विज्ञापन, संस्कृति और बाज़ार

आज के दैनिक हिंदुस्तान में एक विज्ञापन आया है जो विशाल मेगा मार्ट से संबंधित है। विज्ञापन का शीर्षक है ‘ अच्छे दिखें ‘  

अब आप तय करें कि इस विज्ञापन के ज़रिये क्या संदेश देना चाहती है यह कंपनी।

विज्ञापन के संकेत को समझें। यहाँ बात उत्तर आधुनिक कपड़ों के माध्यम से लोगों को अभिजात्य बनाने  को लेकर है। इस विज्ञापन में देशी पोशाक, पहने मेहनती, गैर-अभिजात्य वर्ग के लोगों को पश्चिमी परिधान से प्रेरित होते दिखाया जा रहा है। जो ग़लत है। इस कम्पनी के अनुसार अंग दिखाऊ कपड़े ही आधुनिकता के परिचायक है। बाज़ार किस दिशा में हमें ले जाना चाहता है? क्या हमारी सोच, परिधान सब कुछ कोई और तय करेगा। अब अच्छे दिखने का यही अर्थ है?  क्या कारण हैं कि हम सब हर अंधी नक़ल को समर्थन देते हैं या स्वीकारते है। हर चीज कहीं की भी सही नहीं होती। यह कौन-सी समझ है जो सड़े-गले, फटे, अधनंगे वस्त्रों में भी निजता और नारीवाद ढूँढती हैं?

बाज़ारवाद की यही रणनीति हैं हर चीज को उत्तर-आधुनिकतावाद से जोड़ दो। तभी तो आज शब्द से भी आधुनिकता तय होती है।  ‘वाश-रूम’ जैसे शब्द आधुनिकतावाद के प्रतीक। क्या अंग्रेज़ी के शब्दों से भी कहीं आधुनिकता आती हैं।  शर्म आती है ऐसी सोच पर, जिसे अंग्रेजों ने रोपा और बाज़ारवाद ने पुष्ट किया।  

वास्तव में हमारी  सोच-समझ को ही अंग्रेज़ी चूहों ने कुतर दिया है इसी का परिणाम है यह सांस्कृतिक खोखलापन।  उत्तर-आधुनिकता का सिद्धांत यहीं तो हैं जिसके तहत नंगा व्यक्तिवाद भी फ़ैशन के नाम पर खुला कहलाता है। जैसे चीन, इंग्लैंड, अमेरिका और मध्य पूर्व का विकास। 

दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य हैं कि जिस देश में स्नान जैसी दैनिक क्रिया को भी इसके वैज्ञानिक गुणों को जानकर धर्म से जोड़ा गया है, जहाँ जूठा गिलास भी कोई किसी का नहीं पीता, वस्त्र की भी अपनी महिमा स्थापित है।  ऐसे में अधनंगे वस्त्र आधुनिकता की निशानी कैसे हो सकते हैं? वस्त्रों से तो सभ्यताओं की प्रगति का पता लगाया जाता है। अभी तक तो यहीं माना जाता था कि उन्नत सोच से ही समृद्धि आती हैं।  नक़ली एवं उधार के संस्कारों से सभ्यताएं समृद्ध नहीं होती। बल्कि खोखले लोग पैदा करती है। अत: वस्त्र को निजता से नहीं , संस्कार से जोड़े। भद्रता से जोड़ें न कि बाज़ार से। कभी वस्त्र नाम से एक कविता लिखी थीं, जो आप सभी से साझा कर रहा हूँ- 




वस्त्र

सुना था

वस्त्र मनुज-मानवी के 

होते है आभूषण 

इससे पनपे संस्कार 

और निर्मित हो एक संस्कृति 


पर अब सुना है वस्त्र 

धर्म भी 

आधुनिकता भी, 

पिछड़ापन का प्रतीक भी

न कि संस्कृति की। 

भला  बीच में  कैसे आ  गए

धर्म  व  पंथ

बाज़ार और आधुनिकता

आए और बीच बाज़ार में 

धर्म-परंपरा के नाम पर फेंक दें 

बुर्का, हिजाब सब, 

सब मिल उतार दें भेद सब,


पर लज्जा और सम्मान रखें

रखें मान और संस्कार

और न पालें

बिकिनी गर्ल बन जाने का 

बाज़ार का सबब


वस्त्र संस्कार

संस्कृति

और

सभ्यता के होते है 

सूचक

न होते है दबाव, 

लालच, भोग, 

कुपरंपरा के बोधक। 

#साकेत_विचार

#विज्ञापन #बाज़ार #नंगई #वस्त्र

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