भाषा और विकृत राजनीति



भाषा और विकृत राजनीति। 

पहले उर्दू को हिन्दी से अलग कर दिया। यह कौन-सी नीति है जो तमिलनाडु, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, बंगाल और बिहार के मुसलमान भी उर्दू को अपनी मातृभाषा बता रहे है। अब आंध्र प्रदेश का स्थानीय जो भले धर्मांतरित हो या मूल परंतु उसकी मातृभाषा उर्दू कैसे होगी ? संस्कृत को भी पंडितों से जोड़ दिया गया। भाषा को पंथ से जोड़ने का कुचक्र । पंडित और ब्राह्मण जैसे शब्दों के अर्थ सीमित कर दिये गए और केवल जाति से जोड़ दिया। राजनीतिक और कथित अकादमिक विद्वानों ने तो जाति के अर्थ को ही विकृत कर दिया। याद रखिये भाषा और पंथ की सत्तानीति देश, समाज का कभी भला नहीं करती बल्कि देश का बेड़ा गर्क करती है।  पाकिस्तान का उदाहरण सामने है पहले पंथ के नाम बाँटा, ज़हर बोया और शैतानी ताक़तों ने देश को बाँट दिया। भाषा के ज़हर ने राज्यवार विभाजन तय किए। पाकिस्तान में जबरदस्ती उर्दू थोप दी गई। नतीजा सामने है। 

आज राष्ट्रीय एकता और संपर्क की भाषा हिंदी की अकादमिक स्थिति को हिन्दीतर के विमर्श ने काफ़ी नुक़सान पहुँचाया है।  जिन राज्यों में राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा चाहे जो भी नाम लें हिन्दी दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में स्वीकार्य थीं वहाँ भी राजभाषा हिन्दी की स्थिति कमज़ोर हो रही है, अंग्रेज़ी आतंकवाद और राजनीतिक प्रांतीय क्षेत्रवाद ने दक्षिण के राज्यों के साथ ही पंजाब  में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न की गयी है। पंजाब सरकार  द्वारा राष्ट्रीय चैनलों पर चल रहे विज्ञापनों को ही देख लीजिये। ये अपना ढोल तो हिन्दी में पिटवाती हैं पर राज्य के विद्यालयों में ग़ुलामों की भाषा अंग्रेज़ी को आगे बढ़ाती हैं और स्वाधीनता आंदोलन की भाषा हिन्दी को पीछे करती है। जबकि संविधानिक धाराओं के तहत संघीय व्यवस्था में शामिल इस देश की हर सरकार का यह दायित्व है कि वह राजभाषा हिन्दी को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी लें। 

यह हर सरकार का कर्त्तव्य है । हिंदी ने देश के हर नागरिक का संपर्क भाषा के रूप में कल्याण ही किया है। यह कर्त्तव्य केवल राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश का ही नहीं है । हम सभी को अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर या बिहार से सीखना चाहिये जिसने राष्ट्रहित में हिंदी को अपनाया है। पर अब पंजाब या अन्य राज्यों को क्यों दिक़्क़त है? इस पर हिंदी प्रेमी जन विचार करें। अन्यथा हिंदी का पाखण्ड वाम, कांग्रेस और दक्षिण के बीच झूलता रहेगा, क्योंकि हिन्दी प्रेमी ही पद, पैसा और भ्रमण के व्यामोह में उलझे पड़ें है और जो जागा हुआ है उसे ये लोग बियाबान में खदेड़ना चाहते हैं। 

भारत में हिन्दी हज़ारों सालों से इस देश की संपर्क भाषा, राजभाषा, जोड़ और जुड़ाव की भाषा है। पर सबसे ज्यादा हिंदी के नाम पर विषवमन किया जाता है। कृपया नोट करें राष्ट्रीय एकता में हिंदी सबसे बड़ी शक्ति है।  आइए संकल्प लें जब देश आगामी 14 सितंबर, 2024 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को संघ की राजभाषा स्वीकार करने के 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है तो हम सब राष्ट्रहित में हिंदी की संवैधानिक स्वीकृति को व्यवहारिक मुक़ाम देने में यथेष्ट योगदान देंगे।  

धन्यवाद!

-डॉ साकेत सहाय

भाषा-संचार विशेषज्ञ


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