साहित्य और बाज़ार
साहित्य अब बाजार की गिरफ़्त में आता जा रहा है। साहित्य सिर्फ़ होर्डिंग, बैनर तक सिमटता जा रहा है। यह सिस्टम और बाजार का घालमेल है। उदारीकरण के बाद से साहित्य में बाजार का निर्णायक दख़ल शुरू हुआ। अब लेखक पहले की भांति बाजार का प्रतिरोध करने की बजाय उससे जुगत भिड़ाने लगे। साहित्य और बाज़ार के घालमेल से लेखन उनके लिए व्यवहार, साधना, पीड़ा, भोग, यथार्थ से अधिक शौक का विषय होने लगा। लेखन का एकमात्र ध्येय चर्चित होना रह गया। ऐसे में प्रतिबद्धता और सरोकार जैसे शब्द गौण हो गए। इसमें प्रकाशक भी शामिल है। साहित्य के नाम पर साहित्य से इतर सब कुछ।
कुछ दिनों पूर्व मैं एक लेखन प्रतियोगिता में निर्णायक के रूप में शामिल था। यह संस्था पिछले पाँच सालों से हिन्दी साहित्य के प्रसार हेतु गतिविधियाँ आयोजित करा रही है।प्रतियोगिता में मैंने यह देखा कि अधिकांश प्रविष्टियाँ रिश्तों के विघटन, अनैतिक संबंधों पर ही प्रेषित किए जाते हैं। हम सभी जानते है साहित्य का एक स्थायी भाव बोध होता है। इसमें समाज, देश और काल का ऐतिहासिक भाव बोध भीछुपा होता है। पर इस प्रकार के नकारात्मक भाव बोध से हम किस प्रकार के समाज का निर्माण चाह रहे हैं? अब किसी को साहित्त्य के मूल अर्थ से मतलब नहीं रह गया है। इस नई प्रवृत्ति का असर यह हो रहा है कि बाजार साहित्य को उसकी मूल चेतना से काट कर उसे सिर्फ क्रय-विक्रय की वस्तु बनाने की दिशा में सक्रिय है।
ऐसे में जरूरी है कि साहित्य के प्रति सरोकार रखने वाले लोग आगे आए। साहित्य को इस सुरसा रूपी बाजार से बचाया जाए। क्योंकि बाज़ार साहित्य के मूल पक्ष कला और भाव दोनों को नष्ट करने की ओर अग्रसर है।
साहित्य को सत्ता से नहीं, बाजार से असल खतरा है। आज बाजार जिस गति से साहित्य को निगल रहा है, अगर हम अब भी नहीं चेते तो भविष्य में चेतने के लिए कुछ बचेगा नहीं हमारे समक्ष।
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©️डा. साकेत सहाय
14 मार्च, 2024
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