हिन्दुस्तानी ज़बान युवा पत्रिका अंक ( अक्टूबर- दिसम्बर 21) खेल विशेषांक में मेरे लेख 'खेल की दुनिया के किंवदंती पुरूष- मेजर ध्यानचंद को जगह देने के लिए बड़े भाई Sanjiv Nigam जी का आभार । जब मैंने एक पोस्ट के रूप में इसे फेसबुक पर लिखा था तो उनका फोन आया। इसे थोड़ा बड़ा करके हमारी पत्रिका के लिए भेज दीजिए । मेरी लेखनी का सम्मान बढ़ा । क्योंकि यह पत्रिका एक ऐतिहासिक संस्थान से सम्बद्ध हैं । यह पत्रिका राष्ट्रभाषा के प्रबल समर्थक महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ से जुड़ी है। जिसकी स्थापना सन् 1942 में महात्मा गाँधी ने की थी। यह संस्था हिन्दुस्तानी (सरल हिन्दी) के साथ-साथ गाँधीजी के उसूलों के प्रचार-प्रसार में भी यह संस्था कार्यरत है। संस्थान की वेबसाइट से पता चलता है कि इस महान संस्थान को डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुलकलाम आज़ाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, आचार्य काकासाहेब कालेलकर, श्री बाला साहेब खेर, डॉ. ताराचंद, डॉ. ज़ाफर हसन, प्रो. नजीब अशरफ नदवी, श्री श्रीमन्नारायण अग्रवाल, श्रीमती पेरीन बहन कैप्टन, श्रीमती गोशीबहन कैप्टन, पंडित सुन्दरलाल, पंडित सुदर्शन, श्री सीताराम सेक्सरिया, श्री अमृतलाल नानावटी, श्री देवप्रकाश नायर जैसी बड़ी-बड़ी हस्तियों का सहयोग मिला । आइए हम सब इन महानायकों के कृतित्व को नमन करते हुए हिंदी को इस देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक प्रगति का सूत्रधार बनाए। आलेख पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देंगे। #साकेत_विचार
हिंदी विश्व में भारतीय अस्मिता की पहचान है। हिंदी भारत की राजभाषा,राष्ट्रभाषा से आगे विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है।
Sunday, October 31, 2021
Saturday, October 30, 2021
इटली में प्रधानमंत्री मोदी और भारतीय संस्कृति का उद्घोष
यूरोप का 'भारत' कहे जाने वाले इटली में भारतीय संस्कृति का उद्घोष! इटली में भारतीय भाषा, सभ्यता संस्कृति का प्रसार प्रचार कर रहे संस्कृत विद्वानों, भारतविदों, प्रवासी भारतीयों के साथ ही वेटिकन के मुख्य पुजारी सेंट फ्रांसिस से भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भेंट की। कभी प्राचीन भारतीय संस्कृति का गढ़ माने जाने वाले रोम में गीता के श्लोक गूंजे, वेदों की ऋचाएं गूंजी, भारतमाता की जय, वंदेमातरम का जयघोष हुआ। #साकेत_विचार
Friday, October 29, 2021
अभिनेता पुनीत राजकुमार का असमय जाना
जो कमाया सब यही रह जाएगा, इसको आत्मसात् करने वाले अभिनेता पुनीत राजकुमार मात्र 46 की आयु में स्वर्गवासी हो गए । अपनी आय से 45 निःशुल्क विद्यालय, 26 अनाथालय,16 वृद्धाश्रम,19 गौशालाएँ, 1800 अनाथ बेटियों की उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी उठाने वाले कन्नड़ फिल्मों के सुपर स्टार पुनीत राजकुमार का निधन आज हृदय गति रुक जाने से हुआ । नाम के अनुरूप 'पुनीत' कार्य । सनातन संस्कृति के प्रबल समर्थक पुनीत राजकुमार से जुड़ा एक प्रसंग बड़ा चर्चित हुआ था। कहते हैं एक बार जब वे कन्नड़ के 'कौन बनेगा करोड़पति' के मुख्य सूत्रधार थे तो उनके पास सनातन पंथ से जुड़ा एक नकारात्मक प्रश्न आया था प्रतियोगी से पूछने के लिए, जिसे उन्होंने पूछने से मना कर दिया था और वे शो छोड़कर तुरंत बाहर चले गए। इन समृद्ध लोगों के असमय मृत्यु पर एक संकेत भी है 40 के बाद अपने को समेटना सीखिए। जो ईश्वर ने दिया, उस पर सकारात्मक रहें । स्वास्थ्य ही धन है इस मूलमंत्र को जीवन में उतार लीजिए । करियर-फरियर के पीछे ज्यादा उत्साही होना -सब माया है। शीघ्र ही धनतेरस आ रहा है, इस धनतेरस पर इस त्यौहार के विकृत हुए संकल्प को ठीक करें और बर्तन-धन से अधिक जीवन को स्वस्थ रखने का संकल्प करें । मन को सकारात्मक रखने का जतन करें । संतुष्टि के लिए कार्य करें । वैसे जीवन-मृत्यु ऊपर वाले के हाथ में है यह चिर सत्य है। फिर भी स्वस्थ रहने का संकल्प तो ले ही सकते हैं और भारतीय फिल्म निर्माता-निर्देशकों से अनुरोध जीवन हेतु 'आनंद' की तरह जीवंत फिल्म बनाएं । न कि आर्यन के पीछे भागे।
पुनीत राजकुमार जी को विनम्र श्रद्धांजलि ॐ शांति
Sunday, October 24, 2021
समाजीकरण और हिंदी
आपने कुछ दिनों पूर्व खबर सुनी होगी जिसमें कर्नाटक के मैसूर से संबंध रखने वाला यह व्यक्ति अपनी माँ को आधुनिक श्रवण कुमार के रूप में भारत भ्रमण करा रहे है और उनके भ्रमण में, संवाद एवं संपर्क में हिंदी की भूमिका स्पष्ट है। माँ-बेटे हिंदी के प्रखर दूत लग रहे हैं। उनका संदेश उनलोगों के लिए है जो यह समझते है हिंदी भाषी ही हिंदी समझते है। यह दिल्ली वालों के लिए भी सबक है जिनका अंग्रेजी के बिना एक वाक्य भी पूरा नहीं होता। यह उनके लिए भी सबक है जो कहते है हिंदी केवल हमारी है हिंदी सबकी है। इन कन्नड़ भाषी माँ-बेटे ने हमें यह बताया है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है। भारत एक राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक इकाई है। अत: इसकी संस्थागत व सामाजिक अस्मिता की भाषा हिंदी ही है। समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजरकर ही व्यक्ति मातृभाषा के इस रूप को सीखता है। इस वीडियो से हम और आप आसानी से इसे समझ सकते है। भारत सदियों से सांस्कृतिक रूप से एक़ राष्ट्र रहा है। भाषाई विविधता के बावजूद एक जनभाषा ने इसे सदैव जोड़ कर रखा है। इस अखिल भारतीय परिवार की सामाजिक अस्मिता की भाषा हिंदी है। हिंदी इस दृष्टि से समेकित रूप से मातृभाषा भी है। अतः मातृभाषा की अनुवादित परिभाषा से ऊपर उठें। जय हिंद! जय हिंदी!! आप सभी को धनतेरस- दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई ©डॉ. साकेत सहाय #साकेत_विचार साभार Sentinal Times
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Saturday, October 23, 2021
भारत यायावर जी को श्रद्धांजलि
हिंदी के चर्चित लेखक, 'रेणु' रचनावली के समर्पित अध्येता भारत यायावर जी नहीं रहे। उनका निधन हिंदी रचना संसार के लिए बड़ी क्षति है। नए लेखकों से बड़ा स्नेह करते थे। उनकी अंतिम पोस्ट कल की, सच में जीवन क्षणभंगुर हैं । विनम्र श्रद्धांजलि💐🙏🏼
व्याख्यान-हिंदी साहित्य और सिनेमा का अंतरसंबंध
दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में 23 अक्तूबर को हिंदी साहित्य और उसका सिनेमाई रूपांतरण विषय पर मेरा वक्तव्य रहा। आधार वाक्य साहित्य और सिनेमा के इस परस्पर संबंध को हिंदी सिनेमा ने समय-समय पर यथार्थ रूप प्रदान किया है। जो हिंदी कभी भारतीय सिनेमा की प्राण तत्व मानी जाती थी उसका स्थान अब हिंग्लिश ने ले लिया है। जिसका असर सिनेमा और हिंदी भाषा पर भी पड़ा है। ऐसे में आवश्यकता है कि हिंदी सिनेमा को शिखर पर ले जाने वाले साहित्य को पुष्पवित-पल्लवित करने की। अनेक विद्वान वक्ताओं से यादगार भेंट हुई- श्री अजित राय, श्री रविकांत, प्रोफेसर सत्यकेतु सांकृत आदि। महाविद्यालय की प्राचार्या प्रोफेसर रमा मैम का कुशल संयोजन एवं सान्निध्य मिला। विजय कुमार मिश्र, महेंद्र प्रजापति, प्राध्यापक एवं महाविद्यालय के सभी छात्र-छात्राओं, शोधार्थियों का आभार! एक सार्थक विषय पर सराहनीय आयोजन हेतु हार्दिक बधाई!
©डॉ. साकेत सहाय
#साकेत_विचार
Wednesday, October 20, 2021
एक बार फिर अवतार लें प्रभुनाथ राम
अभी दशहरा बीता ! काफी कुछ रावण के समर्थन में लिखा गया। पर राम को समझना इतना आसान नहीं। क्योंकि मर्यादा पुरुषोत्तम सब नहीं बन सकते। इसीलिए ईश्वर कहलाए। राम वास्तव में अपेक्षा, लोभ, स्वार्थ, काम, क्रोध, सांसारिक मोह से परे कर्तव्य और मर्यादा से बंधे पुरषोत्तम है। श्रीराम की गाथा मानव के 'मानव' बनने का इतिहास है। रामगाथा
राम !
आपकी गाथा,
आपकी पताका,
आपका शौर्य,
आपका मान,
हमारा अभिमान
आपका सम्मान
हमारा मान
आपकी मर्यादा
हमारा अभिमान
भारत की शान
राम आपकी गाथा
किताबों से परे
हमारे संस्कार-संस्कृति
राम
हमारे भावों से
आत्मा से
कैसे विलुप्त हो गए?
क्या आपका विलुप्त होना
भारतीयता का
संस्कार का
संस्कृति का
मर्यादा का
नष्ट होना नहीं ?
राम आप तो चक्रवर्ती सम्राट थे।
आपने दशानन को विजित किया
वहीं दशानन जो
संसार का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था
पर अहंकारी था
लोग कहते है कि
आपने दशानन का वध किया
पर मुझे लगता है आपने
उसके अहंकार का शमन किया!
इस कलियुग में आपके एक और अवतार की आवश्यकता है प्रभु!
क्योंकि आपके पुत्र अपनी मूल प्रकृति को भूल चुके है!
#साकेत_विचार
©डॉ. साकेत सहाय
विचारधारा की असहिष्णुता
समय के साथ समाज में उच्च और निम्न की परिभाषा बदलती जा रही है। महानगरों एवं छोटे शहरों में अर्थ प्रधान समाज का ही बोलबाला । फिर जातिगत विभाजन या पंथ समाज भेदगत का हंगामाा किनका उद्देश्य है । दलित कहे जाने वाले समाज में भी अब उच्च और निम्न का भेद है। इस हेतु कौन उत्तरदायी है? बदलाव हो रहे है। पर दिखता नही है। समस्या समाज में उनलोगों को ज्यादा दिखती है जिनकी कथनी और करनी में ज्यादा फर्क है ।
उच्च और निम्न का भेद मैंने भी हर जगह महसूस किया है किसी न किसी रूप में महसूस किया है। जरूरत है विभाजक सोच से दूर रहना। जो समाज मानवीयता की हत्या को सांप्रदायिक कहें और हत्या को हिंदू-मुस्लिम में बांट दे। किसी मुस्लिम की हत्या को देश मेंं लिंचिंग का नाम दे और किसी कुछ और की नृशंसता पर मौन। ऐसे समाज से आशा करना व्यर्थ है। बस अपना कार्य करें । आज कुछ लोगों की दुकानदारी प्रधानमंत्री को गाली देने से चल रही है कुछ की भक्ति करने से।
पर समाज की भलाई स्वस्थ सोच में है मगर सोच कहाँ से लाए! जब सब कुछ उधार का ओढ़ रखा है। सुदूर इसरायल-फिलीस्तीन संघर्ष पर आंसू बहाने वाले कथित मानवाधिकारवादी अपने ही भारत से 74 साल पहले धर्म के नाम पर बंटे पाकिस्तान और भारतीय जवानों के खून से बने बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के नंगे नाच पर क्यों मौन रहते हैं । इनके सहिष्णु विचार कहाँ चले जाते है?
यह विचारणीय है कि अविभाजित भारत की माटी पर हिंदुओं के कत्ले-आम पर इन सहिष्णु सौदागरों का खून क्यों नही खौलता? इनका दोगलापन बाहर आ जाता है। वास्तव में भारत की अवधारणा इनकी दोगली सोच से विकृत हो चली है। जब भारत के अंदर ही पाकिस्तान बनेंगे तो यही होगा। देश की आजादी के लिए शहीद हुए सेनानियों की आत्मा भी रो रही होगी। आज कई शहरों में धर्म विशेष के लिए फिर से अपार्टमेन्ट बन रहे है जिसमें केवल धर्म विशेष को जगह मिलेगी, अब इसे क्या कहेंगे?
यह सब धर्मनिरपेक्ष सरकार की नाक के नीचे हो रहा है। आप कैसा समाज बनाना चाहते हैं? सरकारें तुष्टिकरण करेंगी तो यहीं सब होगा । जरूरत है इस देश में वोट नीति के जहर को समाप्त करने की।
समरस समाज की स्थापना के लिए सभी को आगे आना होगा । जरूरी है जागना। भारत को गांधीजी और कलाम की जरूरत है। जो पंथ से ज्यादा परंपरा और संस्कृति में विश्वास रखें । तभी इस प्रकार की कट्टरता पर रोक लगेगी । शिक्षक और समाज का भी सहयोग चाहिए ।
असतो माँ ज्योतिगर्मय
तमसो माँ सद्गमय!
Monday, October 18, 2021
प्रयागराज हो या इलाहाबाद- एक विमर्श
कुछ लोगों की विरासत इलाहाबाद है प्रयागराज नहीं। होना यह चाहिए था कि दोनो विरासतों का सम्मान हो। पर हुआ उल्टा कि एक पक्ष ने कथित प्रगतिवादी बनने के चक्कर में पुराने सब कुछ को गलत माना और दिखावे की आड़ में सब गलत को सहते रहें। इन बुद्धिजीवियों? की आड़ में एक पक्ष ने अपनी दुकानदारी जमकर चलाई । अब दूसरा पक्ष यही कर रहा है । ऐसे लोग स्वार्थी हैं। अफसोस कहाँ जाए? बस आप अपने आप को सत्य के मार्ग पर रख सकते है। बाकी इनकी नजर में जो इन्होंने किया केवल वही सत्य है। दुनिया जानती है कि तमाम विवादित चीजे जो अंध एकपक्षवाद के समर्थन में थी इन्होंने उनका समर्थन किया।
भारतीय संस्कृति इनकी नजर में 15वीं शताब्दी के बाद प्रारंभ होती है। संस्कृति तो समाहार का दूसरा नाम है और भारतीय संस्कृति तो समवेत स्वर में सभी का सम उद्घोष करती है। फिर आपने दूसरों को कैसे छोड़ दिया। अगर आप बुद्धिजीवी है तो सभी गलत को गलत बोले। सत्य को सत्य । सत्य को दक्षिणपंथ, वामपंथ एवं इंदिरा कांग्रेस या कांग्रेस अथवा अन्य पक्ष से प्रभावित न होने दें। हम पहले नागरिक बनें। न कि नागरिक से ज्यादा किसी पक्ष या पार्टी कैडर की तरह आचरण करते नजर आए। जरा सोचिए। आज भी दोनो क़ायम है, सदा रहेंगे। समावेशी होना ही भारतीयता है।
@डॉ साकेत सहाय
#साकेत_विचार
Sunday, October 17, 2021
जम्मू-कश्मीर में धार्मिक आतंकवाद
आज फिर जम्मू कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद तथा स्लीपर सेल की मदद से भारतीयों की नृशंस हत्या कर दी गयी। आतंकवादियों ने तीन गैर स्थानीय लोगों को गोली मारी जिससे दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गई जबकि एक गंभीर रूप से घायल है। मीडिया के मुताबिक, मूल रूप से बिहार के रहने वाले तीनों लोगों पर आतंकियों ने कुलगाम के वानपोह इलाके में अंधाधुंध फायरिंग की। इस आतंकी घटना में 2 गैर स्थानीय लोगों की मौत हो गई और 1 घायल हो गया। इससे पूर्व भी कश्मीर में बीते सप्ताह सनातन पंथ से जुड़े दो शिक्षकों की हत्या आतंकवादियों ने की थी। यह सब करके आतंकवादी कश्मीर में पुनः भय और आतंक का राज कायम करना चाहते है।
दरअसल कश्मीर समस्या एक प्रायोजित समस्या है, जिसका समाधान मात्र घाव पर मरहम लगाने, विकास अथवा मुस्लिमों की खुशामद करने से नही होगा। इसका एकमात्र उपाय है भारतीय बनकर सोचना। उस जहर को नष्ट करना जिसे औरंगजेब जैसे शासक द्वारा मजहब की आड़ में बोया गया बाद में अंग्रेज़ों ने 'फूट डालो, राज करो की कुनीति के तहत इसे सींचा और इसी को सर सैयद अहमद ने आगे बढ़ाया फिर जिन्ना, इकबाल ने हिंदुस्तान के बंटवारे का बीज बोया। आज भी इसी नीच विरासत पर पाकिस्तान कश्मीर पर अपना हक जताता है, इसी कुत्सित सोच के तहत कुछ लोग कश्मीर में आतंकवाद का समर्थन करते है । जब तक पाकिस्तान और स्लीपर सेल के इस जहर को नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक कश्मीर जलता रहेगा। 370 की समाप्ति एक बेहतर कदम है। पर अब सरकार को इससे आगे बढकर कठोर नीति अपनानी होगी। वहाँ के स्थानीय जिहादियों का विनाश करना होगा। यथाशीघ्र सरकार कश्मीर पर जमीनी हकीकत को समझते हुए कठोर और गंभीर बने, आवश्यकता है मरहम से अधिक कूटनीति से चलने की, पूरा कश्मीर हमारा है इसका मजबूती से उद्घोष करने की ।
पाकिस्तान का जन्म इस देश के लिए बहुत बड़ा चूक था, अब यह जहर फैलता जा रहा है, वोट नीति इस जहर को फैला रही है। सरकार से अनुरोध है कि कश्मीर में स्थानीय पुलिस, प्रशासन को मजबूत करे और भारतीयता की आस्था में विश्वास करने वाले कश्मीरियों को बढ़ावा दे।
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि सरकार को यथाशीघ्र कश्मीर में विदेशी हस्तक्षेप के संबंध में भी नीति बनानी होगी। भारत कश्मीर के मामले में एक बेहद कमजोर लोकतंत्र साबित हो रहा है। कश्मीर के संबंध में भारतीय मीडिया की नीति भी दोयम दर्जे की है।
मीडिया से अनुरोध है कि वह सरकार का समर्थन या विरोध से अधिक थिंक टैंक की तरह कार्य करें और देशहित में सरकार एवं भारतीयता को मजबूत करें। उसे भावनाओं या टीआरपी से अधिक नीतिगत विरोध करने की जरूरत है।
कश्मीर के मामले में भारत कथित मानवाधिकार संगठनों एवं चीन, अमेरिका और यूरोपीय देशों की विरोधी नीतियों से भी प्रभावित है। जिन्हें मूल्यों से कोई मतलब नही है उनका एकमात्र एजेंडा है- भारत विरोध।
यह प्रसन्नता का विषय है कि भारत अंतरराष्ट्रीय राजनय एवं वैश्विक मंचों पर अपने बल पर प्रभावी हो रहा है। इस प्रभावी बढ़त का इस्तेमाल कर भारत इस धार्मिक आतंकवाद के जहर का विनाश करें । इसके लिए कश्मीर में समावेशी विकास के साथ ही उसे घर और बाहर में पाक-चीन समर्थित विचारधारा से भी निपटना होगा। अन्यथा यह जहर पाक, बांग्लादेश से आगे देश को कमजोर करेगा। कश्मीर धार्मिक आतंकवाद से जूझ रहा है और इसका समाधान नीति, नियम, प्रशासन, कूटनीति, संतुलन और कठोरता से ही करना होगा।
#कश्मीर
#धार्मिक_आतंकवाद
#साकेत_विचार
Thursday, October 14, 2021
आलेख- शिक्षा में भाषा का प्रश्न
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास(एनबीटी), भारत सरकार से प्रकाशित बहुप्रतिष्ठित पत्रिका "पुस्तक संस्कृति" के नवीन अंक में "शिक्षा में भाषा का प्रश्न" विषय पर मेरा शोध आलेख प्रकाशित हुआ है।
Monday, October 11, 2021
‘अमिताभ’ होने का अर्थ
हिंदी फिल्मों के महान अभिनेता अमिताभ बच्चन आज 82 वर्ष के हो गए। कभी अमिताभ बच्चन के पिता, हिंदी के प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन ने छायावाद के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सुमित्रानंदन पंत के सुझाव पर ही अपने पुत्र का नाम ‘अमिताभ’ रखा, जिसका अर्थ है कभी न मिटने वाली आभा। आज हम सभी इस आभा से परिचित हैं। अपने जीवंत अभिनय, सरल, सहज भाषा, व्यवहार के कारण सदी के महानायक के रुप में ख्यात अमिताभ बच्चन बीते आधी सदी से भी अधिक समय से भारतीय सिनेमा को सशक्तता प्रदान कर रहे है। जब बच्चन साहब को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, उसी समय से जुड़ा एक उद्धरण आप सभी से साझा करता हूँ। वे कहते हैं 'मैंने स्वयं से पूछा कि क्या दादासाहेब फाल्के पुरस्कार फिल्मी जीवन की सक्रियता से सेवानिवृत्ति का संकेत है तो यह गलत है मुझे अभी और बेहतर करना है।' -अमिताभ बच्चन
उनकी यही जिजीविषा किसी नायक को सदैव कुछ अप्रतिम करने की प्रेरणा देती है। आप सभी याद करें दिनांक 29.12.2019 का दिन, जब उन्हें भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त हुआ, जो अपने क्षेत्र का सर्वोच्च पुरस्कार माना जाता है, पर इसकी प्राप्ति के बाद भी उनमें अजीब-सा आत्मसंतोष का भाव दिखा। साथ ही बेहतर करने का उत्साह भी दिखा। यह बेहतर करने का उत्साह ही अमिताभ को 'अमिताभ' बनाता है। उसके बाद भी वे लगातार सक्रिय है। कोरोना काल में भी लगातार सक्रिय रहे और अभी भी फ़िल्में कर रहे हैं । कौन बनेगा करोड़पति के सेट पर उनका मनमोहन अंदाज तो निराला है । संगम नगरी, प्रयागराज में जन्मे अमिताभ बच्चन के पिता, डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन ने आरंभ में भले इनका नाम इंकलाब रखा था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग किए गए प्रेरक वाक्यांश 'इंकलाब जिंदाबाद' से लिया गया था। जब पिता हरिवंश राय ने इनका नाम ‘इंकलाब’ रखा होगा तो पता नहीं क्या सोचा होगा ? पर एक बात तो जरूर कहा जा सकता है कि 'यथा पिता तथा पुत्र'।
अमिताभ बच्चन ने अपने कार्यों से फिल्मी दुनिया के इतिहास में एक इंकलाबी पड़ाव का अध्याय तो जरूर लिख दिया है। जहां तक पहुंचने का ख्वाब विरले ही देख पाएंगे। यह भी सच है प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा दिए नाम ‘अमिताभ’ के अनुरूप वे भारतीय फिल्म इतिहास के ‘अमिताभ’ साबित हुए। यह बहुत कम इंसान के सौभाग्य में होता है जब वह अपने कार्यों से अपने नाम की सार्थकता को उजागर करें। ‘अमिताभ’ बनना बहुत मुश्किल होता है। सदियां लग जाती है, शायद यहीं कारण है सिने प्रेमियों ने इन्हें 'महानायक' का दर्जा दिया। अभिनय के प्रति इनकी निष्ठा, लगन, इनकी सक्रियता, रचनात्मकता, निरंतरता इन्हें अरबों में एक बनाती है। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विनम्रता है कि वे अपनी हर सफलता में ईश्वर कृपा, माता-पिता का आशीर्वाद, अपने निर्माता-निर्देशकों एवं सह-कलाकारों के योगदान को जरूर गिनाते है और सबसे अधिक भारत की जनता का स्नेह और निष्ठापूर्ण प्रेम। अमिताभ बच्चन का राज अपनी सहज अभिनयशीलता एवं दमदार संवाद अदायगी से करोड़ों लोगों के दिलों पर बरसों से कायम है।
भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे प्रमुख और दिग्गज व्यक्तित्वों में से एक, जिन्हें कभी उनके रूप और आवाज़ के लिए ठुकराया गया वहीं आज भारतीय फ़िल्म उद्योग के बेताज बादशाह हैं । अमिताभ की कहानी किसी भी आम आदमी की सरीखा ही है क्योंकि हमेशा से आम से खास बनने का सफ़र कभी भी असफलताओं से खाली नहीं रहा । पर, उन्होंने उन्होंने इन असफलताओं का जिस तरह से सामना किया, उसी का परिणाम है कि वे आज एक सफल एवं सम्मानित सितारा हैं ।
मनोरंजन जगत में अमिताभ का प्रवेश आकाशवाणी -ऑल इंडिया रेडियो (AIR) में नौकरी पाने की एक असफल कोशिश से प्रारंभ हुई , जहाँ 1960 के दशक में दिग्गज अमीन सयानी अपने प्रसिद्ध कार्यक्रम 'बिनाका गीतमाला' के साथ रेडियो प्रस्तोता के रूप में छाए हुए थे । प्रारंभिक दिनों में, अमिताभ रेडियो प्रस्तोता बनने की इच्छा रखते थे और उन्होंने आकाशवाणी में नौकरी के लिए ऑडिशन देने की कई कोशिशें कीं। हालाँकि, उन दिनों अमीन सयानी इतने व्यस्त थे कि इस 'दुबले-पतले आदमी' के लिए वे समय नहीं निकाल पाए, जो लगातार एक अवसर की खोज में था।
अमिताभ अपनी अस्वीकृति को याद करते हुए कहते हैं "शायद मेरी आवाज़ उस चीज़ के लिए उपयुक्त नहीं थी जिसकी उन्हें तलाश थी।
एक अभिनेता के रूप में अपने शुरुआती सफ़र के बारे में चर्चा के दौरान एक साक्षात्कार में अमिताभ मुंबई में अपने शुरुआती संघर्ष के दिनों को याद करते हुए "काफी अस्वीकृतियाँ हुईं। मैं जहाँ भी गया, मुझे नौकरी नहीं मिली। या तो मैं पर्याप्त योग्य नहीं था या मैं बहुत शर्मीला था या साक्षात्कार के दौरान मेरी ज़बान बहुत लड़खड़ा जाती थी और वहाँ ज़्यादा योग्य लोग नौकरी पा रहे थे।"
विडंबना यह है कि अमिताभ बच्चन ने मनोरंजन उद्योग में पहला कदम एक अभिनेता के रूप में नहीं, बल्कि 1969 में फिल्म "भुवन शोम" के लिए एक वॉयस-ओवर कलाकार के रूप में रखा था। मृणाल सेन द्वारा निर्देशित यह फिल्म एक छोटे बजट की फिल्म थी, जिसने भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की और सेन को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई।
जया बच्चन, जो बाद में अमिताभ की पत्नी बनीं, ने फिल्म में अमिताभ के काम के बारे में मृणाल सेन के शुरुआती आकलन को याद करते हुए कहा, "उनकी आवाज़ ठीक है, लेकिन वे अभिनेता के रूप में कभी सफल नहीं हो पाएँगे।"
इतिहास ने इन सभी आकलनों को असत्य सिद्ध किया ।जिस व्यक्ति के जन्म समय देखने पर ज्योतिषियों ने कहा कि चार -चार ग्रह अष्टमभावस्थ हैं किन्तु अंशात्मकाधिक्य से चार ग्रह नवमभावस्थ हो गए हों , उस व्यक्ति की जीजिविषा व व्यवहारकुशलता पर तो स्वयम् जगन्निर्माता भी रीझ जाय उस व्यक्ति के लिए कुछ कह - लिख पाना उस व्यक्ति के लिए पूर्णतः न्याय नही।
आज अमिताभ बच्चन न केवल एक अभिनेता के रूप में बल्कि भारतीय सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण सितारों में से एक हैं और उनकी विशिष्ट आवाज़ ने उनकी सफलता में एक अप्रतिम मानक स्थापित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है ।
बच्चन साहब की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्में हैं- अभिमान, मिली, शोले, दीवार, मैं आजाद हूँ, जंजीर, शक्ति, आनंद, सिलसिला, ब्लैक,बागबां, पा तथा पिंक आदि। आप स्वस्थ एवं अभिनय के फलक पर निरंतर सक्रिय रहे। ईश्वर आपको दीर्घायु दें । परमपिता से यही कामना है ।
महाकवि हरिवंश राय बच्चन के सुपुत्र महानायक अमिताभ बच्चन ने स्वयं भी कविताएं लिखते हैं। उनके जन्मदिन के अवसर पर उनकी कुछ कविताएं जिन्हें अमिताभ अपने ट्विटर अकाउंट पर लोगों के साथ साझा करते हैं -
जी हाँ हुज़ूर मैं काम करता हूँ
जी हाँ हुज़ूर मैं काम करता हूँ
मैं सुबह शाम काम करता हूँ
मैं रात बा रात काम करता हूँ
मैं रातों रात काम करता हूँ
केवल एक दिवस देते हो कवि
केवल एक दिवस देते हो कवि, कविता के लिए,
आश्चर्य होता होगा सभी कवि दिग्गजों के लिए;
जानते नहीं हो तुम विश्व के आचरण को जीव जीवनी,
प्रति क्षण कविता होती है सर्व प्रिये !जी हाँ जनाब मैं अस्पताल जाता हूँ
जी हाँ जनाब मैं अस्पताल जाता हूँ
बचपन से ही इस प्रतिकिया को जीवित रखता हूँ ,
वहीं तो हुई थी मेरी प्रथम पैदाइशी चीत कार
वहीं तो हुआ था अविरल जीवन का मेरा स्वीकार
इस पवित्र स्थल का अभिनंदन करता हूँ मैं
जहाँ इस्वर बनाई प्रतिमा की जाँच होती है तय
धन्य है वे ,
धन्य हैं वे
जिन्हें आत्मा को जीवित रखने का सौभाग्य मिला
भाग्य शाली हैं वे जिन्हें , उन्हें सौभाग्य देने का सौभाग्य ना मिला
बनी रहे ये प्रतिक्रिया अनंत जन जात को
ना देखें ये कभी अस्वस्थता के चंडाल को
पहुँच गया आज रात्रि को लीलावती के प्रांगण मेंदेव समान दिव्यों के दर्शन करने के लिए मैं
विस्तार से देवी देवों से परिचय हुआ
उनकी वचन वाणी से आश्रय मिला
निकला जब चौ पहियों के वाहन में बाहर ,
'रास्ता रोको' का ऐलान किया पत्र मंडली ने जर्जर
चाका चौंद कर देने वाले हथियार बरसाते हैं ये
मानो सीमा पार कर देने का दंड देना चाहते हैं वे
समझ आता है मुझे इनका व्यवहार ;
समझ आता है मुझे, इनका व्याहारप्रत्येक छवि वार है ये उनका व्यवसाय आधार ,
बाधा ना डालूँगा उनकी नित्य क्रिया पर कभी
प्रार्थना है बस इतनी उनसे मगर , सभी
नेत्र हीन कर डालोगे तुम हमारी दिशा दृष्टि को
यदि यूँ अकिंचन चलाते रहोगे अपने अवज़ार को
हमारी रक्षा का है बस भैया, एक ही उपाय ,
इस बुनी हुई प्रमस्तिष्क साया रूपी कवच के सिवाय
(अमिताभ बच्चन के ट्विटर अकाउंट से साभार)आज के दौर में अमिताभ जी के जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, उनकी कार्य निष्ठा एक संदेश है। जो बहुत बड़ी आबादी को प्रेरित करती है । आज की जेन जेड को भी उनसे कुछ सीखना चाहिए । अमिताभ बच्चन अपनी भाषा, संस्कृति एवं लिपि के प्रति बेहद सजग है।‘अमिताभ' होने का यही अर्थ है ।
©डॉ. साकेत सहाय
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आलेख में प्रस्तुत सूचनाएँ पब्लिक डोमेन में विद्यामान विभिन्न स्रोतों से लिए गए हैं ।
Friday, October 8, 2021
इंग्लैंड में अंग्रेजी -भारत में अंग्रेजी का पागलपन
इंग्लैंड में अँग्रेजी कैसे लागू की गयी ?
-डॉ. गणपति चंद्र गुप्त (भू. पू. कुलपति,कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय)
संभवत: भारत में बहुत थोड़े लोग यह जानते हैं कि जिस प्रकार आज हम विदेशी भाषा – अँग्रेजी के प्रभाव से आक्रांत हो कर स्वदेशी भाषाओं की उपेक्षा कर रहे हैं, उसी प्रकार किसी समय इंग्लैंड भी विदेशी भाषा – फ्रेंच के प्रभाव से इतना अभिभूत था कि न केवल सारा सरकारी काम फ्रेंच में होता था, बल्कि उच्च वर्ग के लोग अँग्रेजी में बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझते थे। किंतु जब आगे चल कर फ्रेंच के स्थान पर अँग्रेजी लागू की गयी, तो उसका भारी विरोध हुआ और उसके विपक्ष में वे सारे तर्क दिये गये, जो आज हमारे यहाँ हिंदी के विरोध में दिये जा रहे हैं। फिर भी कुछ राष्ट्रभाषा – प्रेमी अंग्रेजों ने विभिन्न प्रकार के उपायों से किस प्रकार अँग्रेजी का मार्ग प्रशस्त किया, इसकी कहानी न केवल अपने – आप में रोचक है, बल्कि हमारी आज की हिंदी – विरोधी स्थिति के निराकरण के लिए भी उपयुक्त मार्ग सुझा सकती है। इंग्लैंड में अँग्रेजी का पराभव क्यों ? वैसे अँग्रेजी इंग्लैंड की अत्यंत प्रचीन भाषा रही है, यहाँ तक कि जब इस देश का नाम ‘इंग्लैंड’ के रूप में विख्यात नहीं हुआ था, तब भी ‘इंग्लिश’ भाषा का अस्तित्व था। वस्तुत: ‘इंग्लिश’ नाम ‘इंग्लैंड’ के आधार पर नहीं पड़ा, इंग्लिश भाषा के प्रचलन के कारण ही इस भूभाग को इंग्लैंड की संज्ञा प्राप्त हुई तथा १०वीं शताब्दी तक यह समूचे राष्ट्र की बहुमूल्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। किंतु ११वीं शती के उत्तरार्द्ध में एकाएक ऐसी घटना घटित हुई, जिसके कारण इंग्लैंड में ही अँग्रेजी का सूर्य अस्त होने लगा। बात यह हुई कि १०६६ में फ्रांस के उत्तरी भाग – नॉरमैंडी के निवासी नॉर्मन लोगों का इंग्लैंड पर आधिपत्य हो गया। उनका नायक ड्यूक ऑफ विलियम, इंग्लैंड के तत्कालीन शासक हेराल्डको युद्ध में पराजित करके स्वयं सिंहासनरूढ हो गया और तभी से इंग्लैंड पर फ्रेंच भाषा एवं फ्रांसीसी संस्कृति के प्रभाव की अभिवृद्धि होने लगी, क्योंकि स्वयं नार्मन्स की भाषा और संस्कृति पूर्णत: फ्रेंच थी। जब शासक वर्ग की भाषा फ्रेंच हो गयी, तो स्वाभाविकत: न केवल सारा राज – काज फ्रेंच में होने लगा, वरन शिक्षा, धर्म एवं समाज में भी अँग्रेजी के स्थान पर फ्रेंच प्रतिष्ठित होने लगी। उच्च वर्ग के जो लोग सरकारी पदों के अभिलाषी थे या जो शासक वर्ग से मेल जोल बढ़ा कर अपने प्रभाव में अभिवृद्धि करना चाहते थे, वे बड़ी तेज गति से फ्रेंच सीखने लगे तथा कुछ ही वर्षों में यह स्थिति आ गयी कि धनिकों, सामंतों, शिक्षकों, पादरियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों आदि सबने फ्रेंच को ही अपना लिया और अँग्रेजी केवल निम्न वर्ग के अशिक्षित लोगों, किसानों और मजदूरों की भाषा रह गयी। अपने आपको शिक्षित कहने या कहलानेवाले लोग केवल फ्रेंच का ही प्रयोग करने लगे और अँग्रेजी जानते हुए भी अँग्रेजी बोलना अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। यह दूसरी बात है कि कभी – कभी उन्हें अपने अनपढ़ नौकरों या मजदूरों से बात करते समय अँग्रेजी जैसी ‘हेय’ भाषा में भी बोलने को विवश होना पड़ता था। आगे चल कर इंग्लैंड नार्मन्स के अधिपत्य से तो मुक्त हो गया, किंतु उनकी भाषा के प्रभाव से फिर भी मुक्त नहीं हो पाया। इसका कारण यह था कि जिन अंग्रेज राजाओं का अब इंग्लैंड में शासन था, वे स्वयं फ्रेंच के प्रभाव से अभिभूत थे। इतना ही नहीं उनमें से कुछ का ननिहाल फ्रांस में था, तो किसी की ससुराल पेरिस में थी। अनेक राजकुमारों और सामंतों ने बडे यत्न से पेरिस में रहकर फ्रेंच भाषा सीखी थी, जिसे बोल कर वे अपने - आपको उन लोगों की तुलना में अत्यंत ‘सुपीरियर’ समझते थे, जो बेचारे केवल अँग्रेजी ही बोल सकते थे। दूसरे, उस समय फ्रेंच भाषा और संस्कृति सारे यूरोप में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। फिर अँग्रेजी की तुलना में फ्रेंच का साहित्य इतना समृद्ध था कि उसे विश्व – ज्ञान की खिड़की ही नहीं,‘दरवाजा’ (गेट) कहा जाता था। ऐसी स्थिति में भले ही इंग्लैंड स्वतंत्र हो गया हो, पर वहाँ अँग्रेजी की प्रतिष्ठा कैसे संभव थी? इंग्लैंड में फ्रेंच भाषा के अधिपत्य को बनाए रखने में कुछ राजाओं के व्यक्तिगत कारणों ने भी बड़ा योग दिया। उदाहरण के लिए हेनरी तृतीय (१२१६ – १२७२) का विवाह फ्रांस की राजकुमारी से हुआ था, जो अपने साथ भारी दान – दहेज लाने के अलावा अपने आठ मामाओं, सैकडों रिश्तेदारों और उनके सेवकों की पल्टन भी ले कर आयी थी, जिन्हें उच्च पदों पर प्रतिष्ठित करना हेनरी के लिए आवश्यक था। भला ऐसा न करके वह अपनी नवविवाहिता दुल्हन का मन कैसे दुखा सकता था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक बार पुन: सभी सरकारी महकमों एवं कार्यालयों पर फ्रेंच का पूरी तरह अधिकार हो गया। जो लोग फ्रेंच में बोल सकते थे, लिख सकते थे या उस भाषा में लिखवा सकते थे, उन्हीं की सरकार में सुनवाई हो सकती थी। ऐसी स्थिति में अँग्रेजी पढ़ना - पढ़ाना बेकार था। अस्तु सामान्य पाठशालाओं में भी अँग्रेजी की अपेक्षा फ्रेंच की ही अधिक पढ़ाई होती थी। किंतु १४वीं शती में इन स्थितियों मे परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ हुई तथा धीरे – धीरे अँग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। इसके कई कारण थे – एक तो यह कि १३३७ से १४५३ तक इंग्लैंड और फ्रांस के बीच युद्ध चला, जिसे इतिहासकारों ने ‘शतवर्षीय युद्ध’ की संज्ञा दी है। इस युद्ध के फलस्वरूप अँग्रेजी में फ्रेंच जाति, फ्रेंच भाषा और फ्रेंच संस्कृति के किरूद्ध विद्रोह की भावना पनपने लगी। अँग्रेजी का पुन: अभ्युदय अब फ्रेंच को शत्रु जाति की भाषा के रूप में देखा जाने लगा। दूसरे इसी शताब्दी में निम्न वर्ग एवं मध्यम वर्ग में नवजागरण की लहर आयी। ये लोग अपने स्वत्व एवं अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे। १३८१ में मजदूरों ने अधिक वेतन के लिए आंदोलन किया, जिसके फलस्वरूप उनकी स्थिति में सुधार हुआ। देश के विभिन्न संगठनों ने भी अपनी अन्य माँगों के साथ – साथ, स्वभाषा अँग्रेजी को भी मान्यता देने की माँग की। दूसरी ओर मध्यम वर्ग के वे लोग भी, जो अपने बच्चों को पेरिस नहीं भेज पाते थे तथा गांव के स्कूलों में ही पढ़ा कर संतुष्ट हो जाते थे, अँग्रेजी के समर्थक बन गये। उच्च वर्ग में भी अब शुद्ध फ्रेंच बोलनेवाले बहुत कम रह गये। सही बात तो यह है कि जिस प्रकार हमारे यहाँ ‘लंडन – रिटर्डं’ लोग अँग्रेजी के बड़े – बड़े प्रोफेसरों पर भी अपने अँग्रेजी - ज्ञान एवं उसके उच्चारण की धाक जमाते रहे हैं, वैसे ही लंदन में कुछ ‘पेरिस – रिटर्डं’ लोगों की धाक थी। पेरिसनुमा फ्रेंच बोलनेवाले, अपने ही देश – इंग्लैंड के उन लोगों की खिल्ली उड़ाते थे, जो स्थानीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ कर टूटी – फूटी या अशुद्ध फ्रेंच बोलते थे। धीरे – धीरे अँग्रेजी के पक्ष में लोकमत जागृत हुआ और १३६२ में पार्लियामेंट में एक अधिनियम ‘स्टैचयूट ऑफ प्लीडिंग’ (अधिवक्ताओं का अधिनियम) पारित हुआ, जिससे इंग्लैंड के न्यायालयों में भी अँग्रेजी का प्रवेश संभव हो गया। हालाँकि इस अधिनियम का भी उस समय के बड़े – बड़े न्यायधीशों तथा अधिवक्ताओं ने भारी विरोध किया, क्योंकि अँग्रेजी में न्याय और कानून संबंधी पुस्तकों का सर्वथा अभाव था, फिर भी तर्क दिया गया कि ऐसी स्थिति में कैसे बहस की जा सकेगी और कैसे न्याय सुनाया जायेगा। एक देशी भाषा के लिए न्याय की ह्त्या की जा रही है। अत: वैधानिक दृष्ति से भले ही अँग्रेजी को मान्यता मिल गयी। किंतु कचहरियों का अधिकांश कार्य लंबे समय तक फ्रेंच भाषा में ही चलता रहा। १४वीं शती में न्यायालयों के अतिरिक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी अँग्रेजी का पठन – पाठन प्रचलित हुआ। ऑक्सफोर्ड के कुछ अध्यापकों ने भी लैटिन के अतिरिक्त अँग्रेजी की शिक्षा देने की व्यवस्था की। अँग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा - याचना यद्यपि इस प्रकार इंग्लैंड के जन साधारण में अँग्रेजी का प्रचार – प्रसार बढ़ रहा था,फिर भी उच्च वर्ग के विद्वानों एवं विद्वत्ता की भाषा वह अभी तक नहीं बन पायी थी। फ्रेंच का प्रभुत्व थोड़ा कम हुआ, तो उसका स्थान लैटिन और ग्रीक ने ले लिया। १५वीं शती के पुनर्जागरण युग में ये शास्त्रीय भाषाएँ समस्त यूरोप में ज्ञान – विज्ञान की भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थीं। ऐसी स्थिति में अँग्रेजी में लिखने वाले लोग प्राय: हेय दृष्टि से देखे जाते थे। इसका प्रमाण इस युग की अनेक रचनाओं की भूमिका से मिलता है, जहाँ उसके रचयिता ने अँग्रेजी में लिखने के लिए अपनी सफाई दी है। उदाहरण के लिए, १४वीं शती के आरंभ में ही एक अँग्रेजी पुस्तक के रचयिता ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है– ‘भले ही भाषा की दृष्टि से मैं हीन समझा जाऊं, फिर भी मेरे मन में जो कुछ है, उसे अवश्य बता देना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि अगर अँग्रेजी में लिखा जाये, तो उसे सब लोग समझ सकते हैं। सही बात तो यह है कि उन क्लर्कों (सरकारी कर्मचारियों) की अपेक्षा, जो फ्रेंच जानते हैं, उस बेचारे जन साधारण को दिव्य ज्ञान की अधिक आवश्यकता है, जो केवल अँग्रेजी ही जानता है, अत: मैं सोचता हूँ कि यदि अँग्रेजी में कोई अच्छी चीज लिखी जाये, तो यह एक पुण्य का कार्य होगा।’ इसी प्रकार एश्कम नामक लेखक ने अपनी पुस्तक टॉक्सो फिलस की भूमिका में स्पष्ट किया है कि उसके लिए ग्रीक या लैटिन में लिखना अधिक आसान था, फिर भी उसने सर्व साधारण के हित को ध्यान में रख कर ही अँग्रेजी में लिखने का दुस्साहस किया है, पर इससे भी महत्वपूर्ण वक्तव्य १६वीं शती के एक अन्य लेखक इलियट का है, जिसने अपनी चिकित्सा–शास्त्र की पुस्तक कसल ऑफ हेल्थ अर्थात ‘स्वास्थ्य का कवच’ की भूमिका में अँग्रेजी में लिखने के लिए क्षमा– याचना करते हुए लिखा है– ‘यदि चिकित्सक लोग मुझ पर इस लिए कुपित होते हैं कि मैंने अँग्रेजी में क्यों लिखा, तो मैं उन्हें बता देना चाहता हूँ कि अगर ग्रीक लोग ग्रीक में लिखते हैं, रोमन लोग स्वभाषा लैटिन में, तो फिर यदि हम लोग अपनी भाषा अँग्रेजी में लिखें, तो इसमें क्या बुराई है?’ इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि किस प्रकार १५वीं–१६वीं शती में अँग्रेजी में ज्ञान–विज्ञान की पुस्तकें लिखना विद्वानों की दृष्टि में हेय समझा जाता था तथा जो ऐसा करने का प्रयास करते थे, वे अपनी सफाई में कोई – न – कोई तर्क देने को विवश होते थे। इसकी तुलना हमारे मध्यकालीन हिंदी के आचार्य केशवदास की मनस्थिति से की जा सकती है, जिन्होंने अपनी एक रचना में लिखा था – ‘हाय, जिस कुल के दास भी भाषा (हिंदी) बोलना नहीं जानते (अर्थात् वे भी संस्कृत में बोलते हैं), उसी कुल में मेरे-जैसा मतिमंद कवि हुआ, जो भाषा ( हिंदी ) में काव्य – रचना करता है ।’ वस्तुत: जब कोई राष्ट्र विदेशी संस्कृति एवं भाषा से आक्रांत हो जाता है तो उस स्थिति में स्वदेशी भाषा एवं संस्कृति के उन्नायकों में आत्मलघुता या हीनता की भावना का आ जाना स्वाभाविक है। प्रेयसियों के प्रेम – पत्रों की दुहाई ! यद्यपि १६वीं शती में अनेक विद्वान अँग्रेजी को अपनाने लगे थे। फिर भी अँग्रेजी और विदेशी भाषाओं का विवाद शांत नहीं हुआ था। अब भी उच्च वर्ग में ऐसे अनेक लोग थे, जो युक्तियों व तर्कों से इंग्लैंड में फ्रेंच का वर्चस्व बनाये रखने के हिमायती थे, जैसे जॉन बर्ट्न ने फ्रेंच को प्रचलित रखने के पक्ष में तीन तर्क दिये। उनके अनुसार, एक तो न केवल अपने देश में बल्कि आसपास के पड़ोसी राज्यों से संपर्क बनाए रखने के लिए फ्रेंच आवश्यक है। दूसरे, ज्ञान-विज्ञान और कानून की सारी पुस्तकें फ्रेंच में ही हैं। तीसरे, इंग्लैंड की सभी सुशिक्षित महिलाएँ एवं भद्रजन अपने प्रेम – पत्रों का आदान – प्रदान फ्रेंच में ही करते हैं। यह तीसरा तर्क सचमुच रोचक है, जो कुछ लोगों को हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। कई बार ऐसी भी स्थितियाँ होती हैं, जबकि वर्ग-विशेष की रूचि या अनुकंपा के कारण कोई भाषा अपना अस्तित्व बचाये रखती है। उदाहरण के लिए पंजाब में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व पुरूष वर्ग की भाषा प्राय: उर्दू थी, जबकि महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा हिंदी में होती थी। इसलिए कहा जाता है कि पुरूष वर्ग को हिंदी केवल इसलिए पढ़नी पड़ती थी कि वे अपनी पत्नियों तथा माताओं और बहनों के साथ पत्राचार कर सकें, इसलिए पंजाब में हिंदी की परंपरा को जीवित रखने का श्रेय वहाँ की महिलाओं को दिया जाता है। खैर, इन सारी स्थितियों के होते हुए भी राष्ट्रभाषा-प्रेमी अँग्रेजी ने हिम्मत नहीं हारी, वे स्वीकार करते थे कि फ्रेंच, लैटिन और ग्रीक की तुलना में अँग्रेजी भाषा और उसका साहित्य नगण्य है, तुच्छ है। फिर भी अंतत: वह उनकी अपनी भाषा है, यदि दूसरों की माताएँ अधिक सुंदर और संपन्न हों, तो क्या हम अपनी माँ को केवल इसलिए ठुकरा देंगे कि वह उनकी तुलना में असुंदर और अकिंचन है! कुछ ऐसी ही शब्दावली में अँग्रेजी भाषा के कट्टर समर्थक रिचर्ड मुल्कास्टर ने १५८२ में लिखा -- आई लव रोम, बट लंडन बेटर आई फेवर इटैलिक, बट इंग्लैंड मोर, आई ऑनर लैटिन, बट आई वर्शिप द इंग्लिश, अर्थात ‘मैं रोम को प्यार करता हूँ, पर लंदन को उससे भी अधिक, मैं इटली का समर्थक हूँ पर इंग्लैंड़ का उससे भी अधिक समर्थन करता हूँ। और मैं लैटिन का सम्मान करता हूँ, पर अँग्रेजी की पूजा करता हूँ।’ कहने का तात्पर्य यह है कि अँग्रेजी के पक्षपातियों ने अपने आंदोलन को तर्क और विवाद के बल पर नहीं, बल्कि भावना के बल पर सफल बनाया। उन्होंने अपने देशवासियों के मस्तिष्क को नहीं, हृदय को झकझोर कर उनके स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम को उद्वेलित किया। इसी का परिणाम था कि इस शती के अंत तक उच्च वर्ग का भी दृष्टिकोण अँग्रेजी के प्रति पर्याप्त अनुकूल हो गया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक ओर तो रिचर्ड कैर्यू – जैसे विद्वान ने १५९५ में अँग्रेजी भाषा की उच्चता पर लेख लिख कर उसका जोरदार समर्थन किया, तो दूसरी ओर सर फिलिप सिडनी जैसे विद्वान ने घोषित किया : ‘यदि भाषा का लक्ष्य अपने हृदय और मस्तिष्क की कोमल कल्पनाओं को सुंदर एवं मधुर शब्दावली में व्यक्त करना है, तो निश्चय ही अँग्रेजी भाषा भी इस लक्ष्य की पूर्ति की दृष्टि से उतनी ही सक्षम है, जितनी कि विश्व की अन्य भाषाएँ हैं।’ १७वीं शती के आरंभ तक इंग्लैंड में अँग्रेजी के विरोध का वातावरण तो शांत हो गया तथा आम धारणा बन गयी कि स्वदेशी भाषा को हर कीमत पर अपनाना है, किंतु जब इसे व्यवहारिक रूप दिया जाने लगा, तो सबसे बडी कठिनाई शब्दावली की आयी। अँग्रेजी को समृद्ध करने के लिए ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथ कैसे लिखे जा सकते थे, जबकि तद्विषयक शब्दावली का उसमें सर्वथा अभाव था? ज्ञान-विज्ञान की बात तो दूर, उस समय अँग्रेजी, शब्द - संपदा की दृष्टि से इतनी दरिद्र थी कि प्रशासन, कला, समाज, धर्म और दैनिक जीवन से संबंधित सामान्य शब्द भी उसके पास अपने नहीं थे, फ्रेंच या अन्य भाषाओं से उधार लिये हुए थे। उदाहरण के लिए, प्रशासनिक शब्दावली में अँग्रेजी के पास अपने केवल दो शब्द थे--- किंग (राजा) और क्वीन (रानी)। शेष सारे शब्द फ्रेंच से आयातित थे --- गवर्नमेंट, क्राउन, स्टेट, एँपायर, रॉयल, कोर्ट, काउंसिल, पार्लियामेंट, असेंबली, स्टैच्यूट, वॉर्डन, मेयर, प्रिंस, प्रिंसेस, ड्यूक, मिनिस्टर, मैडम आदि। इसी प्रकार न्यायालय और कानून – संबंधी सारी शब्दावली भी प्राय: फ्रेंच से आयातित हैं, जैसे --- जस्टिस, क्राइम, बार, एडवोकेट, जज, प्ली, सूट, पेटिशन, कंप्लेंट, समन, एविडेंस, प्रूफ, प्लीड, वारंट, प्रॉपर्टी, इस्टेट – ये मोटे शब्द भी अपने अँग्रेजी के नहीं हैं। फिर कला और साहित्य संबंधी अधिकांश शब्द भी अँग्रेजी के पास नहीं थे, अत: आर्ट, पेंटिग, म्यूजिक, ब्यूटी, कलर, फिगर, इमेज, पोएट, प्रोज, रोमांस, स्टोरी, ट्रेजेडी, प्रिफेस, टाइटिल, चैपटर, पेपर जैसे शब्द भी फ्रेंच से लेने पड़े। इतना ही नहीं, एक इतिहासकार ने तो यहाँ तक कहा है कि फ्रेंच शब्दावली के अभाव में कोई भी अंग्रेज अपने रहन – सहन से ले कर खान-पान तक की भी कोई क्रिया संपन्न नहीं कर सकता था, क्योंकि उसे ड्रेस, फैशन, गारमेंट, कॉलर, पेटिकोट, बटन, बूट, ब्लू, ब्राउन, डिनर, सफर, टेस्ट, फिश, बीफ, मटन, टोस्ट, बिस्किट, क्रीम, शुगर, ग्रेप, ऑरेंज, लेमन, चेरी जैसे शब्दों के लिए भी फ्रेंच पर निर्भर करना पड़ता है। ए हिस्ट्री ऑफ दी इंग्लिश लैंग्वेज के लेखक अल्बर्ट सी. बाफ के अनुसार, अब तक लगभग दस हजार शब्द तो अकेली फ्रेंच से ही अँग्रेजी में अपना लिये गये थे, किंतु आगे चल कर विश्व की अन्य भाषाओं से भी हजारों शब्द ग्रहण किये गये। उनके मतानुसार, ‘यह कहना अत्युक्ति न होगी कि अँग्रेजी में इस समय लगभग पचास से भी अधिक भाषाओं से हजारों शब्द ग्रहण किये जा चुके थे, जिनमें अधिकांश फ्रेंच, लैटिन, ग्रीक, इटैलियन और स्पैनिश से थे।’ भाषा की क्लिष्टता का शोर जब विभिन्न भाषाओं से भारी संख्या में ऐसे शब्दों को स्वीकार किया गया, जो पहले से अँग्रेजी में प्रचलित नहीं थे, तो यह स्वाभाविक था कि जनसामान्य के लिए वह अत्यंत दुर्बोध एवं क्लिष्ट हो गयी। इसके अतिरिक्त विदेशी शब्दों के अत्यधिक मिश्रण से स्वभाषा की शुद्धता का भी प्रश्न उपस्थित हुआ, अत: विद्वानों के एक वर्ग ने शुद्धता एवं क्लिष्टता के दृष्टिकोण से विदेशी शब्दों के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा। किंतु इसके प्रत्युतर में अनेक विद्वानों ने कठिन शब्दों के शब्दकोष तैयार करके क्लिष्टता की समस्या को हल करने की चेष्टा की। इस प्रकार के प्रयासों में एन. बैली की यूनिवर्सल एटिमोलाजिकल इंग्लिश डिक्शनरी (१७१९), रॉबर्ट कॉडरी की ‘ द टेबल अल्फाबेटिकल ऑफ हाई वर्ड्स ’ तथा एडवर्ड फिलिप की न्यू वर्ल्ड ऑफ वर्ड्स जैसी कृतियाँ उल्लेखनीय है। जहाँ तक भाषा की शुद्धता की बात है, अधिकांश लेखकों और साहित्यकारों ने भी इस संबंध में उदार दृष्टिकोण का परिचय देते हुए विदेशी शब्दों को ग्रहण किये जाने का समर्थन किया। आगे चलकर स्वदेशी एवं विदेशी शब्दों का झगड़ा सदा के लिए तब समाप्त हो गया, जब १७५५ मे डॉ. जॉन्सन द्वारा प्रकाशित अँग्रेजी के प्रथम प्रमाणिक शब्दकोष ए डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैंग्वैज में उन सारे शब्दों को समेट लिया गया, जो अँग्रेजी में प्रयुक्त हो सकते थे, भले ही वे मूल अँग्रेजी के हों या विदेशी भाषाओं से आयातित। इस प्रकार इन शब्दों पर अँग्रेजी का लेबल लगा कर उसे एक अत्यंत संपन्न भाषा का रूप दे दिया गया। यह दूसरी बात है कि जॉन्सन के विरोधी अब भी बराबर कहते रहे कि उनके शब्दकोष में पंद्रह प्रतिशत शब्दों को छोड़ कर शेष सारे विदेशी हैं। पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जब भाषा की अभिव्यंजना शक्ति की समस्या हल हो गयी, तो उसमें ज्ञान-विज्ञान के साहित्य की रचना के मार्ग में खड़े सारे अवरोध स्वत: दूर हो गये। अँग्रेजी जाति ने अपने राष्ट्रभाषा प्रेम की प्रगाढ़ता का परिचय देते हुए, विदेशी भाषाओं की खिड़कियों के माध्यम से प्राप्त होनेवाले ज्ञान पर निर्भर न रह कर, स्वभाषा के द्वार सबके लिये खोल दिये। इससे सभी देशों से, सभी वर्गों के लिए ज्ञान का आवागमन उन्मुक्त रूप से होने लगा और साथ ही, इससे स्वभाषा के उन सहस्त्रों विद्वानों को भी रोजगार मिला, जो विभिन्न भाषाओं के ग्रंथों को अनुवादित करने और उनके मूल विचारों अथवा उनके सारांश को अँग्रेजी में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। वस्तुत: अँग्रेजी भाषा के अभ्युदय का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यदि कोई जाति सच्ची राष्ट्रीयता, सुदृढ़ संकल्प एवं पूरी शक्ति से जुट जाये, तो वह किस प्रकार सर्वथा गंवारू, अपरिष्कृत, दरिद्र एवं अक्षम कही जाने वाली भाषा को भी एक दिन विश्व की श्रेष्ठ भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है। हिंदी की स्थिति से तुलना यदि अँग्रेजी भाषा की प्रतिष्ठा के इस संघर्षपूर्ण इतिहास से हिंदी की स्थिति की तुलना करें, तो दोनों में अनेक समानताएँ दृष्टिगोचर होंगी- (१) यद्यपि दोनों ही अपने-अपने देशों की अत्यंत बहुप्रचलित भाषाएँ थीं,फिर भी विदेशी भाषा-भाषी लोगों के प्रशासन काल में दोनों का ही पराभव होना आरंभ हुआ और वे शीघ्र ही अपने गौरवपूर्ण पद से वंचित हो गयीं तथा उनका स्थान शासक वर्ग की विदेशी भाषा ने ले लिया। (२) शासक वर्ग की विदेशी भाषा को अपनाने में उच्च वर्ग के धनिकों, सामंतों एवं शिक्षितों ने बड़ी तत्परता का परिचय दिया। (३) विदेशी भाषा के प्रभाव से दोनों ही देशों (इंग्लैंड और भारत) के लोग इतने अभिभूत हो गये कि वे स्वदेशी भाषा को अत्यंत हेय एवं उपेक्षा योग्य मानते हुए उसमें बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। (४) विदेशी शासकों के प्रति विद्रोह की भावना एवं स्वभाषा के प्रति अनुराग की प्रेरणा से ही अँग्रेजी और हिंदी के पुन: अभ्युत्थान की प्रक्रिया आरंभ हुई। (५) दोनों ही देशों में पार्लियामेंट द्वारा स्वदेशी भाषाओं को मान्यता मिल जाने के बाद भी उनका व्यवहार प्रयोग बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा। (६) विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो उसकी अभिव्यंजना-शक्ति और साहित्यिक-समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे तथा (७) जब स्वदेशी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए नये शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा, तो उसके विरोधी उस पर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे। इस प्रकार अँग्रेजी और हिंदी के पराभव एवं पुनरूत्थान की कहानी परस्पर काफी मिलती-जुलती है, किंतु दोनों में थोड़ा अंतर भी है, जिसके कारण हिंदी की प्रगति में आज तक बाधाएँ उपस्थित हो रही हैं। एक तो अंग्रेज जाति में राष्ट्रीयता की भावना जितनी दृढ़ एवं गंभीर है, उतनी स्वतंत्रता प्रप्ति से पहले तो हममें रही, किंतु उसके बाद वह बिखरती चली गयी। संभवत: इसका प्रमुख कारण यह है कि हमने अपने संविधान को अमरीका की नकल पर ढालने के लिए भारत के उपप्रदेशों और प्रांतों को भी राज्यों की संज्ञा दे कर यह भ्रम उत्पन्न कर दिया मानो भारत एक सुगठित राज्य ना हो कर अनेक राज्यों का समूह या संघ है। इससे निश्चय ही क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला, जो राष्ट्रीयता के लिये घातक है। इसके कारण हिंदी का विरोध केवल अँग्रेजी के हिमायतियों द्वारा ही नहीं, अन्य प्रांतीय या क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थकों द्वारा भी होने लगा, जबकि हिंदी की प्रतिद्वंद्विता अँग्रेजी से है, न की भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से। ऐसी स्थिति में यदि हम हिंदोतर क्षेत्रों में न सही, केवल हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र में ही, जो राजस्थान से ले कर बिहार तक और हिमाचलप्रदेश से ले कर मध्यप्रदेश तक फैला हुआ है, पूरी तरह हिंदी लागूकर दें, तो यह भी कम महत्त्व की बात न होगी। किंतु स्वयं हिंदी भाषा-भाषी वर्ग में भी अभी अँग्रेजी के प्रति मोह बना हुआ है। इसका एक अन्य कारण यह है कि न केवल केंद्र में, बल्कि हिंदी भाषा-भाषी राज्यों में भी सरकारी अधिकारियों और उच्च प्रतियोगिताओं, परीक्षाओं तथा ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक अँग्रेजी का ही प्रचलन है। अत: जो अँग्रेजी की उपेक्षा करते हैं, वे अपने भविष्य के निर्माण की दृष्टि से घाटे में रहते हैं। इसलिए पिछ्ले कुछ वर्षों में जन-साधारण में अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने का फैशन और भी जोरों से फैला है। दूसरे अँग्रेजी के समर्थकों ने अपने भाषा की शब्द-संपदा और अभिव्यंजना - शक्ति में अभिवृद्धि करने के लिए विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को उन्मुक्त भाव से अपनाया, भले ही कट्टरवादियों की दृष्टि में इससे एक ऐसी अशुद्ध भाषा बन गयी, जिसमें अधिकांश शब्द विदेशी हैं, पर इससे अँग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों की रचना और अनुवाद के कार्य में तेजी से प्रगति हुई। इसकी तुलना में हम पहले कृत्रिम ढंग से विदेशी शब्दावलियों तथा पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्यायवाची शब्द गढ़ने के बखेड़े में पड़ गये, जो कभी भी समप्त न होनेवाली स्थिति है, क्योंकि जब तक हम पचास वर्ष में आज की प्रचलित शब्दावली का अनुवाद करेंगे, तब तक उतने ही नये शब्द और सामने आ जायेंगे। विज्ञान की जिस गति से प्रगति हो रही है, उसे देखते हुए यह स्वाभाविक है। फिर इस प्रकार कृत्रिम ढँग से गढ़ी हुई शब्दावली को प्रचलित करना और प्रयोग में लाना भी अपने आप में टेढ़ी खीर है। पिछला अनुभव हमें बता रहा है कि ऐसे नवनिर्मित शब्दों के अधिकांश शब्दकोष केवल सरकारी अलमारियों की शोभा बढा रहे हैं, वास्तविक प्रयोग में बहुत कम आ रहे हैं, अत: इससे अच्छा यह है कि हम ज्ञान-विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली को ज्यों-का-त्यों अपना लें और यदि उसके साथ-साथ सहज रूप में अपनी शब्दावली भी विकसित होती हो तो उसे भी अपनाते रहें। पर यदि हम अपनी नयी शब्दावली की ही प्रतीक्षा करते रहें, तो संभवत: यह कार्य कभी समाप्त नहीं होगा। उस स्थिति में यही कहना पड़ेगा कि न कभी नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। फर्क शब्दावलियों के अपनाने का तीसरे, अँग्रेजी ने बिना नई शब्दावली की प्रतीक्षा किये और बिना ज्ञान-विज्ञान के सारे साहित्य को अँग्रेजी में अनूदित किये, शिक्षा के माध्यम के रूप में अँग्रेजी को लागू कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वत: ही विश्व का सारा ज्ञान-विज्ञान रूपांतरित हो कर या मौलिक रूप में, अँग्रेजी में अवतरित हो गया। ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’—जब प्रकाशकों ने देखा कि शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी हो गया है, तो उन्होंने रात-दिन भाग-दौड़ करके उन लेखकों को पकड़ा, जो अपने ज्ञान-विज्ञान को स्वदेशी भाषा में व्यक्त कर सकते थे। व्यापारियों की पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण हर विषय की एक-से-एक अच्छे पुस्तकें बाजार में आने लगीं। सरकार को इसके लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा, किंतु हिंदी में हम इसके विपरीत चल रहे हैं। हम सोचते हैं कि पहले सारा ज्ञान-विज्ञान हिंदी में आ जाये, फिर उसे शिक्षा का माध्यम बनायें। किंतु ऐसा कभी होने वाला नहीं है। जब तक ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई अँग्रेजी में होती रहेगी, तब तक क्यों कोई लेखक हिंदी में पुस्तकें लिखेगा और क्यों कोई प्रकाशक उसे छापेगा? और यदि उसने छाप भी लिया, तो कोई उसे क्यों खरीदेगा? केवल सरकार ही ऐसा कर सकती है, जिसके पास पैसे की कमी नहीं है। अपनी अकादमी के माध्यम से सरकार के इस प्रकार के प्रयास का परिणाम यह है कि आज प्रत्येक राज्य की हिंदी अकादमियों के भंडार ऐसी पुस्तकों से भरे पड़े हैं, जो बिना विशेष रुचि या परिश्रम के मुख्यत: पारिश्रमिक प्राप्ति की आकांक्षा से हिंदी में अनुवादित एवं प्रकाशित हैं। मेरी अनेक निदेशकों से बात हुई है, उनका रोना है कि क्या करें, हिंदी के अनुवादों की बाजार में माँग नहीं। मेरा उत्तर है कि माँग तो तब हो, जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा की जायें, अर्थात पहले यदि हिंदी को शिक्षा एवं प्रशासन के माध्यम के रूप में लागू किया जये, तो फिर तद्विषयक हिंदी पुस्तकों की माँग स्वत: ही उत्पन्न होगी। किंतु हम इसके विपरीत प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले तैरना सीख लें, फिर पानी में उतरें, जबकि वास्तविकता का क्रम इससे उलट है। इसी तरह एक वर्ग ऐसा है, जो अँग्रेजी की खिड़की पर मुग्ध होकर अपनी भाषा के द्वार को बंद किये हुए है। वह नहीं समझता कि खिड़की अंतत: खिड़की है, वह द्वार का स्थान कभी नहीं ले सकती। जब तक हम स्वभाषा के द्वार का उपयोग खुल कर नहीं करेंगे, तब तक विश्व-ज्ञान के अबाध आदान-प्रदान के लिए हमें इस खिड़की पर ही निर्भर करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में हमारा विश्वास है कि यदि अँग्रेजी के अभ्युत्थान की प्रक्रिया से हम कोई सबक ले सकें, तो वह हमारी राष्ट्रभाषा की भी प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है और हमारी तद्विषयक अनेक समस्याओं के समाधान का उपाय सुझा सकता है।
३० अप्रैल २०१२ (अभिव्यक्ति और राकेश कुमार सिंह से साभार)
Saturday, October 2, 2021
हिंदी सिनेमा और राष्ट्रीयता
हिंदी चलचित्र का राष्ट्रभाषा हिंदी में राष्ट्र के दो नायकों को सच्ची श्रद्धांजलि 🙏 #हिंदी #हिंदीसिनेमा #गाँधीजी
#शास्त्रीजी
लोकसभा में पहला हिंदी भाषण और नेहरू जी का हस्तक्षेप
लोकसभा में पहला हिन्दी भाषण हिन्दी-दिवस तो मना लिया, परन्तु आज यदि किसी से पूछा जाए कि भारत की पहली लोकसभा में सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण किसने किया था, तो शायद कोई विरला ही मिले जो इसका उत्तर दे सके। मुझे आश्चर्य है कि इसका उत्तर गूगल पर भी दर्ज नहीं है। ऐतिहासिक तथ्य है कि लोकसभा में सबसे पहले हिन्दी में भाषण करने वाले प्रातः स्मरणीय,परम पूज्य, स्व. पंडित रघुनाथ विनायक धुलेकर जी थे। पंडित धुलेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी, झांसी से लोकसभा के प्रथम सदस्य तथा भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे। वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद के अध्यक्ष और विधानसभा के स्पीकर रह चुके थे। आचार्य पंडित धुलेकर ख्यातिलब्ध वकील और अंग्रेजी में उच्च शिक्षा प्राप्त होते हुए भी राष्ट्रभाषा हिंदी और आयुर्वेद पद्धति के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने झांसी में बुन्देलखण्ड आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना की जो आज राजकीय संस्थान है। उनका संकल्प झांसी में आयुर्वेद विश्वविद्यालय स्थापित करने का था, जो पूर्ण नहीं हो सका। झांसी में लोग प्यार से आचार्य पंडित धुलेकर को कक्का धुलेकर कहा करते थे। मेरी सरकारी सेवा का प्रारम्भ वर्ष-1980 में पंडित धुलेकर जी द्वारा स्थापित संस्था बुन्देलखण्ड राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय से ही हुआ था। दुर्भाग्य से मैं उनका दर्शन नहीं कर सका था। मेरे ज्वाइन करने से एक महीने पहले ही पूज्य कक्का धुलेकर का निधन हो चुका था। परन्तु पूज्य कक्का के सुयोग्य पुत्र आदरणीय (स्व.) डा. शिवाजी राव धुलेकर मेरे विभागाध्यक्ष थे। उनसे तथा अन्य शिक्षकों और झांसी की जनता से कक्का के संस्मरण सुनने को मिलते रहते थे। कक्का सिध्दांतों के पक्के, सत्याग्रही और जिद्दी भी थे। जहां तक हिन्दी की बात है तो, पहली लोकसभा में सबसे पहला हिन्दी भाषण करने वाले पंडित धुलेकर जी ही थे। इसका पूरा विवरण वर्ष 1980 या1981 के काल में उस जमाने की लोकप्रिय पत्रिका "धर्मयुग" के "हिन्दी विशेषांक" में प्रकाशित हुआ था। वह पूरा विवरण मैंने पढ़ा था, जिसमें उल्लेख था कि- जब पहली लोक सभा में पंडित धुलेकर ने पहली बार हिन्दी में भाषण शुरू किया तो दक्षिण भारतीय सांसदों के अतिरिक्त भी बहुत से सांसद विरोध में चिल्लाने लगे। शोर मचने लगा- Please Speak in English- Speak in English... परन्तु कक्का हिन्दी में ही बोलते रहे, तब प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धीरे से हस्तक्षेप किया और कहा- Mr. Dhulekar please speak in English. This is Parliament House and not ground of Jhansi. Should I believe that you are unable to speak in English ? पंडित नेहरू के धीरे से टोकने को सार्वजनिक करते हुए कक्का धुलेकर हिन्दी में बोले कि प्रधानमंत्री जी मुझे टोक रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या मैं अंग्रेजी नहीं बोल सकता हूं ? " मैं सदन को बताना चाहता हूं कि मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक उपाधि प्राप्त किया है। अंग्रेजी के समर्थन में जो शोर मचा रहे हैं, उनसे अच्छी अंग्रेजी बोल सकता हूं। परन्तु देश आजाद हो चुका है, हिन्दुस्तानी होने का गर्व है, हिन्दी भाषा पर गर्व है और हिन्दी में ही बोलूंगा। कक्का झुके नहीं और हिन्दी में अपना व्याख्यान पूरा किया।" मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसे ऐतिहासिक विवरण, क्यों आम जनता की जानकारी में प्रसारित नहीं है। क्यों गूगल के नालेज बैंक में भी यह दर्ज नहीं है..
गाँधी -शास्त्री जयंती और मूल्य-बोध
आज गाँधी जी की 152वीं जयंती है। साथ में लाल बहादुर शास्त्री जी की भी। ब्रिटिश भारत से आजाद होने के बाद भारत के सबसे बड़े नायक की जन्म जयंती पर शत शत नमन! पर यह हम सभी का दुर्भाग्य है कि दशकों से उनके विचारों को जानबूझकर ढकोसला बनाकर ही परोसा जा रहा है। हमारे शासक, नौकरशाह, पत्रकार, न्यायालय, शिक्षाविद् सामूहिक रूप से ब्रिटिश भारत से आजादी के बाद गांधी जी के सपनों के भारत के हर लक्ष्य को मटियामेट करने में कोई कर-कसर नहीं छोड़े है। चाहे हिंदी एवं भारतीय भाषाओं को कलंकित कर अंग्रेजी को बढावा देने की बात हो या कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित न कर भारी उद्योगों की स्थापना की बात हो, ग्रामीण भारत को अस्तित्वविहीन कर नियोजित शहरों की स्थापना की बात हो, समाज के बुनियादी तत्वों को समाप्त करने में सहयोग और सत्ता ही मूलमंत्र है। दरअसल गांधी का खात्मा उनके अनुयायियों ने पहले किया। दुर्भाग्य यह रहा है कि जिनकी वजह से सत्ता में पहुँचे उन्हीं के उसूलों का खात्मा किया जाना आधुनिक भारत में नैतिकता विहीन समाज की नींव रखने की प्राथमिक सीढ़ी बनी। पर हमारे समाज की आदत सी बन गई है हम केवल पुरखों पर माल्यार्पण करते है पर उनके उसूलों, मूल्यों से दूर भागते है। अब ऐसे में भगवान ही मालिक है। #गाँधीजी
सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस
आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है। आज 'भारतीय भाषा दिवस' भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...
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आज महान देशभक्त, भारतरत्न, भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की १२२ वीं जयंती है। भारत-पाक युद्ध में जय जवान! जय किसान! का उद्...
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प्रयागराज कुंभ हादसा-एक अनहोनी थी, जो घट गई। प्रयागराज में जो हुआ दुखद है, अत्यंत दुखद। प्रयागराज कुंभ में भगदड़ मचने की वजह से असमय ही कुछ...
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आज़ भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस), हैदराबाद में भाषा मंथन परिचर्चा के तहत विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे जाने का सुअवसर मिला। इस अवसर पर मैंने ...



























