रिश्ते और भाषा
रिश्ते और भाषा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश सरकारों ने 'अंग्रेजी बसाओ' की नीति के नाम पर भाषाई क्षेत्रवाद का ही पोषण किया। हम भी मूढ़मति इस भाषाई राजनीति के शिकार होकर न अपनी भाषा के रहे, न अंग्रेजी के और न अपनी संस्कृति और परंपरा के। सबसे विमुख । हम अंग्रेजी के तो कभी हो भी नहीं सकते। क्योंकि जब आँख यानी मातृभाषा को ही चश्मा मानेंगे और चश्मा यानी विदेशी भाषा को आँख मानेंगे तो क्या होगा? अब भी वक्त है संभल जाए।
मॉरीशस में हिंदी प्रचारिणी सभा का संदेश वाक्य है - 'भाषा गई, संस्कृति गई।'
साड़ी का विरोध करने से क्या देश को समृद्धि मिलेगी? क्या सब को अंकल बोलकर रिश्तों का भारतीय अहसास मिलेगा? पीसी माँ, चाचा, ताऊ, अन्ना, बुआ जैसे शब्दों को विस्थापित करके क्या आनंद की प्राप्ति होगी? या परिहास के पात्र बनेंगे। क्या कभी वो भाव अंकल.....में आ पाएगा? रिश्तों में भाव तो शाब्दिक संस्कारों से आते हैं । शायद यही कारण है कि अब रिश्ते भी शब्दों की तरह आंग्ल होते जा रहे हैं । वैसे भी कहा जाता है 'भाषा से हमारे संस्कार, संस्कृति और विरासत भी जुड़े होते है। आमीन!
#साकेत_विचार
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