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Showing posts from February, 2022

रूस -यूक्रेन युद्ध, भारत की भूमिका के बहाने अमेरिकी कुचक्र और सोवियत रूस का सहयोग

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युद्ध किसी भी राष्ट्र, समाज, संस्कृति के लिए पाश्विकता का ही प्रसार करता है। युद्ध मानवता के विरुद्ध सबसे बड़ा अभिशाप है। यह अहं, सत्ता और तानाशाही का भी सबसे बड़ा हथियार है । भारत तो मानवता के लिए सबसे बड़े खलनायक 'युद्ध' का सबसे बड़ा शिकार रहा है। कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष । आज भले ही रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत सरकार को सभी सीख दे रहे हैं, पर सच्चाई यही है कि यह युद्ध रूस और यूक्रेन की महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है। थोड़ा कम या अधिक।  सभी देश भारत नहीं होते, जो अमेरिका, चीन और इंग्लैंड द्वारा पोसे गए सांप रूपी पाकिस्तान का सामना पूरी हिम्मत और ईमानदारी के साथ कर रहा है।  वो तो  भला हो चार युद्ध और 'सर्जिकल स्ट्राइक' का जिसने पाकिस्तान को उसकी औकात दिखाई है। पर रूस भारत नहीं है, उसने एक महत्वपूर्ण सबक यूक्रेन और पूरी दुनिया को दे दिया है यह कि कभी किसी पर भरोसा न करो । हां, यह अलग बात है कि इस युद्ध में यूक्रेन की भोली और निरीह जनता शिकार हो रही है। जैसे बलूचिस्तान की निरीह जनता चीनी दमन का।  जो लोग यूक्रेन के मुद्दे पर सरकार को सीख दे रहे है उन्हें यह याद रखना

राम-कृष्ण

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राम का घर छोड़ना एक षड्यंत्रों में घिरे राजकुमार की करुण कथा हैऔर कृष्ण का घर छोड़ना गूढ़ कूटनीति। राम जो आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते हैं, कृष्ण षड्यंत्रों के हाथ नहीं आते, बल्कि स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं। श्री राम से श्री कृष्ण हो जाना एक सतत प्रक्रिया है.... राम को मारिचि भ्रमित कर सकता है, लेकिन कृष्ण को पूतना की ममता भी नहीं उलझा सकती। राम अपने भाई को मूर्छित देखकर ही बेसुध बिलख पड़ते हैं, लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते। राम राजा हैं, कृष्ण राजनीति...राम रण हैं, कृष्ण रणनीति... राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं, कृष्ण मानवता के लिए... हर मनुष्य की यात्रा राम से ही शुरू होती है और समय उसे कृष्ण बनाता है। व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है, जितना राम होना.. लेकिन राम से प्रारंभ हुई यह यात्रा तब तक अधूरी है, जब तक इस यात्रा का समापन कृष्ण पर न हो। साभार -सोशल मीडिया 

संत रविदास

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संत रविदास सनातन एवं समन्वय की संस्कृति के प्रतीक है। आज संत रविदास जयंती हैं । माघ पूर्णिमा के अवसर उनकी जयंती मनाई जाती है। उनका एक दोहा - ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न । छोट बड़ो सब सम बसै , रैदास रहै प्रसन्न ।। यह हमारा दुर्भाग्य है कि ब्रिटिश एवं उसके बाद के राजनैतिक वर्ग ने अपना हित साधने के लिए गौतम बुद्ध , महावीर, कबीर , गुरुनानक महाराज, गुरु गोविन्द सिंह महाराज , दयानंद सरस्वती , विवेकानंद, अंबेडकर , ज्योतिबा फुले आदि तमाम सामाजिक - धार्मिक रहनुमाओं को जाति - धर्म के सांचे में बांधकर उनके विचारों को सीमित या बांधने का प्रयास किया। जबकि कभी जाति व सभी प्रकार के मिथ्याचारों के विरोधी और सनातन धर्म के ध्वज वाहक संत रविदास ने सिकन्दर लोदी के प्रलोभन का उत्तर यूँ दिया था: "प्राण तजूँ पर धर्म न देऊँ तुमसे शाह सत्य कह देऊँ" "वेद धरम त्यागूँ नहीँ जो गल चलै कटार" संत रविदास महाराज सनातन संस्कृति के आदर्श पुरुष है। सनातन संस्कृति के नायक हैं। भारतीयता के प्रतीक ।   जय हिंद ! जय भारत !! जय सनातन !!!   © डॉ . साकेत सहाय   #रविदास

नालंदा विश्वविद्यालय नये प्रारूप में

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इतिहास को हम और आप बदल नहीं सकते पर इतिहास हमारी विरासतों, प्रतीकों का आईना जरूर होता है। इतिहास हमें सशक्त भविष्य हेतु हमारी अटूट विरासतों से रु-ब-रु कराता है। भारत का इतिहास तो जीवंत अतीत के साथ खंडित प्रतीकों का भी दस्तावेज रहा है। बहुधा हम इन खंडित प्रतीकों में जाने से परहेज भी करते हैं, पर इतिहास तो इतिहास है। वह सत्य की अकाट्य तस्वीर है, चाहे आप कितनी भी इससे छेड़छाड़ कर दें वह सत्य की गवाही जरूर देगा। भारत का इतिहास तो इस छेड़छाड़ का सबसे बड़ा शिकार हुआ। पर सत्य तो 'आत्मा' की तरह अटल, अडिग और अमर है। तभी तो कहा गया है -  सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते।  मृज्यया रक्ष्यते रुपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।  भावार्थ: धर्म की रक्षा सत्य से, ज्ञान से अभ्यास से, रूप से स्वच्छता से और परिवार की रक्षा आचरण से होती है। भारत देश की संरचना भी सत्य की नींव पर खड़ी है। इसीलिए तमाम रक्तरंजित आक्रमणों के बावजूद यह देश जीवंत है, इसका इतिहास शाश्वत हैं । हमारा इतिहास बार-बार जीवंतता और भाव-बोध के साथ पुनः उठ खड़ा होता है। हम भारतीय पुनः अपने गौरवमयी इतिहास को देखने के साक्ष

भारत कोकिला लता मंगेशकर जी को अंतिम प्रणाम

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भारत कोकिला लता दीदी राष्ट्र, समाज, संस्कृति को समर्पित अपने नश्वर देह को त्याग कर आज अनंत में विलीन हो गयी।  कहते हैं लता जी के कंठ में साक्षात् वाग्देवी निवास करती थीं।  जिसे कई पीढ़ियों ने अनुभूत किया।  कल माँ वाग्देवी की पूजा थी, आज माँ विदा हो रही हैं तो इस क्षण में वृहत्तर भारतीय समाज को ऐसा लग रहा है जैसे माँ इस बार अपनी प्रिय कलापुत्री को ले जाने स्वयं आयी थीं।  इस धरा का सबसे अमिट, अटल सत्य है मृत्यु ।  जो आया है वो जाएगा। मृत्यु बहुधा इस चराचर जगत में पूर्णता का भी प्रतीक है।  लता दीदी ने भरपूर जीवन जिया।  93 वर्ष का वैशिष्ट्य एवं विविधतापूर्ण जीवन जीनेे वाली लता जी को लगभग पाँच पीढ़ियों ने मंत्रमुग्ध होकर सुना है। जब उनकी गुुुुड़़ियों के साथ खेलने का उम्र थीं, तभी उनकेे पिता ने अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी।  तेरह वर्ष की अल्पायु मेंं ही लता दीदी के कंधे पर चार छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन की जिम्मेवारी थी। लता जी ने अपना समस्त जीवन इन चारों के कल्याण में समर्पित कर दिया।  कला के प्रति प्रतिबद्धता एवं समर्पण का परिणाम है भारतरत्न लता  दीदी का विशिष्ट व्

हिंदी अपमान नहीं, सम्मान की भाषा

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दो दिन पहले केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया से सदन में एक संसदीय प्रश्न के हिंदी में उत्तर दिए जाने से सांसद शशि थरूर उनसे विवाद मोल लेते है। घटनाक्रम यह है कि सदन में नागरिक उड्डयन मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न का हिंदी में उत्तर दिया, जिसे तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर ने "अपमान" करार दिया। इसे  तमिलनाडु के सदस्यों द्वारा अंग्रेजी में पूरक प्रश्न के रुप में पूछे गयाा था, जिसका केंद्रीय मंत्री ने हिंदी में उत्तर दिया। इसके तुरंत बाद, सांसद शशि थरूर ने टिप्पणी की कि मंत्री का हिंदी में उत्तर देना "अपमान" है। थरूर ने कहा, "मंत्री अंग्रेजी बोलते हैं, उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देने दीजिए।" थरूर ने कहा, "उत्तर हिंदी में मत दीजिए, ये अपमान है लोगों का।"  सदन में एक अनुभवी संसद सदस्य द्वारा राजभाषा, राष्ट्रभाषा के विरुद्ध इस प्रकार की टिप्पणी से नाराज मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि एक वरिष्ठ सदस्य का इस प्रकार की टिप्पणी करना बड़ा अजीब है। उन्होंने कहा, "मैंनेे हिंदी में बोला तो आपत्ति है,&quo

संघवाद के विरुद्ध ब्यान

1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में गाँधीजी ने कहा था कि "विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिये हम हिंदी सीखें। ऐसा करने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं और वह राष्ट्रीय होने के लायक है।" परंतु आज बड़ा दुख हुआ देश की सबसे पुरानी पार्टी से टूट कर बनी कांग्रेस(आई) के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के नजरिए से कि भारत राष्ट्र नहीं है, शायद इसके संस्कार उन्हें अपनों से मिले होंगे जो भारत राष्ट्र की परंपरा, संस्कृति और सबसे प्रमुख 'हिंदी' से भारी द्वेष रखते थे। हालांकि इन ब्यानों को ज्यादा तूल नहीं दिया चाहिए । क्योकि यह सत्य सदैव जीवंत बना रहेगा कि यह देश एक दिन में नहीं बना यह तो सदियों से तमाम लुटेरों की लूट के बावजूद आज भी शाश्वत है, अमिट है और इसकी जनभाषा हिंदी इस अटूट संस्कृति का पहिया। पर हम सभी को उस मानसिक क्षुद्रता की खोज करनी चाहिये कि आखिर क्यों? इस देश को जोड़ने वाली हर चीज पर क्षुद्र मानसिकता वाले प्रहार करते हैं । कभी मर्यादा पुरुषोत्तम पर, कभी माता सीता, कभी श्रीकृष्ण व कभी अन्य महापुरुषों, कभी हमा