हिंदी अपमान नहीं, सम्मान की भाषा


दो दिन पहले केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया से सदन में एक संसदीय प्रश्न के हिंदी में उत्तर दिए जाने से सांसद शशि थरूर उनसे विवाद मोल लेते है। घटनाक्रम यह है कि सदन में नागरिक उड्डयन मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न का हिंदी में उत्तर दिया, जिसे तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर ने "अपमान" करार दिया। इसे  तमिलनाडु के सदस्यों द्वारा अंग्रेजी में पूरक प्रश्न के रुप में पूछे गयाा था, जिसका केंद्रीय मंत्री ने हिंदी में उत्तर दिया। इसके तुरंत बाद, सांसद शशि थरूर ने टिप्पणी की कि मंत्री का हिंदी में उत्तर देना "अपमान" है। थरूर ने कहा, "मंत्री अंग्रेजी बोलते हैं, उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देने दीजिए।" थरूर ने कहा, "उत्तर हिंदी में मत दीजिए, ये अपमान है लोगों का।" 

सदन में एक अनुभवी संसद सदस्य द्वारा राजभाषा, राष्ट्रभाषा के विरुद्ध इस प्रकार की टिप्पणी से नाराज मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि एक वरिष्ठ सदस्य का इस प्रकार की टिप्पणी करना बड़ा अजीब है। उन्होंने कहा, "मैंनेे हिंदी में बोला तो आपत्ति है," उन्होंने कहा कि सदन में इस हेतु अनुवादक की व्यवस्था भी है। सांसद शशि थरूर की इस टिप्पणी के तुरंत बाद, लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने कहा, "ये अपमान नहीं है।" 

इससे पूर्व भी शशि थरुर यह कहकर अपनी आंग्ल मानसिकता का परिचय दे चुके है। " हिन्दी,हिन्दू और हिन्दुत्व की विचारधारा देश (भारत) को बाँट रही है " आखिर इस प्रकार के विरोध से माननीय सांसद शशि थरूर क्या हासिल करना चाहते है?  

सांसद, संसदीय व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग होते है और हिंदी संसदीय लोकतंत्र की प्रतिनिधि भाषा।  क्या माननीय की संविधान, संसद और लोकतंत्र के प्रति कोई आस्था नहीं है? ऐसे में राजभाषा के अपमान पर विधायिका क्या कोई कार्रवाई करेगी? 

इस हेतु उन्हें तमिलनाडु के भाषाई मामले में माननीय न्यायालय के पूर्व निर्णयों को ध्यान में रखना चाहिए । क्या किसी देश की राजभाषा किसी के लिए भी "अपमान " की भाषा हो सकती है। इस देश की व्यवस्था, तंत्र इस पर दृढ़तापूर्वक विचार करें । हिंदी ने सदियों के हक से, राष्ट्रभाषा से राजभाषा का सफर तय किया है। जहाँ तक हिंदी का प्रश्न है हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं । इस तथ्य को सदियों से प्रतिपादित किया गया है। फिर किस तथ्य के आधार पर यह 'अपमान' की भाषा इस देश के किसी भी जन के लिए हो सकती है। इस प्रकार का बयान देश का अपमान है। 

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारी भाषा एवं संस्कृति स्वयमेव समरसता के आधार पर स्थापित हुई है। अतः इस प्रकार के अतार्किक बयानों से किसी को भी परहेज करना चाहिए, विशेष रूप से जिम्मेदार नेतृत्व को। 

यह राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है। हिंदी आत्मीयता की भाषा हैं। इसे हर भारतीय अनुभूत करता है। मैंने स्वयं भी इसे अनुभव किया है। जब भी मुझे किसी सेमिनार, संगोष्ठी या अन्य किसी कार्य से देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने का अवसर प्राप्त होता है तो भाषा के एक छात्र होने के नाते मेरा पहला ध्यान लोगों द्वारा सामान्य या आपसी बातचीत में उनके द्वारा बोली जाने वाली लोकभाषाओं पर रहता हैं । जिसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके द्वारा प्रयुक्त अधिकांश शब्द सभी भारतीयों को आसानी से समझ आ जाते हैं। 

यह तथ्य भारतीय लोकजन द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं यथा तमिल, तेलुगु, पंजाबी, मलयालम, गुजराती, मराठी, कन्नड़, बांग्ला तथा हिंदी की सभी 22 बोलियों (यदि लिपि को छोड़ दें तो उर्दू हिंदी एक ही भाषा के दो रुप हैं । 

संविधान निर्माताओं के मन में यह तथ्य जरूर रहा होगा हिंदी को देश की राजभाषा बनाने की पृष्ठभूमि में। संविधान में भी उसी हिंदी या हिंदुस्तानी को मान्यता दी गई है जिसमें मूलतः संस्कृत यानि हमारी परंपरा, व्यवहार एवं व्यवस्था की शास्त्रीय भाषा तथा गौणत: अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को शामिल करने की बात कही गई है। 

परंतु हमने केवल खड़ी बोली को हिंदी का रूप मानकर एक हद तक हजारो वर्षों से भारतीय लोक जनमानस की भाषा हिंदी को कमजोर करने का कार्य किया है। दरअसल सभी भारतीय भाषाओं में लिपि को यदि छोड़ दें तो अद्भुत शाब्दिक समानता है। इस दिशा में हम सभी को सोचने की आवश्यकता है। एक उदाहरण-' घाम' शब्द को ही लें यह शब्द बांग्ला, मराठी, हिंदी के देशी रूप भोजपुरी, पंजाबी, तेलुगु आदि भाषाओं में धूप या गर्मी के अर्थ में समान रूप से प्रयुक्त किए जाते है। ऐसे असंख्य शब्द है। 

फिर भी नकारात्मकता के साथ यह धारणा फैलाई गई कि भारत विभिन्न भाषा-भाषियों का देश है। जबकि तथ्य यह भी है भारत के लोगों की बोलियों में विभिन्नता के बावजूद अद्भुत शाब्दिक समानता है और इस समानता की धूरी सदियों से अलग-अलग रूपों में मौजूद रही है। कभी पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदुस्तानी या हिंदी के रूप में । 

वर्ना क्या कारण है नानक-कबीर की वाणी संचार के कम साधनों के बावजूद देश भर में लोकप्रिय रही। हिंदी की इस ताकत को उसकी समरसता को भारत के सभी शासकों ने समझा, पर अफसोस आज़ादी के बाद हमारे शासक उस ढंग से समझ नहीं पाए । पर इसे समझना देश के लिए नितांत आवश्यक है । हां आम जनता जरूर समझती है । 

अतः आदरणीय शशि थरुर जी इस प्रकार के अतार्किक बयानों से परहेज कीजिए। हिंदी अपमान नहीं, देश के स्वाभिमान, सम्मान की भाषा है। हिंदी विभाजन की नहीं, राष्ट्रीय एकता की भाषा है । 

 डाॅ साकेत सहाय

 शिक्षाविद्

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