आधुनिक हिंदी के पितामह- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
कहते हैं पुण्यात्माओं को ईश्वर अपने पास जल्दी बुला लेता हैं या इसे यूं भी कह सकते हैं महानता कभी आयु की प्रतीक्षा नहीं करती। नचिकेता और ध्रुव जैसे बालक, आदि शंकराचार्य (32), स्वामी विवेकानंद,(39) जैसे आध्यात्मिक पुरूष, शेरशाह सूरी जैसे शासक, भगत सिंह, खुदीराम बोस, अशफ़ाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आज़ाद, जतीन भगत जैसे देशभक्त योद्धा और साहित्यकार "भारतेन्दु" हरिश्चन्द्र जैसे नाम इस कड़ी में आते हैं।
आधुनिक हिंदी के पितामह कहे जाने वाले गद्यकार, कवि, नाटककार, व्यंग्यकार,उपन्यासकार, पत्रकार और चिंतक के रूप में विख्यात भारतेंदु हरिश्चन्द्र अपनी ज़िन्दगी बहुत लंबी तो नहीं जिए, पर उनका यही अल्प जीवन साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अवदान की दृष्टि से उन्हें इतिहास पुरुष के रूप में स्थापित कर गया। वंचितों और शोषितों के समर्थन में अपनी सशक्त लेखनी बुलंद करने वाले इस महान साहित्यकार ने 6 जनवरी, 1885 को असमय इस दुनिया से विदाई ली।
उनके योगदान हेतु हिंदी एवं भारतीय साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा। स्वतंत्र सोच रखने वाले भारतेन्दु कई भारतीय भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों से संस्कृत, पंजाबी, मराठी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती आदि भाषाएँ सीखीं। अंग्रेज़ी उन्होंने वाराणसी के प्रसिद्ध लेखक राजा शिवप्रसाद सितारे 'हिन्द' से सीखी। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने उन्हें वर्ष 1880 में 'भारतेंदु` की उपाधि दी थीं । भारतेन्दु के अद्भुत साहित्यिक योगदान के कारण 1857 से 1900 तक के काल को आधुनिक हिंदी साहित्य में ' भारतेन्दु युग' के नाम से जाना जाता है। हिंदी माह के अवसर पर स्वभाषा अभिमान को समर्पित उनकी प्रसिद्ध रचना प्रस्तुत है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक बाबू भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपनी लेखनी से विदेशी हुकूमत की नीतियों का पर्दाफाश किया। आपका व्यक्तित्व परम उदार था। आपने विशाल वैभव एवं धनराशि विविध संस्थाओं को दिया है। आपकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने आपको ‘भारतेंदु’ की उपाधि प्रदान की।
आप कवि, लेखक और नाटककार के रूप में बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे। आपने 35 वर्ष की अल्पायु में ही 72 ग्रंथों की रचना की। हिंदी के प्रचार-प्रसार में आपका अतुलनीय योगदान रहा। आपके बारे में सुमित्रानंदन पंत जी ने ठीक ही कहा है-
भारतेन्दु कर गये,
भारती की वीणा निर्माण
किया अमर स्पर्शों में,
जिसका बहु विधि स्वर संधान ।
आपको शत-शत नमन🙏
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