सांप्रदायिकता

 जब देश एक विशेष मत, पंथ, मजहब के नाम पर बँटा नहीं था, तब भी साम्प्रदायिकता पर गंभीर विमर्श होता था, पर कथित धार्मिक असहिष्णुता के नाम पर, अंध राष्ट्रवाद के नाम पर, तमाम क्षुद्रताओं ने पाकिस्तान को आख़िरकार जन्म दे ही दिया, पर इससे भारत को क्या मिला? धोखा और अविश्वास। आज भी जब-तब भाषा एवं संस्कृति को लेकर विवाद होते रहते है। 

साम्प्रदायिकता पर दैनिक हिंदुस्तान द्वारा ०७ मई, २०२२ के अंक में राष्ट्रवादी विचारक एम एस गोलवलकर तथा प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद के विचार को प्रकाशित किया गया है।  जिसके कुछ अंश आप सभी के लिए…


१. 


हम इतने क्षुद्र नहीं हैं कि यह कहने लगें कि केवल पूजा का प्रकार बदल जाने से कोई व्यक्ति उस भूमि का पुत्र नहीं रहता। हमें ईश्वर को किसी नाम से पुकारने में आपत्ति नहीं है।हममें प्रत्येक पंथ और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति सम्मान का भाव  है, जो अन्य पंथों के प्रति असहिष्णु है वह कभी हिंदू नहीं हों सकता। 

- एम एस गोलवलकर, राष्ट्रवादी विचारक एवं पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक प्रमुख। 


२. साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है। …। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी है, अरब है, लेकिन ईसाई, इस्लाम संस्कृति नहीं।  हिंदू यदि मूर्ति पूजक है तो क्या मुसलमान कब्र पूजक और स्थान-पूजक नहीं। भाषा भी धर्म विशेष की नहीं होती। 

-प्रेमचंद, प्रसिद्ध साहित्यकार


साभार एवं संकलन #साकेत_विचार

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