पसंद और लगाव

 पसंद और लगाव 


कहा जाता है, राग, अनुराग स्नेह, प्रेम, लगाव प्रकृति के जीवंत रंग हैं।  ये रंग हम सभी की जिंदगी के अनेक भावों को दर्शाते हैं। जीवन के विशाल रंगमंच पर जीवन के ये रंग ज़िंदगी को यादगार बनाते हैं।  आमतौर पर हम सभी को ये शब्द एक जैसे लगते है।  पर इनके भाव एवं चरित्र में व्यापक अंतर है।  बात करते है पसंद और लगाव की।  हालंकि ये दोनों शब्द आपस में अभिन्नता से जुड़े हुए है। क्योंकि पसंद से ही लगाव की उपज होती है। यानि लगाव की प्राथमिक सीढ़ी पसंद ही है। किसी ने क्या खूब कहा है लगन बने लगाव की तो बयार बहे बदलाव की ।

परंतु यदि भाव की व्यापकता में जाए तो पसंद और लगाव में बड़ा फर्क दिखता है।  पर इसे विडम्बना ही कहेंगे कि लोग आजकल पसंद की ओर ज्यादा मुड़ते जा रहे हैं।  आमतौर पर यह देखा जाता है कि इंसान को कोई भी पसंदीदा/ मनचाही चीज यदि मिल जाए तो वह इसके महत्व को भूलने लग जाता है। ऐसे में पसंद को पाने की तीव्र लालसा हमें अंधी दौड़ की ओर ही धकेलती है। जहां सब कुछ है, मगर प्रेम नहीं है। 

बतौर उदाहरण आज पूर्वी भारत में व्यापकता के साथ मनाया जाने वाला आस्था का त्यौहार हरितालिका व्रत 'तीज' मनाया जा रहा है। मैंने सोशल मीडिया पर तमाम  प्रबुद्ध ? समझी जाने वाली महिलाओं के तीज के मजाक को लेकर कुछ पोस्ट पढ़े । अधिकांश ने इसे स्त्री विरोधी, शोषण का प्रतीक बताया। हो सकता है ऐसी महिलाएं पीड़ित रही हो। जिस कारण से उनमें इस प्रकार की कुंठाओ की उपज हुई हो। मगर मेरे विचार से इस आंतरिक विचार को अपनी पोस्टों के माध्यम से इसे सामाजिक रूप से शोषण का प्रतीक बताना कहीं न कहीं स्वार्थी सोच को ही दर्शाता है। 

समाज के दो महत्वपूर्ण इकाई है स्त्री और पुरुष।   दोनों पर ही इस धरती का अस्तित्व टिका हुआ है। दोनों समान है। ना कोई श्रेष्ठ है और ना कोई कमतर। फिर बेफिजूल का हंगामा क्यूँ? एक पुरुष भी परिवार की खातिर अपना सर्वस्व लुटाता  है। अत: हम किसी एक को महिमामंडित न करें । वर्ना यह पारिवारिक व्यवस्था की नींव को ही कमजोर करेगा। 

मेरे विचार से इस प्रकार की समस्या कहीं न कही लगाव से अधिक निजी सोच या पसंद को तरजीह दिए जाने से उपज रही है। व्यक्ति से जुड़ी अधिकांश समस्याएं लगाव और पसंद के महीन अंतर को न समझ पाने की वजह से ही है।  परंतु इस समस्या का सामाजिक व्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। आवश्यकता है सम्यक्, परिवार-समाज-हितकारी विचारों को प्रभावी बनाने की। 

आज की आभासी दुनिया में तो  हम सब लाइक की ओर ज्यादा देखते /ताकने के शिकार होते जा रहे है।  पर यह  लाइक आभासी दुनिया की तरह ही क्षणिक हो सकता  है।  ज्यों-ज्यों हम बनावटी दुनिया की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, हम अपने-आप में खोते जा रहे है। यह अपने-आप में खोना ही हमें स्वार्थी स्वत्व की ओर मोड़ता है।

ऐसे में जरूरत है पसंद से दूर लगाव को अपनाने की। लगाव ही मानवीय मूल्यों की मजबूत नींव है।  हालांकि लगाव की प्राथमिक सीढ़ी पसंद है।सोशल मीडिया के इस दौर में इस महीन फर्क को समझने की जरूरत है । क्योंकि ज़िंदगी का मतलब सिर्फ़ सफल होना भर नहीं है।  जीवन का मतलब है लगाव से जीवन जीना।  

#साकेत_विचार 

©डॉ. साकेत सहाय

hindisewi@gmail.com

#तीज  #संस्कृति

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