Monday, May 31, 2021

यादें जीवन की

 यादें ! 


कभी न भूलने वाली । 

वक्त के महत्व को बताने वाली  । 

समय पीछे जा नहीं सकता 

इसे महसूस कराने वाली 

जीवन नश्वर है इसे 

याद दिलाने वाली 

अपने-आप को महसूस कराने वाली

यादें हैं तो हम और आप है

यादें है तो जीवन हैं 


यादें 

बीते पल की

आज के कठिन पल की

जो सहेजेंगीं हमारा भविष्य भी


किसी के लिए यादें 

जीने का ज़रिया है

उसके सपनों को पूरा करने का

उसके लिए सब कुछ खोने का 

उसकी यादों में सब कुछ पाने का


कुछ यादें देती हैं ऐसे पल

जिसे याद करके कभी 

आप मुस्कुराएंगे भी

और

किसी को याद करके 

रोएंगे भी

पर

रोना-हँसना ही तो है जीवन 

अतः यादों को संजो कर रखिए!

बहुत काम आएंगी

यादें है तो 

आपकी आँखों में ख़ुशी 

और ग़म के पल भी....


@डाॅ साकेत सहाय


प्रस्तुत तस्वीर शहीद मेजर विभूति ढौंढियाल की पत्नी निकिता कौल ढौंढियाल के सैन्य कमीशन के समय की है। जब शहीद की पत्नी से एसएसबी साक्षात्कार के समय यह प्रश्न पूछा गया यह सुंदर जवाब मिला।  प्रस्तुत कविता समर्पित हैं शहीदों के त्याग और निष्ठा को🙏


#साकेत_विचार


https://m.economictimes.com/news/defence/inspiring-pulwama-martyr-major-vibhuti-shankar-dhoundiyals-wife-nikita-kaul-joins-indian-army/videoshow/83064767.cms


#armedforces #womenpower #SaluteAndRespect


Sunday, May 30, 2021

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर पत्रकारिता और हिंदी पर विमर्श

 https://twitter.com/swarajyahindi/status/1398935710846001156?s=21

हिंदी पत्रकारिता दिवस

हिंदी  पत्रकारिता दिवस 

आज ही के दिन, आज से 195 वर्ष पूर्व  30 मई, 1826 को ब्रिटिश भारत की राजधानी कोलकाता यानी आधुनिक भाषाई वर्गीकरण के हिसाब से ‘ग' क्षेत्र से राष्ट्रभाषा हिंदी के पहले समाचार पत्र  'उदन्त मार्तंड की शुरुआत पं. युगल किशोर शुक्ल ने की थी। 

तब से अब तक हिंदी पत्रकारिता ने ऐतिहासिक सफर तय किया है।  हिंदी पत्रकारिता देशी संपर्क एवं भाषाओं, बोलियों  की आवाज बनकर उभरी है। हालांकि इसके पक्ष एवं विपक्ष में विमर्श किए जा सकते हैं । मैंने अपने शोध प्रबंध ‘भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी -१९९० के दशक के बाद: एक समीक्षात्मक अध्ययन तथा पुस्तक- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया :भाषिक संस्कार एवं संस्कृति में इन तथ्यों को उठाने का प्रयास किया है। कैसे हिंदी राष्ट्रभाषा से राजभाषा, स्वतंत्रता, समानता, साहित्य,  संस्कृति, संस्कार की भाषा का सफर तय करते हुए इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के सहारे ज्ञान-विज्ञान, अर्थ, व्यापार, संपर्क की भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहारे हिंदी ने एक नयी राष्ट्रीय संस्कृति को जन्म दिया है। जिसकी परिकल्पना हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने की थी। इस पत्रकारिता की नींव उद्यंत मार्तंड ने रखी थी।  पर इसी के साथ यह हाल के दशकों में अनैतिकता एवं मानसिक विकृति का भी कारक बना। 

इस देश के नेताओं, कलाकारों, लेखकों, प्रशासकों एवं विचारकों की लोकप्रियता में  हिंदी का बहुमूल्य योगदान हैं । असंख्य नाम ऐसे हैं जिन्होंने इस तथ्य को व्यापकता प्रदान की है ।  जिनका अस्तित्व ही हिंदी के सहारे पनपा।  हिंदी के द्वारा पूरे देश में





पताका फहराई जा सकती है। यह हिंदी ही है जो सबको सत्ता एवं पहचान देती है पर पद, पैसा और रसूख़ पाने के बाद अधिकांश इसे भूल जाते है। 

मैं आज के दिवस पर सभी से अपील करूँगा पत्रकारिता की समृद्धि के लिए हिंदी और लिपि देवनागरी की व्यापकता को एक नया फलक दें । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निवासियों की भाषा हिंदी के सशक्तिकरण के लिए यह आवश्यक है कि वह ज्ञान-विज्ञान और संचार की  भाषा के रूप में और मज़बूती के साथ स्थापित हो। 

पत्रकारिता दिवस पर हम हिंदी तथा इसकी लिपि को देशी भाषाओं के समन्वय के प्रतीक रूप में स्थापित करने का प्रण करें। 

जय हिंद ! जय हिंदी!

इस अवसर पर अपनी पुस्तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति से कुछ अंश


©डाॅ. साकेत सहाय

Thursday, May 27, 2021

जीवन शिक्षण

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 *एक अदभुत कथा.* 

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एक आदमी ने एक पक्षी को, एक बूढ़े पक्षी को एक जंगल में पकड़ लिया था। 

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उस बूढ़े पक्षी ने कहा: मैं किसी भी तो काम का नहीं हूं, देह मेरी जीर्ण-जर्जर हो गई, जीवन मेरा समाप्त होने के करीब है, न मैं गीत गा सकता हूं, न मेरी वाणी में मधुरता है, मुझे पकड़ कर करोगे भी क्या? लेकिन यदि तुम मुझे छोड़ने को राजी हो जाओ, तो मैं जीवन के संबंध में तीन सूत्र तुम्हें बता सकता हूं।

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उस आदमी ने कहा: भरोसा क्या कि मैं तुम्हें छोड़ दूं और तुम सूत्र बताओ या न बताओ?

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उस पक्षी ने कहा: पहला सूत्र मैं तुम्हारे हाथ में ही तुम्हें बता दूंगा। और अगर तुम्हें सौदा करने जैसा लगे, तो तुम मुझे छोड़ देना। दूसरा सूत्र मैं वृक्ष के ऊपर बैठ कर बता दूंगा। और तीसरा सूत्र तो, जब मैं आकाश में ऊपर उड़ जाऊंगा तभी बता सकता हूं।

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बूढ़ा पक्षी था, सच ही उसकी आवाज में कोई मधुरता न थी, वह बाजार में बेचा भी नहीं जा सकता था। और उसके दिन भी समाप्तप्राय थे, वह ज्यादा दिन बचने को भी न था। उसे पकड़ रखने की कोई जरूरत भी न थी। उस शिकारी ने उस पक्षी को कहा: ठीक, शर्त स्वीकार है, तुम पहली सलाह, पहली एडवाइज, तुम पहला सूत्र मुझे बता दो।

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उस पक्षी ने कहा: *मैंने जीवन में उन लोगों को दुखी होते देखा है जो बीते हुए को भूल नहीं जाते हैं। और उन लोगों को मैंने आनंद से भरा देखा है जो बीते को विस्मरण कर देते हैं और जो मौजूद है उसमें जीते हैं, यह पहला सूत्र है।* बात काम की थी और मूल्य की थी। उस आदमी ने उस पक्षी को छोड़ दिया। वह पक्षी वृक्ष पर बैठा और उस आदमी ने पूछा कि दूसरा सूत्र ?

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 उस पक्षी ने कहा: *दूसरा सूत्र यह है कि कभी ऐसी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए जो तर्क विरुद्ध हो, जो विचार के प्रतिकूल हो, जो सामान्य बुद्धि के नियमों के विपरीत पड़ती हो, उस पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए, वैसा विश्वास करने वाला व्यक्ति भटक जाता है।* 

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पक्षी आकाश में उड़ गया। उड़ते-उड़ते उसने कहा: एक बात तुम्हें उड़ते-उड़ते बता दूं, यह तीसरा सूत्र नहीं है यह केवल एक खबर है जो तुम्हें दे दूं। तुम बड़ी भूल में पड़ गए हो मुझे छोड़ कर, मेरे शरीर में दो बहुमूल्य हीरे थे, काश, तुम मुझे मार डालते तो तुम आज अरबपति हो जाते।

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वह आदमी एकदम उदास हो गया। वह एकदम चिंतित हो गया। लेकिन पक्षी तो आकाश में उड़ गया था। उसने उदास और हारे हुए और घबड़ाए हुए मन से कहा: खैर कोई बात नहीं, लेकिन कम से कम तीसरी सलाह तो दे दो। उस पक्षी ने कहा: तीसरी सलाह देने की अब कोई जरूरत न रही; तुमने पहली दो सलाह पर काम ही नहीं किया। *मैंने* *तुमसे कहा था कि जो बीत गया उसे भूल जाने वाला आनंदित होता है,* तुम उस बात को याद रखे हो कि तुम मुझे पकड़े थे और तुमने मुझे छोड़ दिया। वह बात बीत गई, तुम उसके लिए दुखी हो रहे हो। 

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मैंने तुमसे दूसरा सूत्र कहा था: *जो* *तर्क विरुद्ध हो, बुद्धि के अनुकूल न हो, उसे कभी मत मानना।* तुमने यह बात मान ली कि पक्षी के शरीर में हीरे हो सकते हैं और तुम उसके लिए दुखी हो रहे हो। क्षमा करो, तीसरा सूत्र मैं तुम्हें बताने को अब राजी नहीं हूं। क्योंकि जब दो सूत्रों पर ही तुमने कोई अमल नहीं किया, कोई विचार नहीं किया, तो तीसरा भी व्यर्थ के हाथों में चला जाएगा, उसकी कोई उपादेयता नहीं।

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इसलिए मैं पहली बात तो यह कहता हूं कि अगर पिछले दो सूत्रों पर ख्याल किया हो, सोचा हो, वह कहीं प्राण के किसी कोने में उन्होंने जगह बना ली हो, तो ही तीसरा सूत्र समझ में आ सकता है। अन्यथा तीसरा सूत्र बिल्कुल अबूझ होगा। 

👌🏿

मैं उस पक्षी जैसी ज्यादती नहीं कर सकता हूं कि कह दूं कि तीसरा सूत्र नहीं बताऊंगा, तीसरा सूत्र बताता हूं। 

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लेकिन वह आप तक पहुंचेगा या नहीं यह मुझे पता नहीं है। वह आप तक पहुंच सकता है *अगर दो सूत्र भी पहुंच गए हों, उन्हीं की राह पर वह धीरे से विकसित होता है।* और अगर दो सीढ़ियां खो जाएं तो फिर तीसरी सीढ़ी बड़ी बेबूझ हो जाती है, उसको पकड़ना और पहचानना कठिन हो जाता है, *वह बहुत मिस्टीरियस मालूम होने लगती है।* 


 *ओशो* ।


दक्षिण में हिंदी गाने के रंग

इस वीडियो से दक्षिण में हिंदी फ़िल्म और गानों की लोकप्रियता का सहज अंदाज़ा लगाय जा सकता हैं। इस रोचक वीडियो का आनंद लें और कलाकार की कला को सलाम करें। 


जीवन शिक्षण हेतु एक प्रेरक वीडियो

अपने ब्लॉग के सम्मानित पाठकों के लिए सोशल मीडिया से प्राप्त जीवन शिक्षण आधारित एक प्रेरक वीडियो साभार साझा कर रहा हूँ। 


सादर


साकेत सहाय


पंडित नेहरू

 अध्यात्म, संस्कृति, संस्कार, ज्ञान की भाव भूमि भारतवर्ष जो पिछले २०० सालों से अधिक की औपनिवेशिक शासन व्यवस्था से अपना सब कुछ भूल-सा गया था, उसे स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में दिशा देने वाले वो भी तब जब बंटवारे के दंश से उपजे पाकिस्तानी जहर से देश कराह रहा था, गरीबी, अशिक्षा, विकराल स्थिति में थी,   इन विपरीत परिस्थितियों में देश को प्रगति पथ पर ले जाने वाले, सशक्त आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू को उनकी पुण्य तिथि पर शत-शत नमन ! 


सादर

©डॉ साकेत सहाय


भारतीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा


 खबर है कि अब अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE ) ने इंजीनियरिंग की डिग्री सात भारतीय भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की इजाजत दी है। ये भाषाएँ हैं : हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम। यह इसी २०२०-२१ के सत्र से लागू होगा। यह स्वागत योग्य कदम है। आशंकाएं तो होंगी लेकिन कभी पहला कदम तो उठाना ही पड़ेगा।


वास्तव में यदि भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाना है तो हमें प्राथमिंक कक्षाओं के साथ ही, उच्च शिक्षा पर भी ध्यान देना होगा। लोग उच्च शिक्षा को लक्ष्य करके ही स्कूली शिक्षा में भाषा माध्यम चुनते हैं। अगर अपनी भाषा में पढ़कर तकनीकी डिग्रियां उच्च शिक्षा में मिलेंगी और उनकी उपयोगिता सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरी या प्रतियोगिताओं में भी होंगी, तो लोग स्कूली शिक्षा में भी अपनी भाषा का चयन करने लगेंगे। अभी तो यह सोचते हैं कि हिंदी माध्यम से पढ़ा भी लिया तो क्या फायदा? आगे तो अंग्रेजी माध्यम में ही जाना पड़ेगा।


इस कदम को यदि गुणात्मक रूप से लागू किया गया तो देश के गरीब , वंचित एवं मध्यमवर्गीय बच्चों की प्रतिभा, रचनात्मकता सामने आएगी। संविधान का आदर करते हुए सभी इसमें सहयोग करें तभी इसमें सफलता मिलेगी। स्वाधीनता के बाद से ही अंग्रेज़ी क़ो एकमात्र सत्ता और रोज़गार की भाषा मानने वाला वर्ग ने अप्रत्यक्षत: लोकतंत्र को कमजोर ही किया है। इस कदम से नई शिक्षा नीति के संकल्प वैज्ञानिक चेतना और तर्क शक्ति को पूरे दमखम से आगे बढ़ाया जाएगा को साकार करना फलीभूत होगा। 


Now, engineering courses in Hindi & 7 other languages

 https://timesofindia.indiatimes.com/india/now-engineering-courses-in-hindi-7-other-languages/articleshow/82992198.cms

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Saturday, May 22, 2021

फ़ारसी-भाषा में संस्कृत-भाषा की प्रशस्ति

 *फ़ारसी-भाषा में संस्कृत-भाषा की प्रशस्ति*

 / شتایش زبان 

سانسکریت  در زبان پارسی

(हिन्दी अनुवाद संलग्न)


दिल बे बाला मी रसद अज़ नर्दबाने-संस्कृत

ज़िन्दगी गुल मी गुशायद बा बयाने-संस्कृत

دل به بالا می رسد از نردبان سانسکریت

زندگی گُل می گُشاید با بیان سانسکریت

शम्से व्यासो कालिदासो वालमीको गुप्तपाद

मी दरख़्शद दरमियाने आसमाने-संस्कृत

شمسِ ویاس و کلِداس و والمیک و گُپتپاد

می درخشد درمیان آسمان سانسکریت

वाज़ेगाने-तो हमे पाइन्दे ओ जावीद बाद 

सद सलामे गर्म बर हर आशिकाने संस्कृत

واژه گانِ تو همه پاینده و جاوید باد 

صد سلامِ گرم بر هر عاشقان سانسکریت

दर जहाने शेरो दानिश अज़ कमालश रा मपुर्स

ता सुरैया तीर मी आरद कमाने-संस्कृत 

در جهانِ شعر و دانش از کمالش را مپرس

تا ثریا تیر می آرد کمانِ سانسکریت

हर ज़बाने हिन्द बा ईन् चश्मे अश दम मी ज़नद

मी चकद आबे-हयातज़ वाज़ेगाने-संस्कृत

هر زبانِ هند با این چشمه اش دم می زند

می چکد آب حیات از واژه گان سانسکریت

जान् मुअत्तर मी शवद दिल बागबानी मी कुनद

मी परद ख़ुश्बूये गुल-हा अज़ दहाने-संस्कृत

جان معطر می شود  دل باغبانی می کند

می پرد خوشبو ی گلها از دهان سانسکریت

अज़ ज़माने बास्तानी ता हनूज़ आईनेवार

हर कसी रा नूर बख़्शद आस्ताने-संस्कृत

از زمانِ باستانی تا هنوز آینه وار

هر کسی را نور بخشد آستان سانسکریت

गिर्दे-ख़ुर्शीदश कि मी गर्दीम मा चुन मुश्तरी 

ईन् क़दर मस्ती बियारद अर्ग़वाने-संस्कृत 

گردِ خورشیدش که می گردیم ما چون مشتری

این قدر مستی بیارد عرغوان سانسکریت

हर कि बा राहश बरायद मी परद दर बूस्तान् 

सर कुनद मैदाने-ग़म बा पुर्तवाने-संस्कृत

هر که با راهش براید می پرد در بوستان

سر کند میدانِ غم با پُرتوان سانسکریت

दर ज़बाने पारसी शेरम निशानी मी देहद

 शाकिरश हस्तम व बाशम पासबाने संस्कृत

در زبان پارسی شعرم نشانی می دهد

شاکرش هستم و باشم پاسبان سانسکریت

--سرویش سرمست

-- सर्वेश त्रिपाठी "सरमस्त बहराइची"


1-  हृदय सर्वोत्कृष्ट ऊंचाई तक पहुंचता है ; संस्कृत भाषा की सीढ़ी से

 ज़िन्दगी फूल खिलाने लगती है, संस्कृत भाषा के वचनों से । 


2- व्यास, कालिदास, वाल्मीकि और अभिनवगुप्त (गुप्तपाद) का सूरज , 

चमकता रहता है संस्कृत के विशाल आसमान में। 


3- (अय संस्कृत) तुम्हारी सम्पूर्ण शब्द-सम्पदा सदैव सुस्थिर और जीवन्त रहे,

मेरा गर्मजोशी भरा सैकड़ों सलाम है ; हर संस्कृत-प्रेमी को।


4- कविता और चिंतन-परम्परा के क्षेत्र में उसके कमाल, उसकी उत्कृष्टता को मत पूछो,

कि संस्कृत के धनुष की कमान ,सुरैया (सबसे ऊंचा तारा) तक तीर चलाती है


5- भारत की हर भाषा इसके सरचश्मे (स्रोत/सोते) से ही अपने प्राण पाती है,

टपकता रहता है ,जीवन का रस/ अमृत; संस्कृत के प्रत्येक शब्द से।


6- प्राण पवित्र हो उठते हैं, हृदय उपवन सजाने लगता है,बागबानी करने लगता है,,; 

उड़ती रहती हैं अनन्त फूलों की ख़ुशबुएँ : संस्कृत भाषा के मुख से


7- प्राचीनतम समय से आज तक एक आईने /सत्योदघाटक की तरह ,

हर किसी को ज्ञान का प्रकाश देती रहती है , ; संस्कृत की चौखट


8- हम सभी उसके सूरज के चारों तरफ परिक्रमा करते रहते हैं, एक मङ्गल-ग्रह की तरह

इस तरह का आत्मिक और झुमा देने वाला आनन्द प्रदान करती है : संस्कृत की लाल-मदिरा। 


9- जो भी उसके रास्ते पर आता है, उड़ने लगता है वह खुशबुओं के उपवन में,

जीत लेता है वह दुखों, अवसादों के सभी युद्ध : संस्कृत की अपार सामर्थ्य और पराक्रम से। 


10- फ़ारसी भाषा मे लिखी हुई मेरी यह कविता, इस बात की निशानदेही कर रही है कि

मैं उसका (संस्कृत भाषा का)  कृतज्ञ  हूँ, और सदैव ही उसका अनुयायी रहूंगा।


*(साभार- सर्वेश त्रिपाठी जी, बहराइच)*

कक्षा एक की कविता पर बवाल और विचार

 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी ) की कक्षा-१ पाठ्यपुस्तक में दी गई बाल कविता  ‘आम की टोकरी’ पर सोशल मीडिया के विविध मंचों पर घमासान मचा हुआ है वह भी उस कविता पर जो एक दशक से भी अधिक समय से पढ़ाई जा रही है। आपत्ति कविता में आए आंचलिक शब्द प्रयोग के प्रति हैं। बहुत सारे समाज के जागरुक एवं प्रबुद्ध लोग विचारधारा के अनुसार इस कविता की व्याख्या कर रहे हैं। जो निहायत ही अनुचित हैं। मेरे विचार से उदारीकरण के बाद का भारतीय समाज हर चीज में झंडाबरदार बनता नज़र आता है। 

मेरा बेटा अभी कक्षा-२ में है। पिछले साल मैंने स्वयं इस कविता क़ो पढ़ा। इसमें मेरे समझ से असली समस्या गुणात्मकता की कमी को माना जा सकता है। परंतु इतनी छोटी आयु के बच्चे को आप रोचक तरीक़े से ही पढ़ा सकते हैं। हालाँकि अंग्रेज़ी में भी इसी प्रकार की कविता है। इस पोस्ट के साथ संलग्न अंग्रेज़ी कविता पर भी इसी प्रकार की आपत्ति व्यक्त करने वाले कर सकते हैं। वास्तव में इन दोनों कविताओं को रोचक होने के कारण शामिल किया गया है। शेष प्रश्न अपनी जगह हैं। पर शब्द की नकारात्मक व्याख्या ग़लत सोच का परिणाम है। अब उस सोच का क्या करें जिन्हें कक्षा शब्द पर भी आपत्ति हो सकती है। 


आप सभी के समक्ष विमर्श के लिए निम्न विचार प्रस्तुत है - 


‘हिंदी सबकी है’ कहने वाले पाठ्यपुस्तकों में आंचलिक शब्दों के प्रयोग का विरोध क्यों करते है? 


भारतीय ज्ञान परंपरा आधारित पाठ्यक्रम बने ।  इसका समर्थन कितने लोग करते हैं?  क्योंकि हम स्वयं अपनी जड़ों से कटे हुए हैं। 


बच्चों के पाठ्यक्रम निर्माण में रोचकता भी महत्वपूर्ण है। शब्द अश्लील या अस्पृश्य नहीं होते, हमारी सोच महत्त्वपूर्ण होती है। 

उदाहरण के लिए अंग्रेज़ी की कविता में लिखा है If I were a dog यह कौन सी शब्दावली है। 

एक महत्वपूर्ण बात

यदि इस कविता की मूल समस्या को तटस्थ भाव से देखें तो इसमें गुणात्मकता शून्य है। ज्ञान ही मनुष्य को संस्कारवान बनाता है। पश्चिमी शिक्षा पद्धति ज्ञानार्जन हेतु किंडर गार्डेन शिक्षा पद्धति को एकमात्र स्रोत मानती है और हमारी शिक्षा पद्धति भी इसी की अनुगामी है। ऐसे में शेष विमर्श से इतर गुणात्मकता की दृष्टि से यह कविता पाठ्यक्रम के लिए अनुचित है। अंग्रेज़ी में भी यही स्थिति है। 

भारतीय समाज की सुदृढ़ता के लिए यह जरुरी है कि भारतीय ज्ञान परंपरा आधारित पाठ्यक्रम बने ।  इसका समर्थन कितने लोग करते हैं?  क्योंकि हम स्वयं अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। 

कभी हम बाल पाठ्यक्रम में नचिकेता और ध्रुव क़ो पढ़ते थे और अब ?  जैसा बोयेंगे, वहीं काटेंगे। 

बच्चों के पाठ्यक्रम निर्माण में रोचकता, आंचलिकता के साथ सबसे महत्वपूर्ण बेहतर संस्कार देना ही प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। 

सादर


दोनों कविताओं का मूल पृष्ठ नीचे दिया जा रहा है। आप सभी के विचार आमंत्रित है ।  


सादर


डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार



Friday, May 21, 2021

भारतीय नौसेना की शान - आईएनएस राजपूत

अलविदा *राजपूत*!  कभी तुमने भारतीय नौसेना को नई शक्ति दी थी। आज विदा हो गए। प्रकृति का नियम है -कोई नश्वर नहीं। जो आया है वो जाएगा। इसी कड़ी में आज भारतीय नौसेना का यह अदद *नगीना* इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया, पर भारतवासियों के दिलों मे, यादों में सदा अजर-अमर रहेगा।   चार दशक से अधिक समय तक आईएनएस राजपूत ने देश की सेवा की। इस दौरान इसने नौसेना के कई अहम् अभियानों में हिस्सा लिया। 
भारतीय नौसेना का पहला विध्वंसक पोत आइएनएस राजपूत को 41 साल की सेवा के बाद नौसेना की सेवा से आज शुक्रवार को मुक्त किया गया। (वीडियो देखें। । कोविड-19 को देखते हुए नौसेना डाकयार्ड, विशाखापत्तनम में इसे बेहद सादे समारोह में विदाई दी गई। आईएनएस राजपूत मूल रूप से एक रूसी पोत था, जिसका नाम नादेजनी था। इसका अर्थ है ‘उम्मीद’। यह एंटी सबमरीन, एंटी एयरक्राफ्ट हमले में सक्षम है। 


भारतीय नौसेना का यह पहला पोत था,  जिसे थल सेना (राजपूत रेजीमेंट) से संबद्ध किया गया।  इसने नौसेना की पश्चिमी और पूर्वी दोनों कमान के बेड़े में अपनी सेवाएं दी।  या जार्जिया में भारत की नौसेना में शामिल हुआ, कैप्टन गुलाब मोहनलाल हीरानंदानी इसके पहले कमान अधिकारी (कमांडिंग आफिसर)  थे।  राजपूत श्रेणी के कुल पांच विध्वंसक भारतीय नौसेना की सेवा में रहे, जिनमें से तीन सेवामुक्त हो चुके हैं।  आइएनएस राजपूत के रिटायर होने के बाद राजपूत श्रेणी में आइएनएस-राणा डी-52 व आइएनएस-रणजीत-डी53 ही अब सक्रिय रह गए है। 
आईएनएस राजपूत ने सैन्य अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  भारतीय शांतिरक्षक बलों की सहायता के लिए श्रीलंका में चलाया गया ऑपरेशन कैक्टस में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।  इसके अतिरिक्त मालदीव में बंधकों की समस्या के समाधान के लिए चलाया गया ऑपरेशन पवन, श्रीलंका के तट पर पैट्रोलिंग ड्यूटी, ऑपरेशन क्रॉसनेस्ट, लक्षद्वीप की तरफ किया गया अभियान भी महत्वपूर्ण रहे। 


आईएनएस राजपूत ने ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल के लिए एक परीक्षण बेड़े के रूप में भी कार्य किया। दो पी-20 एम से एकल लांचर (पोर्ट और स्टारबोर्ड) को दो बॉक्सिंग लांचरों से बदल दिया गया था, प्रत्येक में दो ब्रह्मोस सेल थे। पृथ्वी-३ मिसाइल के एक नए संस्करण का मार्च 2007 में राजपूत से ही परीक्षण किया गया था। यह ज़मीन के लक्ष्यों पर हमला करने के साथ टास्कफोर्स या वाहक एस्कॉर्ट के रूप में एन्टी-विमान और एंटी-पनडुब्बी मिसाइल से लॉन्च करने में सक्षम था।  राजपूत  ने वर्ष 2005 में एक सफल परीक्षण के दौरान धनुष बैलिस्टिक मिसाइल को भी ट्रैक किया।
सरकार को भावी पीढ़ी को देश के नौसैनिक इतिहास  के बारे में जानकारी देने हेतु इसे नौसैनिक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित करने पर विचार करना चाहिए। समुंद्र में विसर्जित करने से क्या लाभ? 


तब तक के लिए दिलों में, समुद्र की लहरों में, यादों में 

‘राज करेगा राजपूत’


 -जय हिंद! जय भारत! 



साभार - स्रोत- दैनिक जागरण, अमर उजाला दैनिक


लेखक एवं संकलनकर्ता - डॉ साकेत सहाय

Twitter  @saketsahay


भाषा, साहित्य और सम्मान

आज के अमृत विचार में

मेरे फ़ेसबुक वाल से 




नभ: स्पृशं दीप्तम!

अक्सर हम भारत सरकार के विविध कार्यालयों के ध्येय वाक्य को देखते है। ध्येय वाक्य उस संस्था की प्रतिनिधि ध्वनि होती है। आइए जानते है आज भारतीय वायु सेना के ध्येय वाक्य- नभ: स्पृशं दीप्तम!  के बारे में - 



नभ: स्पृशं  दीप्तम!  

अर्थात् गर्व के साथ आकाश की ऊँचाइयों को छूने का संकल्प। 


भारतीय वायु सेना के ध्येय वाक्य का मूल स्रोत - 


गीता अध्याय-11 श्लोक-24 / Gita Chapter-11 Verse-24


नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं

व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।

दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा

धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ।।24।।


हे विष्णो[1] ! आकाश को स्पर्श करने वाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्त:करण वाला मैं धीरज और शान्ति नहीं पाता हूँ ।।24।।


Lord, seeing your form reaching the heavens, effulgent, multi-coloured, having its mouth wide open and possessing large flaming eyes, I, with my inmost self frightened, have lost self-control 

साभार- भारतकोश


संकल्पना- डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार

भारत की बिटिया - पहली महिला फ़्लाइट टेस्ट इंजीनियर

 नभ स्पृशम् दीप्तम! 


भारत के आधुनिक इतिहास में स्त्री सशक्तिकरण का स्वर्णिम दिन


हम सभी के लिए यह बेहद गर्व, प्रसन्नता एवं सम्मान का क्षण हैं।  भारतीय वायु सेना की स्क्वाड्रन लीडर आश्रिता वी ओलेटी, देश की *पहली महिला उड़ान परीक्षण इंजीनियर (Female  Flight Test Engineer. ) बनी।  


आश्रिता ने प्रतिष्ठित वायु सेना टेस्ट पायलट स्कूल से स्नातक किया है,  उल्लेखनीय है कि वायु सेना का यह टेस्ट पायलट स्कूल पूरी दुनिया के सात ऐसे विश्वविद्यालयों में शामिल है जहाँ यह प्रशिक्षण पाठ्यक्रम संचालित किया जाता है। 

वर्ष 1973 में प्रारंभ हुए इस पाठ्यक्रम को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले केवल 275 स्नातक ही हुए हैं और आश्रिता ओलेटी भारतीय वायु सेना के इतिहास में पहली ऐसी महिला अधिकारी बन गई हैं, जिन्होंने कड़े प्रशिक्षण के बाद इस पाठ्यक्रम को पूरा किया है।


उड़ान परीक्षण इंजीनियर प्रयोक्ता संगठनों में शामिल करने के लिए नए विमानों एवं प्रणालियों का मूल्यांकन करते हैं।  भारत में उपयोग किए जाने से पूर्व अधिकांश नए विमान प्रकारों और महत्वपूर्ण हवाई प्रणालियों में एएसटीई का प्रमाणन लिया जाना अनिवार्य है।


स्क्वाड्रन लीडर आश्रिता कोल्लेगल, कर्नाटक राज्य की निवासी है। उनके पिता श्री ओ वी वेंकटेश बाबू और माता श्रीमती ओ वी वाणी को अपनी बेटी की गौरवमयी उपलब्धि पर गर्व है। 


यह हम भारतवासियों के लिए भी गर्व का क्षण है क्योंकि अब भारत की बेटियाँ किसी से कम नहीं। 

साकेत सहाय

#IAF


#साकेत_विचार


Thursday, May 20, 2021

भाषा, साहित्य और सम्मान विशेष - सुमित्रानंदन पंत


आज प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त जी की जयंती है। उनके कृतित्व को शत-शत नमन!  कभी अमिताभ बच्चन के पिता, हिंदी के प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन ने सुमित्रानंदन पंत के सुझाव पर ही अपने पुत्र का नाम  'अमिताभ' रखा, जिसका अर्थ है कभी न मिटने वाली आभा। आज हम सभी इस आभा से परिचित हैं। 

हिंदी एवं भारतीय भाषा प्रेमियों को भी अपने भाषा चिंतकों, साहित्यकारों के आभा एवं कार्य को सम्मान देना होगा। उसका प्रसार करना होगा। यह आभा है - भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकरूपता की। वास्तव में सभी भारतीय भाषाएं आपस में घुली-मिली हुई है। क्योंकि संस्कृत भाषा सभी की मूल स्रोत है।  साथ ही इससे भी महत्वपूर्ण  है - देश की भाषाई एवं सांस्कृतिक अभिन्नता की।  जिसके कारण शब्द और भाव लगभग एक समान होते है। यही कारण है कि ब्रिटिश पराधीनता के समय इस महत्वपूर्ण एवं आवश्यक तत्व को देश की सांस्कृतिक एवं सामाजिक एकता के लिए महात्मा गांधी से लेकर सभी राष्ट्रनायकों ने हिंदी के प्रयोग व इसे अपनाने पर जोर दिया था। इस शाब्दिक एकरूपता रूपी आभा के प्रसार के लिए देवनागरी लिपि के प्रसार की महती आवश्यकता है। कभी आचार्य  विनोबा भावे ने कहा था ''यदि सभी भाषाएं देवनागरी लिपि को अपना लें तो कोई भाषाई अंतर रहेगा ही नहीं। बतौर उदाहरण आइए समझते है इस शाब्दिक एकरूपता को-

एक शब्द है नागफनी।  आइए जानते है दूसरे भारतीय भाषाओं में इसे क्या कहते है और  समझते है कैसे इतनी भाषायी निकटता है-


पंजाबी- चित्तार थोहर 

हिमाचल-नागफन

बिहार- चपड़ा, नागफनी

उत्तर प्रदेश-चपड़ा/नागफनी

महाराष्ट्र -चापल 

कर्नाटक -पापसकल्ली

केरल - नागामुल्लु

पं.बंगाल- नागफना।

उड़ीसा - नागोफेनिया

आंध्र प्रदेश - नागाजेड़्डु 

तमिलनाडु- नागाथली


ऐसे अनेक शब्द है जो शाब्दिक एकरूपता को  प्रमाणित करते है। इस उदाहरण द्वारा इसे आसानी से समझा जा सकता  है।  हालाँकि आलोचक गाँधी जी के हिंदी के प्रयोग के आग्रह के प्रति और  विनोबा भावे के देवनागरी के आग्रह को लेकर सांस्कृतिक विलगन अर्थात कल्चरल लैग की बात करते है। जो बताता है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में सम्यता पक्ष सांस्कृतिक पक्ष की तुलना में अपेक्षाकृत तेजी से आगे बढ़ता है जिसकी वजह से सम्यता सूचक घटकों और सांस्कृतिक प्रतीकों के बीच एक प्रकार की दूरी आ जाती है।  आज वही दूरी तकनीकी प्रगति एवं अपनी भाषाओं से दूरी अपनाने के कारण मोबाइल, टैबलेट, एंड्रॉएड के विकास क्रम में देवनागरी के इस्तेमाल में दिख रही है जहाँ लोग हिंदी क्या हिंदीतर भाषाओं को भी रोमन लिपि में सहजता से व्यक्त कर रहे हैं। हालांकि देवनागरी का प्रयोग बढ़ा है। पर रोमन लिपि कहीं न कहीं अतिक्रमण कर रही है जो युवा पीढ़ी के बीच से हिंदी एवं भारत की प्रमुख लिपि देवनागरी को विस्थापित कर रही है। इस विस्थापन को समय रहते समझना होगा। तभी हिंदी की आभा का प्रसार होगा और  अपने साहित्यकारों को सच्ची श्रद्धांजलि दे पायेंगे। 🙏🌷


©डॉ. साकेत सहाय

#साकेत_विचार

Tuesday, May 18, 2021

खबरों में पुस्तक

डॉ. साकेत सहाय,को ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ के लिए ‘साहित्य श्री कृति सम्मान’ https://hindimedia.in/dr-saket-sahay-sahitya-shri-kriti-samman-for-electronic-media-bhashakic-rites-and-culture/

लेखक साकेत सहाय को मिला साहित्य श्री कृति सम्मान

 https://delhibulletin.in/the-union-ministry-of-culture-awarded-the-electronic-media-book-written-by-saket-sahai-one-and-a-half-lakh-cash-and-souvenirs-received-in-the-award/


Monday, May 17, 2021

पुस्तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भाषिक संस्कार एवं संस्कृति साहित्य श्री कृति सम्मान से सम्मानित




 देश के जाने-माने लेखक डॉ. साकेत सहाय,  को उनकी प्रथम पुस्तक ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ के लिए दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2019 का ‘साहित्य श्री कृति सम्मान’ प्राप्त हुआ है। जिसके तहत उन्हें स्मृति चिन्ह, अंग वस्त्र एवं ₹१,५०,००० (१ लाख ५० हज़ार रुपए मात्र) प्रदान किए जाएँगे। विधिवत सम्मान समारोह कोरोना काल के बाद आयोजित किया जाएगा। लेखक ने इस पुरस्कार को माता-पिता, गुरूजनों, परिजनों, मित्रों, स्नेही जनों को समर्पित किया।  लेखक भाषा-समाज एवं संस्कृति के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध लेखन प्रेम के लिए स्वयं के भीतर विद्यमान दृढ़-संकल्प का श्रेय अपने स्वर्गीय पिता को देते है। वे कहते हैं यह संकल्प शक्ति ही है कि पहले सैन्य सेवा और अब बैंकिंग सेवाओं में रहते हुए भी वे लेखन कर पाते हैं।  डॉ साकेत सहाय कहते हैं व्यक्ति की सफलता-असफलता  में माता-पिता, गुरूजनों का बहुत बड़ा योगदान होता है और साहित्य लेखन तो समाज के सहयोग के बिना असंभव है। पत्रकारिता, मीडिया भी समाज से अलग हो नहीं सकता। जो पत्रकारिता समाज, भाषा, परम्परा एवं संस्कृति से अलग होकर कार्य करती है वह पत्रकारिता नहीं विज्ञापन कहलाती है।  लेखक अपनी पुस्तक में मीडिया के तमाम सकारात्मक-नकारात्मक पक्षों को समझने की कोशिश करते है। पुस्तक में वे लिखते हैं देश, समाज व काल निर्माण में भाषा, संस्कृति एवं पत्रकारिता का घनिष्ठ सम्बंध रहा है पर आधुनिक मीडिया इस संबंध को कमजोर कर रहा है। आज यह माध्यम अपनी व्यापक प्रगति के कारण समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने की स्थिति में है। कई बार संस्कृति एवं समाज निर्माण में इसकी भूमिका को लेकर प्रश्न भी उठते हैं। सूचना और संचार की एकरेखीय और एकतरफ़ा प्रवाह से समाज, भाषा एवं संस्कृति के लिए संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हुई है। हमारी भाषा, संस्कृति, जीवन-शैली सब कुछ भयंकर बदलाव से गुज़र रहे है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए तब घातक स्थिति सिद्ध होती है जब संचार माध्यम जैसे महत्वपूर्ण अंग नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देते हुए इसे एकमेव लाभ का अड्डा बनाए। 

पुस्तक देवनागरी लिपि में सरल,सहज एवं स्वीकार्य हिंदी में इन बदलावों पर एक विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। समीक्षकों के अनुसार हिंदी में इस प्रकार की यह पहली पुस्तक है। बताते चले कि लेखक हिंदी में लेखन हेतु पूर्व में भी भारत के महामहिम राष्ट्रपति के कर-कमलों से राजभाषा गौरव पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।  साथ ही लेखक ने ‘भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी :१९९० के दशक के बाद - एक समीक्षात्मक अध्ययन’ जैसे नवोन्मेषी विषय पर अकादमिक क्षेत्र से दूर रहते हुए भी हिंदी जगत में सर्वप्रथम शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। जिसकी सराहना अकादमिक क्षेत्र के साथ ही हिंदी प्रेमियों ने भी किया । लेखक के भाषाई प्रयोजनशीलता पर ५०० से ज़्यादा आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं शोध पुस्तिकाओं  में प्रकाशित हो चुके है। लेखक ११वें  विश्व हिंदी सम्मेलन, मारीशस  में हिंदी विश्व एवं भारतीय संस्कृति विषय पर शोध-पत्र प्रस्तुत कर चुके है। जिसकी सराहना तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा की गई। लेखक देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हिंदी की प्रयोजनशीलता को लेकर छात्रों को सम्बोधित कर चुके हैं। हाल ही में लेखक की पुस्तक ‘जन बैंकिंग-eबैंकिंग प्रकाशित हुई है। अपनी पुस्तक प्रकाशन की इस यात्रा में वे मीडिया क्षेत्र के लेखकों, पत्रकारों, विशेषज्ञों एवं समीक्षकों का आभार प्रकट करते है।  इस कठिन समय में पुरस्कार की घोषणा हेतु लेखक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ राम शरण गौड़ एवं उनकी समस्त टीम, संस्कृति मंत्रालय के प्रति आभार व्यक्त करते है। 

लेखक अपनी आगामी पुस्तक के बारे में बताते है कि उनकी आगामी पुस्तक देश की आज़ादी के अमृत वर्ष के पवित्र अवसर पर लोकार्पित होगी। पुस्तक देश के ऐसे महान शहीदों को समर्पित है जिन्होंने देश की स्वाधीनता की ख़ातिर अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। यह पुस्तक सामयिक लेखन  के लिए चर्चित लेखिका संगीता सहाय के साथ संयुक्त रूप से बिहार राष्ट्रभाषा अकादमी के द्वारा प्रकाशित की जा रही है।


Friday, May 14, 2021

अली मदार्न खान

 इस विपरीत समय में #भारतीय_साहित्य और #संस्कृति की सौहार्दता का शानदार उदाहरण 

साभार - 

#शिव_स्तुति - मूल कवि - #अली_मर्दांन_खान 

हिंदी अनुवाद - डॉ. शशि शेखर तोषखानी। 

(साभार-कश्मीर संदेश, मार्च, २०१३) 

साभार नागरी संगम अंक -अक्तूबर-दिसंबर, २०२०


#साकेत_विचार


सड़के खाली है कोरोना काल पर कविता

 पिछले साल कोरोना के शुरुआती दौर में राष्ट्र कवि दिनकर जी की पुण्य तिथि पर लिखी थीं, जो आज भी   प्रासंगिक हैं |  

दिनकर जी वास्तव  में भारतवर्ष की महान संस्कृति, परंपरा, इतिहास के समन्वय पथ के अनुगामी सारथी थे |  दिनकर जी युग चारण कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं ।  कविता के बारे में वे कहते है - अच्छी कविता की पहचान यह है कि उसे पढ़कर मनुष्य के ह्रदय में एक प्रकार की बेचैनी या जागृति स्फुरित होती है और उसका मन भीतर-ही-भीतर किसी यात्रा या पर्यटन पर निकाल पड़ता है।  यह आवश्यक नहीं है कि यह यात्रा या पर्यटन उन्हीं अर्थों तक सीमित रहे, जो कविता के शब्दों में सन्निहित हैं।  असली वस्तु शब्दों के अर्थ नहीं, संकेत हैं और संकेत तो शब्द दूर तक दिया करते हैं |

उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें नमन करते हुए प्रस्तुत है मेरी कविता- 

आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी ।  


सड़कें खाली हैं …………………


सड़कें खाली हैं .. 

सूनी हैं … 

महानगर और नगर की 

शहर और कस्बों की 

गाँवों के पगडंडियों की ।


पर 

बत्तियाँ जल रही हैं 

कीट, पतंगें, पशु-पक्षी 

सब दिख रहे हैं 

नहीं दिख रहा तो बस 

आदमी 

जो मानव से दानव बनने चला था 

विज्ञान को विकृत-ज्ञान बनाने पर तुला था 

हथियार को ही सब कुछ मान बैठा था 

परम-पिता को ही चित्त करने चला था 

था तो वह परमात्मा की अपूर्व, अप्रतिम कृति   

पर वहीं सबसे बड़ा विनाशक निकला 


आज सब कुछ है पर एक डर है 

भले आकाश नीला है 

धरती खामोश है 

नदियां साफ है 

पर वे कुछ बोलना चाहती हैं 

क्या कोई इन्हें सुनना भी चाहता है ।


कोरोना एक संकेत है 

हे मानव ! 

सुधर जाओ

अपनी इच्छाओं को अनंत बनाओ 

पर प्रकृति के अनुरूप 

मानव की प्रकृति तो विध्वंसक की नहीं होती 

अत: प्रकृति की सुनो, 

आओ फिर से धरती को स्वर्ग बनाओ  ।

© डॉ साकेत सहाय


#साकेत_विचार

मातृ दिवस और वृद्धाश्रम

 माँ, पिता और गुरु  इस धरा पर भगवान के  भेजे गए  दूत हैं।   आज हम सभी जो कुछ भी है उसमें  इन तीनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।  आज मातृ दिवस पर माँ को नमन्।

वैसे तो भारतीय संस्कृति में माँ, पिता और गुरु के लिए कोई विशेष दिन नहीं होता क्योंकि इस धरा पर हम सभी का अस्तित्व ही इन तीनों से है और हम भारतीय तो माँ-बाप दोनों को अभिन्न मानते है। 

हर दिन इन्हीं का है।  हमारे शास्त्रों में कहा गया है। 


श्लोक-

पद्मपुराण सृष्टिखंड (47/11) में कहा गया है-


सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता। 

मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।। 


अर्थात् माता सर्वतीर्थमयी और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप हैं अत: हम सभी को सभी प्रकार से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता अपनी संतान के लिए जो क्लेश सहन करते हैं, उसके बदले पुत्र यदि सौ वर्ष माता-पिता की सेवा करे, तब भी वह इनसे उऋण नहीं हो सकता।


आइए दिखावे से इतर माँ-बाप का सम्मान करें। उन्हें प्रेम और अधिकार दें। अन्यथा मातृ दिवस का नाटक बंद करें।  इस अवसर पर मातृ दिवस और वृद्धाश्रम के अंतर्विरोध को समझें। मातृ दिवस की सार्थकता इसी में है कि हम वृद्धाश्रम को समाप्त करें। 


#साकेत_विचार


#mothersday2021

शिक्षा और संस्कार

 जब शिक्षा का मतलब केवल रोजगार और पैसा कमाना बन जाए तो इसी प्रकार के दिन देखने पड़ेंगे। इसलिए बच्चों को संस्कार और अपनी माटी से प्रेम करने की शिक्षा देना बेहद जरूरी है। वर्ना यह एक संकेत हैं। इस प्रकार के सामाजिक पतन हेतु विद्यालयों से नैतिक शिक्षा की समाप्ति एक बहुत बड़ा कारण है।  अब हमारे लिए न संस्कार का अर्थ है, न परंपरा का, न संस्कृति का।  जिस समाज में इंसान से अधिक महत्वपूर्ण उसके पद, पैसा और रसूख़ का हो वहां इस प्रकार के दिन देखने ही पड़ सकते है।  पढ़-लिख के इंजीनियर, डाक्टर, जज, कलक्टर होना शायद सबसे आसान काम है पर ज्ञानवान होना ज़्यादा कठिन।  कोई पुत्र अपने पिता का शव न ले, अपने पद का दुरुपयोग करके दूसरे को इस हेतु अधिकृत करे इससे घोर निंदनीय कृत्य और क्या हो सकता है। मृत्यु और महामारी से हर कोई भयभीत है। पर अपने संस्कार? इस कुकृत्य से मानवता शर्मिंदा है। 


#संस्कार

#साकेत_विचार

पुस्तक संस्कृति

उत्तर आधुनिक भारतीय किताबें खरीदकर तो कम ही पढ़ते हैं इसीलिए कवर पेज देखकर खुश हो लेते हैं और वो विदेशी हो तो क्या कहना?  जिनकी हिंदी कमजोर है वो भी इतिहास का बखान हिंदी में करके किसी की चिंदी-चिंदी कर डालते हैं और जिनकी अंग्रेजी खराब है वो भी अंग्रेजी देखकर खुश हो लेते हैं ।

सांस्कृतिक विकृति का परिणाम है जन-सामान्य का पुस्तकों से दूर जाना, जो समाज के लिए घातक सिद्ध हो रहा है


#पुस्तक_संस्कृति

#साकेत_विचार 

जीवन का अनुभव

  http://epaper.amritvichar.com/media/2021-02/magazine.pdf

महाराजा दशरथ को जब संतान प्राप्ति नहीं हो रही थी तब वो बड़े दुःखी रहते थे...पर ऐसे समय में उनको एक ही बात से हौंसला मिलता था जो कभी उन्हें आशाहीन नहीं होने देता था और वह था श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिया गया श्राप....


दशरथ जब-जब दुःखी होते थे तो उन्हें श्रवण कुमार के पिता का दिया श्राप याद आ जाता था... (कालिदास ने रघुवंशम में इसका वर्णन किया है)


श्रवण कुमार के पिता ने ये श्राप दिया था कि ''जैसे मैं पुत्र वियोग में तड़प-तड़प के मर रहा हूँ वैसे ही तू भी तड़प-तड़प कर मरेगा.....''


दशरथ को पता था कि ये श्राप अवश्य फलीभूत होगा और इसका मतलब है कि मुझे इस जन्म में तो जरूर पुत्र प्राप्त होगा.... (तभी तो उसके शोक में मैं तड़प-तड़प के मरूँगा)


यानि यह श्राप दशरथ के लिए संतान प्राप्ति का सौभाग्य लेकर आया....


ऐसी ही एक घटना वानरराज सुग्रीव के साथ भी हुई....


वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि सुग्रीव जब माता सीता की खोज में वानर वीरों को पृथ्वी की अलग - अलग दिशाओं में भेज रहे थे.... तो उसके साथ-साथ उन्हें ये भी बता रहे थे कि किस दिशा में तुम्हें कौन सा स्थान या देश  मिलेगा और किस दिशा में तुम्हें जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिये.... 


प्रभु श्रीराम सुग्रीव का ये भौगोलिक ज्ञान देखकर हतप्रभ थे...


उन्होंने सुग्रीव से पूछा कि सुग्रीव तुमको ये सब कैसे पता...?


तो सुग्रीव ने उनसे कहा कि... ''मैं बाली के भय से जब मारा-मारा फिर रहा था तब पूरी पृथ्वी पर कहीं शरण न मिली... और इस चक्कर में मैंने पूरी पृथ्वी छान मारी और इसी दौरान मुझे सारे भूगोल का ज्ञान हो गया....''


अब अगर सुग्रीव पर ये संकट न आया होता तो उन्हें भूगोल का ज्ञान नहीं होता और माता जानकी को खोजना कितना कठिन हो  जाता...


इसीलिए किसी ने बड़ा सुंदर कहा है :-


"अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियाँ वरदान है और जो उनके अनुसार व्यवहार करें.... वही पुरुषार्थी है...."


ईश्वर की तरफ से मिलने वाला हर एक पुष्प अगर वरदान है.......तो हर एक काँटा भी वरदान ही समझें....


मतलब.....अगर आज मिले सुख से आप खुश हो...तो कभी अगर कोई दुख,विपदा,अड़चन आजाये.....तो घबरायें नहीं.... क्या पता वो अगले किसी सुख की तैयारी हो....


संकलन


डॉ साकेत सहाय

कविवर सोहनलाल द्विवेदी

 आज ही के दिन राष्ट्रकवि पं सोहनलाल द्विवेदी (22 फरवरी 1906 - 1 मार्च 1988) का अवतरण हुआ था। आपने अपनी प्रेरक रचनाओं से हिंदी को एक नया आकाश दिया। आपकी इन पंक्तियों ने देश के करोड़ों युवाओं को प्रेरित किया हैं । 


'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती 

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती'



उनकी एक और रचना-


श्रद्धेय सोहनलाल द्विवेदी जी ने राष्ट्र की नयी पीढ़ी के निर्माण का साहित्यसृजन किया ।उनकी रचनाएँ सामयिक और सार्वकालिक महत्व की है ।गाँधीजी से संबंधित भी उनकी कविताएँ है ,उनमें ..युग पुरुष..उल्लेखनीय है,1956 में पढ़ी उसकी कुछ पंक्तियाँ पढ़िये..

चल पड़े जिधर दो डग

मग में चल पड़े..

कोटि पग उसी  ओर।

जिसके सिर पर निज..

धरा हाथ उसकेसिर रक्षक..

कोटि हाथ।

जिस पर निज मस्तक झुकादिया..

झुक गये उसी पर ..

कोटि माथ।।उनकी कृतियाँ हमेशा पठनीय और प्रसंगिक रहेंगी ।सादर नमन


आपकी रचनाएँ ओज और चेतना से भरपूर थीं।आपने 'वीर तुम बढ़े चलो' जैसी बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं हैं। वर्ष 1969 में भारत सरकार ने आपके कृतित्व को पद्मश्री से सम्मानित किया।




#समृद्धभारत #समृद्धहिंदी

हसरत मोहानी और इंक़लाब ज़िंदाबाद

 अवाम् को 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा देने वाले शायर हसरत मोहानी की पुण्यतिथि पर नमन🌷


हसरत मोहानी का पूरा नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन तख़ल्लुस हसरत था। उनका जन्म मोहान, ज़िला उन्नाव में 1875 को हुआ था।  उनके पिता का नाम सय्यद अज़हर हुसैन था। हसरत मोहानी ने आरंभिक ज्ञानार्जन घर पर ही प्राप्त किया और वर्ष 1903 में अलीगढ़ से स्नातक किया। प्रारंभ ही से उन्हें शायरी का शौक़ था और वे अपना कलाम तसनीम लखनवी को दिखाने लगे। वर्ष 1903 में अलीगढ़ से एक पत्रिका उर्दू-ए- मुअल्ला संपादन किया। जो ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ था। 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 1905 में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक द्वारा चलाए गए स्वदेशी आंदोलन में भी भाग लिया। 1907 में उन्होंने अपनी पत्रिका में "मिस्त्र में ब्रितानियों की पालिसी" के नाम से लेख छापी। जो ब्रिटिश सरकार को बहुत खली और हसरत मोहानी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। । 1919 के खिलाफत आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। 1921 में उन्होंने "इन्कलाब ज़िदांबाद" का नारा अपने कलम से लिखा। इस नारे को बाद में भगतसिंह ने मशहूर किया। उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1921) में हिस्सा लिया।

हसरत मोहानी श्रीकृष्ण के भक्त थे। उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति में कई शायरी की है। वे बाल गंगाधर तिलक व भीमराव अम्बेडकर के करीबी दोस्त थे। 1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का सदस्य चुना गया।  1947 के भारत विभाजन का उन्होंने जमकर विरोध किया और हिन्दुस्तान में रहना पसंद किया। 13 मई 1951 को मौलाना साहब का देहांत  हो गया। उन्होंने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है। वर्ष 2014 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया है।

(साभार-विकिपीडिया) भाषा संशोधन - डॉ साकेत सहाय


#साकेत_विचार


आचार्य रघुवीर और हिंदी


 आचार्य रघुवीर जी की पुण्यतिथि पर शत-शत नमन💐

आज उनकी आत्मा रो रही होगी हमारी स्वभाषा के प्रति हीनता-बोध के कारण😒 


डॉ रघुवीर जीवनपर्यन्त अंग्रेजी के एकाधिकार के विरुद्ध सभी भारतीय भाषाओं के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में कार्यरत रहे।  यह अलग प्रसंग है कि आज भी उनका यह स्वप्न अधूरा है और ब्रिटिशों से मात्र रक्त आधार से अलग अंग्रेज़ीप्रेमी भारतीय का आज भी अनैतिक राज चालू है। यह घोर पीड़ा का विषय है कि आज़ादी मिलने के ७४ वर्ष के भीतर ही जो हिंदी संपूर्ण देश में एकमेव रूप से स्वीकार्य थीं और देश की प्रमुख भाषा से राजभाषा के पद पर आसीन हुई थी, उसे हमारे सत्ता-प्रधानों ने आज उत्तर भारत की भाषा के रूप में  उपस्थित करने का कुत्सित प्रयास किया है।


आचार्य रघुवीर महान भाषाविद, प्रख्यात विद्वान्‌, राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे। उन्होंने कोशकार, शब्दशास्त्री के रूप में एक तरफ़ जहां कोशों की रचना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्दभण्डार संपन्न किया, तो वहीं दूसरी तरफ़ एशिया और पूरी दुनियामें फैली भारतीय संस्कृति की खोज कर उसका संग्रह एवं संरक्षण किया। उन्होने 4 लाख शब्दों वाला अंग्रेजी-हिन्दी तकनीकी शब्दकोश के निर्माण का महान कार्य भी किया।


भारतीय संविधान के प्रथम हिंदी अनुवादक


डॉ. रघुवीर मध्यप्रदेश और बरार क्षेत्र से वर्ष 1948 में संविधान सभा के सदस्य चुने गये। उन्हें भारत की संविधान सभा में सबसे युगान्तरकारी व्यक्ति माना जाता था। वास्तव में उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए युगांतकारी योगदान दिया।  सन् 1950 में उन्होंने संविधान का पहला खण्ड हिंदी में प्रस्तुत किया, जिसे उन्होंने संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया।  परंतु पण्डित नेहरू और संविधान सभा के दक्षिण भारतीय प्रतिनिधियों ने हिंदी में प्रस्तुत इस संविधान को नहीं अपनाया। हालाँकि राधाकृष्णन, के.एम. मुंशी और गोपालस्वामी अय्यर ने आचार्य रघुवीर के प्रयासों के लिए उंनका आभार प्रकट किया।


उन्हीं से जुड़ा एक प्रसंग


वे प्रायः स्वभाषा और संस्कृति को समर्पित देश फ्रांस जाया करते थे।  वे अपने आत्मीय संबंधों के कारण फ्रांस के एक राजपरिवार में ठहरा करते थे।  उस परिवार में ग्यारह वर्ष की एक विचारवान लड़की भी थी।  वह डॉ. रघुवीर का बहुत ध्यान रखती थी।  एक बार डॉ. रघुवीर को स्वदेश से एक पत्र प्राप्त हुआ।  बच्ची को उत्सुकता हुई की देखे तो भारत की भाषा की लिपि कैसी है?  तो उसने कहा-

 

“महात्मन!  कृपया  लिफाफा खोलकर पत्र दिखाए।  "

       

आचार्य रघुवीर ने उसे टालना चाहा पर वह लड़की अपने ज़िद पर अड़ गयी।  आचार्य रघुवीर दुविधा में पड़ ग़ए।  पर बालिका के दबाव के कारण उन्हें पत्र दिखाना पड़ा।  पत्र देखते ही बच्ची का मुख मंडल क्रोधित हो गया। उसने कहा - अरे ! यह तो अंग्रेजी में लिखा हुआ है, क्या आपके देश की कोई अपनी भाषा नहीं है? डॉ. रघुवीर से कुछ कहते नहीं बना।  बच्ची उदास होकर चली गयी।  दोपहर में हमेशा की तरह सभी ने एक साथ भोजन किया परन्तु पहले की तरह उत्साह नहीं था।  भोजन के बीच गृहस्वामिनी बोली - "डॉ रघुवीर भविष्य में जब आप फ़्रांस आए तो किसी और जगह रहा करें।  हम फ़्रांस के लोग जिस देश की अपनी कोई  भाषा नहीं होती उसे हम 'बर्बर' कहते है।  ऐसे लोगो से हम कोई संबंध नहीं रखते। 


महिला ने उन्हें आगे बताया, "मेरी माता लॉरेन प्रदेश के राजा  की पुत्री थी।  प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व वह फ़्रांस का यह  प्रदेश जर्मनी के अधीन था।  जर्मन सम्राट ने वहां फ्रेंच बंद करके जर्मन भाषा थोप दी थी।  परिणामस्वरूप सारा कार्य जर्मन में ही होने लगा।  मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थी और एक विद्यालय में पढ़ती थी।  मेरी माता अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की थी।  एक बार जर्मन महारानी  कैथराइन उस विद्यालय का निरीक्षण करने पहुंची।  


बच्चियों के व्यायाम, खेल इत्यादि प्रदर्शन के बाद महारानी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है ? मेरी माँ को छोड़कर किसी को याद न था। मेरी  माँ ने उसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुन्दर ढंग से गाया कि महारानी ने मेरी माँ से कुछ पुरस्कार मांगने को कहा।  मेरी माँ चुप रही बार-बार आग्रह करने पर वह बोली - "महारानी जी क्या मैं जो कुछ माँगूगी आप देंगी? महारानी उत्तेजित होकर बोली - 


 “बच्ची मैं महारानी हु।  मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता तुम जो चाहे मांगो।"  इस पर मेरी माँ ने कहा, महारानी जी , यदि आप सचमुच अपने वचन पर दृढ है तो, मेरी केवल एक ही प्रार्थना है की अब आगे से इस प्रदेश में सारा कार्य केवल फ्रेंच में ही हो जर्मन में नहीं।  इस सर्वथा अप्रत्याशित मांग को सुनकर महारानी पहले तो आश्चर्यचकित रह गयी; किन्तु फिर क्रोध से लाल हो उठी।  वो बोली - 

“महारानी होने के कारण मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता, पर तुम जैसी छोटी सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज जो पराजय दी है वह मैं कभी नहीं भूल सकती।  जर्मनी ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया।  मैं भलीभांति जानती हूँ की अब आगे से लॉरेन अधिक दिनों तक जर्मनी के अधीन नहीं रह सकेगा।  यह कहकर वह उदास  होकर वहां से चली गयी। “ गृहस्वामिनी ने आगे कहा -"डॉ रघुवीर, इस घटना से आप समझ सकते है कि मैं किस माँ की पुत्री हूँ।  हम फ्रांसीसी लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते है; क्योंकि हमारे लिए राष्ट्रप्रेम और भाषा प्रेम में कोई अंतर नहीं।"


आचार्य रघुवीर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यहीं होगी कि हम अपनी भाषाओं का सम्मान, उपयोग एवं इसे बढ़ावा दें। 


स्रोत - विभिन्न समाचार पत्र एवं वेबसाइट


विचार एवं संकलन- डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...