राम और विभीषण
‘सुंदरकांड' में एक प्रसंग आता है- लंका पति के भाई विभीषण, प्रभु श्रीराम को प्रणाम करते हैं और आशीर्वाद स्वरूप उनकी भक्ति मांगते हैं। विभीषण कहते हैं मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस ऐसा करें कि जीवनपर्यंत आपको इष्ट मानूं। राम बदले में उन्हें देखिए क्या देते हैं-
'जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।'
राम ने विभीषण को लंका का पूरा राजपाट ही सौंप दिया। वास्तव में राम सत्य के प्रतीक हैं। राम की भक्ति सत्य और मर्यादा को अभिप्रेत करती है। सोचिए राम की भक्ति में कितनी शक्ति है कि एक निष्काषित व्यक्ति को उसी राज्य का राजा बनाया जाता है। केवल इसलिए कि उसने शक्तिशाली परंतु अनाचारी रावण का विरोध किया। ठीक ही कहा गया है जो राम का है, यह सब उसका है। जो राम का नहीं, यह जग उसका नहीं। फिर भी कलियुग की माया देखिए कि आज समाज में विभीषण के प्रति अपमान, शर्म एवं घृणा का भाव बोध है और रावण के प्रति सहानुभूति, संवेदना का भाव ।
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