटी को सुशोभित करने वाले अद्भुत मेधा शक्ति के धनी राजेंद्र प्रसाद जी ने संविधान निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई।   बिहार के गौरव डॉ राजेंद्र प्रसाद जी के व्यक्तित्व से नयी पीढ़ी को सादगी एवं सरलता सीखनी चाहिए।  राष्ट्रनायकों की जयंती हमें उनके जीवन गाथा से बहुत कुछ सीखने का अवसर प्रदान करती है।   गांधीजी को वास्तव में गांधी बनाने में चंपारण सत्याग्रह की बड़ी भूमिका रही और इसकी पृष्ठभूमि में राजेन्द्र प्रसाद की बड़ी भूमिका थी। आजादी के बाद का सर्वप्रथम भारतीय नागरिक जिनकी कॉपी पर अँग्रेज परीक्षक (एक्जामिनर) ने कोई नं. नहीं दिया सिर्फ लिखा Examinee is better than Examiner तब स्कूल एक्जामिशन बोर्ड बहुत विशाल था कि अब उसके टुकड़े में दो देश बन चुके हैं,बंगलादेश व म्यांमार। उस समय इन दो देशों के अतिरिक्त अब के पं.बंगाल,बिहार,उड़िसा,यू.पी.का मैट्रिक का एक ही बोर्ड था।  डा०राजेन्द्र प्रसाद इस परीक्षा में फर्स्ट क्लाश फर्स्ट आये थे।  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू महात्मा गांधी की निष्ठा, समर्पण और साहस से काफी