प्रेमचन्द और वैचारिक साहित्य











प्रेमचन्द और वैचारिक साहित्य इस विषय पर बहुत कम चर्चा होती है। इसी शीर्षक से मेरा आलेख बिहार सरकार, राजभाषा विभाग की भाषा-साहित्य-संस्कृति की हिंदी त्रैमासिकी 'राजभाषा' के अंक : २, वर्ष: ३५, जुलाई-सितम्बर, २०२१ में प्रकाशित हुआ है। आप सभी पढ़कर विचार देंगे। प्रेमचन्द विशेषांक के रूप में बेहद संग्रहणीय अंक प्रकाशित करने हेतु मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग का विशेष आभार। मेरा आलेख प्रेमचन्द जी के विराट लेखकीय व्यक्तित्व पर केंद्रित है। मैं अक्सर लिखता हूँ जो स्थान महात्मा गाँधी का आधुनिक भारतीय राजनीति में हैं वहीं स्थान आधुनिक भारतीय साहित्य में मुंशी प्रेमचंद जी का है । मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं " मैं एक मजदूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं।" वास्तव में लेखन के प्रति उनका यह समर्पण ही उन्हें भारतीय साहित्य में विशिष्टता प्रदान करता हैं । प्रेमचन्द जी ने हर प्रकार के साहित्य का सृजन किया, इसलिए वे साहित्य- शिल्पी कहे गए। सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ प्रेमचंद का वैचारिक साहित्य बेहद समृद्ध है। हिंदी पत्रकारिता में हंस के रूप में उनके उल्लेखनीय योगदान को भला कौन भूल सकता है। प्रेमचंद अपने संपूर्ण वैचारिकी में पाठकों को जगाते हैं । उन्हें आदर्श राष्ट्र राज्य की प्राप्ति हेतु संघर्ष करने हेतु उद्वेलित करते हैं । प्रेमचन्द का साहित्य यथार्थवादी रहा । वे हिंदी के यथार्थ से भी परिचित थे,इसीलिए उन्होंने हिंदी में जमकर लेखन किया। उनके भाषा विषयक निबंध और टिप्पणियाँ राष्ट्रभाषा हिंदी की विशिष्टता को समग्रता से समझने में सहायक हैं । यह भी सुखद संयोग हैं कि हाल में उनके जन्म स्थान लमही जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । कुछ तस्वीरें । #साकेत_विचार

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