Sunday, December 26, 2021

यशपाल हिंदी साहित्यकार






"मैं जीने की कामना से, जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखता हूँ। बहुत चतुर और दक्ष न होने पर भी यह बहुत अच्छी तरह समझता हूँ कि मैं समाज और संसार से पराङ्मुख होकर असांसारिक और अलौकिक शक्ति में विश्वास के सहारे नहीं जी सकूँगा।" -यशपाल

 'मैं क्यों लिखता हूँ'  

आज यशस्वी कथाकार व निबन्धकार यशपाल जी की पुण्यतिथि हैं ।महान कथाकार यशपाल जी का स्मृति दिवस पर उन्हें शत-शत नमन! झूठा-सच के लेखनीकार क्रांतिकारी यशपाल जी के कृतित्व को नमन! यशपाल जैसे कलमकार राष्ट्रभाषा हिंदी की सशक्तता को स्वर देते हैं, यशपाल की मजबूत लेखनी उन भाषा विमर्शकारों की कल्पित आवाज के लिए एक सबक हैं जिनके लिए हिंदी मात्र उत्तर भारत की भाषा हैं । सादर नमन! यशपाल जी 

 #हिंदी

 #यशपाल 

#साकेत_विचार

Saturday, December 25, 2021

2022 में चुनाव

 2022 में चुनाव! 





पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं । चुनावी सर्वेक्षणों की शुरूआत हो चली है। इसमें अधिकांश मीडिया संगठनों, पत्रकारों द्वारा भारतीय समाज को विशेष रूप से हिंदू समाज को जातिगत भेदभाव के आधार पर बांटा जाता है। यह गलत है। मीडिया चैनलों द्वारा यह किया जाना किसी षडयंत्र का हिस्सा लगता है। दलित, ओबीसी, अगड़ों के आधार पर चुनावी मतों का निर्धारण किया जाता है। नेताओं के टिकट तय किये जाते हैं । यह सरासर गलत है। भारतीयता का अपमान है। 

मीडिया जिसे चौथा खंभा माना जाता है वह इस खेल में सबसे आगे शामिल हैं। आज दलित , अगड़ा कोई नही है सब पैसों का खेल हैं । जो संपन्न है वह अगड़ा है और जो वंचित है वह दलित हैं। हमें इस आधार पर हिंदु या किसी भी संप्रदाय को विभाजित नही करना चाहिए । मैं यह सब अधिकांश चुनावों में देखता हूँ । इसका प्रबल विरोध होना चाहिये । विकसित भारत का चुनाव सर्व भारतीय समाज के आधार पर होना चाहिए । न कि दलित, पिछड़ा, ओबीसी, अगड़ी जाति के आधार पर होना चाहिए । भारतीयता की पहचान है -सभी का समावेश । उसमें धर्म, जाति न हो । 

एक भारतीय नागरिक का विकास पहला उद्देश्य हो। भले ही यह सोच धीरे-धीरे विकसित हो पर जोरदार कोशिश तो हो। आजादी के पहले अंग्रेजों ने इस देश को विभाजित सोच के आधार पर बाँटा। बाद में वामपंथी, समाजवादी, दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी धर्म-जाति के आधार पर इस देश के चुनावों को प्रभावित किया। फिर मंडल-कमंडल की राजनीति की गई । सेकुलर, भ्रष्टाचार एवं विकास जैसे शब्दों ने भी खूब बेड़ा गर्क किया। 

शीघ्र ही चुनाव होने वाले है। क्योंकि चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए न कोरोना हैं और न ओमिक्रान। चुनाव तो होंगे ही। ऐसे में जनता को जाति- धर्म से अधिक अपनी आंखें खुली रखकर देशहित में निर्णय लेना होगा। बहुत- हुआ सेकुलरवाद, जातिवाद और धर्म की राजनीति । 

हमारा देश 10000 वर्ष पुरानी सभ्यताओं, परंपराओं का देश हैं । जहां सभी कुछ वाचिक आधार पर पुष्पपित-पल्लवित हुई। अतः देश को 74 सालों के आधार पर मत तौलिए। देखिये देश कब-कब विभाजित हुआ। देश में दोमुँहे विरासत वाले कौन है। 

2022 देहरी पर खड़ा है। जिसमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के बड़े राज्य तथा अन्य महत्त्वपूर्ण प्रदेशों में लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व आने वाला है। इस महापर्व का स्वागत पूरे जोशो-खरोश के साथ करें । अपनी आंख-कान-नाक खुली रखें । देश को बहुसंख्यक समाज, अपने हितों की खातिर जातिगत आधार पर बांटने वालों तथा सर्व-भारतीयता की पहचान- अल्पसंख्यक वर्ग को चुनावी चश्में से देखने वालों को सबक सिखाए। चुनाव को सेकुलर बनाम नाॅन-सेकुलर में बांटने वालों से प्रश्न पूछें । जनता के लिए प्रदेश के चुनाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें तय करने का अवसर देता है कि हम किसे अपना नेतृत्व सौंपे। हमारी गति, नीति को प्रभावित करने वाली अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने हमें मूढ़ एवं अंतहीन स्वार्थी बना दिया है। कुछ सालों तक तो हमने अपनी परंपराओं को जिंदा रखा । पर अब धीरे-धीरे वह पीढ़ी भी कमजोर हो रही हैं । बाद की पीढी ने इसे एक हद तक संभाला रखा। पर वर्तमान पीढ़ी अपनी विरासत एवं परंपराओं से उस हद तक परिचित नहीं हैं । ऐसे में यह जरूरी है कि हम इस पीढी को जो सोशल मीडिया की पीढी है और 2022 में पहली बार अपना मत देने को तैयार खड़ी है। उसे लोकतांत्रिक रूप से जागरूक बनाए। 

इसमेें परिवारजनों,  शैक्षणिक संस्थानों एवं मीडिया की भूमिका बढ़ जाती हैं । मीडिया के लिए यह जरूरी है कि वह अपने निदेश, निर्देश एवं रिपोर्टिंग में तटस्थ रहे तथा सर्व-भारतीय समाज के निर्माण के लिए कार्य करें। 

 आंग्ल नव वर्ष-2022 की अग्रिम शुभकामना ! 

 जय हिंद!जय भारत! जय हिंदी ! 

 @डॉ साकेत सहाय 

 hindisewi@gmail.com 

#साकेत_विचार

अटल बिहारी वाजपेयी का काव्य व्यक्तित्व

अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व उनकी कविताओं से झलकता हैं । कृतित्व को नमन! https://www.hindi.awazthevoice.in/lifestyle-news/Atal-Bihari-Vajpayee-s-personality-is-reflected-in-his-poems-11169.html




Friday, December 24, 2021

स्वामी श्रद्धानंद का हिंदी प्रेम


स्वामी श्रद्धानन्द जी का हिंदी प्रेम

सनातन संस्कृति के महान उद्घोषक गाँधी को महात्मा बनाने वाले श्रद्धानन्द महाराज का हिंदी प्रेम जगजाहिर था। आप जीवन भर स्वामी दयानन्द के इस विचार को कि "सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के माध्यम से एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं।""  सार्थक रूप से इसे क्रियान्वित करने में अग्रसर रहे। सभी जानते हैं कि स्वामी जी ने कैसे एक रात में उर्दू में निकलने वाले सद्धर्म प्रचारक अख़बार को हिंदी में निकालना आरम्भ कर दिया था जबकि सभी ने उन्हें समझाया की हिंदी को लोग भी पढ़ना नहीं जानते और अख़बार को नुकसान होगा। मगर वह नहीं माने। अख़बार को घाटे में चलाया मगर सद्धर्म प्रचारक को पढ़ने के लिए अनेक लोगों ने विशेषकर उत्तर भारत में देवनागरी लिपि को सीखा। यह स्वामी जी के तप और संघर्ष का परिणाम था। 

स्वामी जी द्वारा 1913 में भागलपुर में हुए हिंदी सहित्य सम्मेलन में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया गया था उसमें उनका हिंदी प्रेम स्पष्ट झलकता था। स्वामी जी लिखते हैं - मैं सन 1911 में दिल्ली के शाही दरबार में सद्धर्म प्रचारक के संपादक के अधिकार से शामिल हुआ था। मैंने प्रेस कैंप में ही डेरा डाला था। मद्रास के एक मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से एक दिन मेरी बातचीत हुई। उन सज्जन का आग्रह था कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती हैं। अंग्रेजी ने ही इन्डियन नेशनल कांग्रेस को संभव बनाया हैं, इसीलिए उसी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए। जब मैंने संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री आर्यभाषा (हिंदी) का नाम लिया तो उन्होंने मेरी समझ पर हैरानी प्रकट की। उन्होंने कहा कि कौन शिक्षित पुरुष आपकी बात मानेगा? दूसरे दिन वे कहार को भंगी समझ कर अपनी अंग्रेजीनुमा तमिल में उसे सफाई करने की आज्ञा दे रहे थे। कहार कभी लोटा लाता कभी उनकी धोती की तरफ दौड़ता। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मिस्टर एडिटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गुजरा। वे भागते हुए मेरे पास आये और बोले "यह मुर्ख मेरी बात नहीं समझता" इसे समझा दीजिये की जल्दी से शौचालय साफ़ कर दे। मैंने हंसकर कहा - "अपनी प्यारी राष्ट्रभाषा में ही समझाइए।" इस पर वे शर्मिंदा हुए। मैंने कहार को मेहतर बुलाने के लिए भेज दिया। किन्तु एडिटर महोदय ने इसके बाद मुझसे आंख नहीं मिलाई। 

भागलपुर आते हुए मैं लखनऊ रुका था। वहां श्रीमान जेम्स मेस्टन के यहाँ मेरी डॉ फिशर से भेंट हुई थी। वे बड़े प्रसिद्द शिक्षाविद और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं, भारतवर्ष में पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य बनकर आये थे। उन्होंने कहां कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थियों को पढ़ाया हैं। वे कठिन से कठिन विषय में अंग्रेज विद्यार्थियों का मुकाबला कर सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र विचार शक्ति उनमें नहीं हैं। उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा की यदि आप मेरे गुरुकुल चले तो इसका कारण प्रत्यक्ष दिखा सकता हूँ, कहने से क्या लाभ? जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होगी, तब तक इस अभागे देश के छात्रों में स्वतंत्र और मौलिक चिंतन की शक्ति कैसे पैदा होगी ?"

 (100 वर्ष पहले दिए गए विचार आज भी कितने प्रसांगिक और यथार्थ हैं इसे हम  भी स हैं)


जय हिंद ! जय हिंदी !!

पट्टाभि सीतारमैया -हिंदी सेवी, गाँधी जी के सहयोगी




पट्टाभि सीतारामैया, महात्मा गाँधी के विश्वस्त सहयोगी आधुनिक भारत में स्वदेशी आर्थिक क्रांति के अगुआ माने जाते है। आपने बीमा कंपनियों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आप आंध्रा बैंक के जनक थे,जिसका समामेलन यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में इंडिया में किया गया । 

 नमक सत्याग्रह (1930), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1932) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भाग लेने हेतु पट्टाभि सीतारमैय्या को ब्रिटिश सरकार द्वारा कई बार कैद किया गया था। आप भारत की संविधान सभा के सदस्य के रूप में चुने गए थे । भोगराजू पट्टाभि सीतारमैय्या भी नियम समिति, संघ शक्तियों समिति और प्रांतीय संविधान समिति के सदस्य थे। भोगराजू पट्टाभि सीतारमैय्या ने `राष्ट्रीय शिक्षा` (1912),` भारतीय राष्ट्रवाद` (1913), `भाषाई आधार पर भारतीय प्रांतों के पुनर्वितरण` (1916), `असहयोग` (1921),` भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास` सहित कई पुस्तकें लिखीं। आप मध्य प्रदेश के पहले राज्यपाल के रूप में 1 नवंबर, 1956 से 13 जून, 1957 तक पद पर रहे। 

आपका जन्म 24 नवंबर, 1880 को आंध्र प्रदेश के गुंडुगोलनू गाँव में हुआ था। जब बालक सीतारामैया मात्र चार-पाँच साल के थे, तभी इनके पिता की मृत्यु हो गयी। गरीबी से जूझते परिवार के लिए यह कठिन समय था पर अनेक कठिन परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. की डिग्री ‘मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज’ से प्राप्त की। इसी दौरान उनका विवाह काकीनाड़ा के एक संभ्रांत परिवार में हो गया। तत्पश्चात उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई की और आंध्र प्रदेश के एक तटीय शहर मछलीपट्टनम में चिकित्सा शुरू की। लेकिन बाद में उन्होंने डॉक्टरी को छोड़ दिया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। 1910 में भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया ने आंध्र जटायसा कलसाला की स्थापना की। 17 दिसंबर, 1959 को उनका निधन हो गया। 

महात्मा गांधी का आप पर अत्यधिक विश्वास एवं स्नेह था। यही कारण है कि वर्ष 1939 में जब आप कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के चुनाव में श्री सुभाषचंद्र बसु के विरुद्ध खड़े हुए तो महात्मा गांधी ने कहा था कि' पट्टाभि की हार मेरी हार होगी।' उस समय सुभाष बाबु जीत गए । जो ऐतिहासिक घटनाक्रम बना। 

स्वाधीनता के बाद आप वर्ष 1948 ई. में जयपुर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। इसी अधिवेशन में भारतीय कांग्रेस का वह ऐतिहासिक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था जिसके अनुसार कांग्रेस को विश्व शांति तथा मैत्री और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समानता के आधार पर भारतीय राष्ट्र एवं जनता को प्रगति पथ पर अग्रसर करने का लक्ष्य सुनिश्चित किया गया था। 

अंग्रेजी पर आपका असाधारण अधिकार था पर आप राष्ट्रभाषा हिंदी के भी भक्त थे। मार्च, 1957 में जब आपकी पुस्तक "गांधी तथा गांधीवाद" का प्रकाशन हुआ तो आपने उसकी भूमिका में लिखा - "हिंदी आज राजभाषा बन चुकी है और वस्तुत: भारत की राष्ट्रभाषा के गौरवमय पद पर प्रतिष्ठित हो चुकी है।' 



डाॅ साकेत सहाय

Thursday, December 23, 2021

आर्थिक सुधारों के नरसिंहा


आज पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पी वी नरसिंह राव (पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव) जी की पुण्यतिथि है।  आज ही के दिन 23 दिसंबर, 2004 को उनका निधन हुआ था। 

भाषा प्रेमी नरसिंहा राव अब तक के एकमात्र प्रधानमंत्री रहे जिन्हें 17 भाषाओं का ज्ञान था।  उनका जन्म 28 जून, 1921 को वर्तमान तेलंगाना राज्य के वारंगल जिले में हुआ था । 1991 से 1996 तक प्रधानमंत्री पद संभालने वाले वे कांग्रेस पार्टी से पहले गैर हिंदी-भाषी शख्स बने । गैर नेहरू-गांधी परिवार से होने के बावजूद वे पांच साल तक सत्ता में रहने वाले  पहले प्रधानमंत्री  रहे । लाइसेंस राज को खत्म करने सहित कई आर्थिक सुधारों का उन्होंने सूत्रपात किया । उनके वित्तमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण युग की शुरुआत की । बाद के प्रधानमंत्रियों ने उनकी आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ाया । 

वर्तमान समय तक कांग्रेस पार्टी से मूल रूप से संबंधित रहे एक प्रकार से वे अंतिम प्रधानमंत्री रहे । नरसिंहा राव जी भारत में उदारीकरण के जनक माने जाते हैं । साथ ही उन्हें मनमोहन सिंह जी को राजनीति में लाने का श्रेय भी दिया जाता है। उन्होंने ऐसे समय में पदभार संभाला, जब भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद कमजोर मानी जा रही थी। आज देश को उनके द्वारा किए गए मजबूत आर्थिक सुधार एवं अन्य उल्लेखनीय योगदान हेतु उन्हें याद करने की आवश्यकता है।  

उनके पदभार संभालने के समय देश आर्थिक मोर्चे पर निराशाजनक स्थिति का सामना कर रहा था। आयात और निर्यात का असंतुलन चरम पर था। ऐसे समय में उन्होंने अर्थव्यवस्था को उदार बनाने के उपाय शुरू किए। लाइसेंस राज, लालफीताशाही कम करने और भारतीय उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने हेतु उनके सुधार उल्लेखनीय माने जाते हैं । सरकार के हद से ज्यादा नियंत्रण कम किए जाने लगे। हालाकि इसकी विवेचना अलग है। प्रांरभ में आलोचनाओं का सामना करने के बावजूद वे जरूरी बदलावों के साथ आगे बढ़ते रहे। 

उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्विक, विशेष रूप से पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के साथ एकीकरण की नींव रखी। वे एक महान आर्थिक सुधारक थे और चाहते थे कि भारत बदलती दुनिया से सीख लेकर आगे बढ़े । देश उन्हें निकाय सुधार, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक सुधार, इसरायल से संबंध स्थापित करने के लिए सदैव याद रखेगा। श्री नरसिम्हा राव जी राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा के लिए भी जाने जाते हैं। वर्ष 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद उनकी भूमिका को स्वीकारते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा था, "बम तैयार था, मैंने केवल इसे विस्फोट किया"।  

भारत उल्लेखनीय विदेश नीति के लिए सदैव उन्हें याद करेगा । इसरायल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करना, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मजबूत संबंध स्थापित करना बेहद ऐतिहासिक रहें । 

एक भाषा सेवी होने के नाते मैं उनके हिंदी एवं भारतीय भाषा प्रेम हेतु भी नमन करता हूँ । 

नरसिंहा राव जी बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी रहे। वे 17 भाषाओं के ज्ञाता थे। हिंदी, मराठी, उर्दू, संस्कृत, बंगाली, गुजराती, ओडिया, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, फारसी, अरबी और स्पेनिश सहित कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में कुशल थे। पर खेद है देश ने उन्हें वो सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। भारतीय मीडिया उन्हें Accidental PM मानती थीं । पर मेरे विचार से यह सुघटना साबित हुई। 

नमन। #विनम्र श्रद्धांजलि 

#नरसिंहा_राव 


✍©डॉ. साकेत सहाय

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Sunday, December 19, 2021

मानव धर्मं

सब कुछ पाने की होड़ ने मानव होने के धर्म को पीछे छोड़ दिया है । सबसे जरूरी है नैतिकवान होना।


पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र भावपूर्ण श्रद्धांजलि

जिस किसी ने तालाब बनाया, वह महाराज या महात्मा ही कहलाया। एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बनाकर समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे।

 - अनुपम मिश्र, 



 'आज भी खरे हैं तालाब'* किताब से लेखक, गाँधीवादी व पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की पुण्यतिथि पर सादर नमन!

प्रभाकर श्रोत्रिय : हिंदी साहित्यकार


हिंदी हर युग में इस देश की आवाज़ रही है। आज उसके सामने एक और नयी पीढ़ी है, जिसके स्वप्न हरे हैं। वह त्वरित विश्व के साथ क़दम मिलाकर, बल्कि उससे भी आगे चलने को उत्सुक है। उसे अपनी भाषा में नवीनतम ज्ञान, प्रौद्योगिकी, सम्मान, आत्म निर्भरता समृद्धि, जीवन-यापन और उत्कर्ष के भरपूर अवसर मिलने चाहिए। - प्रभाकर श्रोत्रिय साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय की जयंती पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि

Saturday, December 18, 2021

भोजपुरी रत्न भिखारी ठाकुर

वर्ष 1887 में जन्में  लोक साहित्यकार भिखारी ठाकुर की आज जयंती  है। भोजपुरी हिंदी के महान साहित्यकार कवि,नाटककार, संगीतकार भिखारी ठाकुर ने अपनी पुश्तैनी कार्य नाई कर्म से जीवन-यात्रा की शुरुआत की। उन्होंने अपनी भावप्रवणता और संप्रेषनीयता से लोक साहित्य में जो स्थान प्राप्त किया उसकी जगह कोई और नहीं ले सकता।


रोज़ी-रोटी की तलाश मे पलायन करने वालों के परिजनों की व्यथा-कथा का मर्मांतक चित्रण करती उनकी कालजयी नाट्य कृति "बिदेशिया" अमर गान है। भिखारी ठाकुर जी ने अपने प्रदर्शन कला का, जिसे लोकप्रिय शब्द में ‘नाच’ कहा जाता है को अमर किया।  रोज़ी-रोटी के सिलसिले में बंगाल यात्रा में वहाँ की रामलीला देखकर वे काफ़ी प्रभावित हुए। तब उन्होंने गांव लौटकर लिखना-पढ़ना-सीखना शुरू किया। वे इस बात को प्रमाणित करते है कि व्यक्ति अपनी प्रतिभा के बल पर अमर हो सकता है, उसके लिए अंग्रेज़ी एकमात्र जरुरी नहीं। बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी वियोग समेत अलग-अलग फलक पर रची हुई उनकी दो दर्जन कृतियां हैं। उनकी रचनाएं राम, कृष्ण, शिव,रामलीला, हरिकीर्तन आदि को समर्पित है।

#जन्मदिन_भिखारी_ठाकुर 

#नाच #भोजपुरी

सादर स्मरण

🙏

साकेत सहाय

भोजपुरी के युगपुरूष उर्फ सारण के लाल भिखारी ठाकुर का चर्चित लोकगीत ❤️


https://www.facebook.com/1619138805/posts/10221704794521995/?d=n

Sunday, December 12, 2021

काशी विश्वनाथ काॅरिडोर

कल काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी राष्ट्र को समर्पित करेंगे । यह राष्ट्र की अध्यात्मिक चेतना का काॅरिडोर हैं । इसी के साथ यह काॅरिडोर आक्रांताओं द्वारा विकृत किए गए इतिहास को विस्मृत कर स्वर्णिम अतीत, राष्ट्रीय चरित्र, पुरा पुरुष को जागृत करने का संकल्प है। 

 'काशी' भगवान शिव की नगरी हैं , जो सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार इस समस्त जगत के आदि कारक माने जाते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता हैं। जगत के प्रारंभिक ग्रंथों में से एक 'वेद' में इनका नाम रुद्र है। वे व्यक्ति की चेतना के अर्न्तयामी हैं । हमारे यहाँ शिव का अर्थ कल्याणकारी माना गया है। उसी शिव की नगरी कल परिष्कृत रुप में होगी। 

 दुर्भाग्य हैं हमारी विकृत इतिहास परंपरा का जो अपने चारित्रिक नायकों से सीख न लेकर उन्हें ग्रंथों में या परंपराओं में सिमटा रही हैं । कल का आयोजन सदियों की आध्यात्मिक विरासत को जमीन पर उतारने का संकल्प दिवस माना जा सकता हैं । 

काशी कॉरिडोर के बहाने इतिहास ने नई करवट ली है। भगवान शंकर की यह नगरी, जो धर्म,संस्कृति और संस्कार का गढ़ मानी जाती है, सदियों की गुलामी के कारण ध्वंस और अतिक्रमण की पीड़ा से त्रस्त थीं, इस कॉरिडोर ने इससे मुक्ति जरूर दिलायी है। 

काशी मृत्यु में भी उत्सव का सीख देता हैं । काशी काॅरिडोर तमाम बाधाओं के बीच अपने स्वर्णिम अतीत से जुड़ने का संकल्प देता है। भगवान शिव से जुड़ी एक कथा हैं- 'एक बार माँ काली क्रुद्ध अवस्था में थीं। देव, दानव और मानव सभी उन्हें रोकने में असमर्थ थे। तब सभी ने माँ काली को रोकने हेतु भगवान शिव का सामूहिक स्मरण किया। शिवजी ने भी यह अनुभव किया कि माता काली को रोकने का एकमात्र मार्ग है -प्रेम और वे माँ काली के मार्ग में लेट गए। माँ काली ने ध्यान नहीं दिया और उन्होंने उनकी छाती पर पैर रख दिया। अभी तक महाशक्ति ने जहाँ-जहाँ कदम रखा था, वह जगह नष्ट हो गया था। पर यहां अपवाद हुआ । माँ काली ने जब देखा उनका पैर भगवान शिव की छाती पर हैं, वे पश्चाताप करने लगीं। 

इस कथा का सार यहीं हैं कि हर कठिन कार्य का सामना आत्म बल के साथ किया जा सकता हैं। काशी ने अपने ध्वंस को बार-बार देखा हैं । दुनिया की इस प्राचीन नगरी ने सब कुछ देखा है। पर बार-बार उठ खड़ी हुई है - काशी।

काशी ने भारतवर्ष को संस्कृति, भाषा में राह दिखाया हैं । कभी देवी अहिल्या बाई और महाराजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर सनातन संस्कृति के प्रतीक द्वार को जीवंत किया था, बाद में महामना मदन मोहन मालवीय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रुप में और अब प्रधानमंत्री मोदी ने इस महान नगरी को पूरे धैर्य और सम्मान के साथ जीवंतता दी हैं । 

आप बधाई के पात्र हैं माननीय प्रधानमंत्री । आपने इस काॅरिडोर के द्वारा पूरी दुनिया में सनातन संस्कृति के इस महान स्थल को नया स्वर दिया है। 

 कहा जाता है काशी में भगवान शिव राजराजेश्वर के रुप में विराजमान हैं। बाबा विश्वनाथ के दरबार में चार प्रमुख द्वार हैं। शांति द्वार, कला द्वार, प्रतिष्ठा द्वार और निवृत्ति द्वार। पूरी दुनिया में यही एक ऐसा स्थान है, जहां शिव-शक्ति एक साथ विराजमान हैं और तंत्र द्वार भी है। 

कामना हैं शिव की इस धरा से भारत भूमि पर शांति, कला, प्रतिष्ठा का द्वार प्रशस्त हो । काशी विश्वनाथ काॅरिडोर का जाग्रत स्वर हमारी सनातन संस्कृति की जड़ों की ओर भी हमें ले जाता है। 





इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता और परंपरा के लिए अभी बहुत कार्य शेष हैं । फिर भी यह कहा जा सकता हैं, जो सभी सांस्कृतिक योद्धाओं को समर्पित हैं । 

 "झुकी-दमित, दबी आंखें अब आशावान हो रही है, 

जिन सुरखी-चुने की मजबूत दीवारों पर आपने 

अविश्वास और झूठ की नोनी लगाई थी 

वो अब भरभरा रही है, 

एक दिन सब धूल-धक्कड में उड़ जाएंगे। 

धीरे-धीरे सैकड़ो साल पुराने झूठ, भ्रांतियों के अवशेष। 

 जय शिव-शंकर!

 ©डा. साकेत सहाय 

Hindisewi@gmail.com

Saturday, December 4, 2021

डाॅ राजेंद्र प्रसाद की शख्सियत और जवाहरलाल







डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु जी ने उनके लिए वहाँ पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की। उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे।  उनकी तबीयत पहले से ही खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी, वे दमा के रोगी थे। सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहाँ उनसे मिलने के लिए जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाऊ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मृत्यु हो गई। क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा! वे उस दिन जयपुर में एक अपनी ‘‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा स्वयं डा.संपूर्णानंद ने किया है। संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू जी को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए, तो नेहरु जी ने संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डा. सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे, उनमें से भी कोई पटना नहीं गया। (किसके डर से?)  सबलोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया। यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य से च्युत हुए। कफ निकालने वाली मशीन वापस लाने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं मुख्यमंत्री की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। यही नहीं, नेहरु जी ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा. राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंच गए। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू जी किस प्रकार से राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे। ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या, मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा। मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक ही मशीन थी, कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देश पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल काॅलेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मशीन वापस मंगाई गई, उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खांसते-खांसते चल बसे। यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था । दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। इस कारण उनमें बहुत हीन भावना पैदा हो गई थी। इसलिए वे उनसे छत्तीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा.राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे, जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की थी। डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है। डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। नेहरु एक तरफ तो डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले  गए। बताते चलें कि नेहरु जी के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में भयंकर अव्यवस्था फैली और उस भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए। हिन्दू कोड बिल पर भी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु जी से अलग राय रखते थे। जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा. राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था। नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होगा। नेहरू जी ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू जी को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा. राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया। नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रात भर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के लिए थी। आखिर नेहरू जी को कांग्रेस  नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा। जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के घुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए। अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधीजी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति  रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न तो पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु जी इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवड़ियां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज आदि बनाया। एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के चरण स्पर्श कर लिए तो नेहरू जी नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु जी की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु जी की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू जी की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना क्योंकि इससे अंग्रेजी देश की भाषा नहीं बनी रहती, जो नेहरू जी चाहते थे। वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे। जबकि नेहरु जी पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और भारतीयता के विरोधी थे। सारांश यह है कि आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस प्रकार राजेन्द्र बाबू से भयभीत रहते थे। अभी संविधान पर देश भर में चर्चायें हो रही हैं। डा. राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा. भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा. राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ श्रेय तो आखिरकार  डा. राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए। (साभार)

Friday, December 3, 2021

देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद

 महान स्वाधीनता सेनानी, त्याग एवं सादगी की प्रतिमूर्ति, संविधान निर्माता देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद की जयंती पर शत शत नमन! भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू महात्मा गांधी की निष्ठा, समर्पण और साहस से काफी प्रभावित थे। स्वदेशी आंदोलन के अगुआ रहे राजेन्द्र बाबु वर्ष 1928 में कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिए। गांधीजी द्वारा जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार का अपील किया गया तो उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, को कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में नामांकन करवाया था। 



 जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। -देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...