आचार्य विनोबा भावे का अवदान- भूदान आंदोलन, सामाजिक व भाषिक चेतना के प्रति अवदान
भूदान आंदोलन के जनक, नागरी लिपि परिषद के प्रेरणास्रोत आचार्य विनोबा भावे की १४९वीं जयंती पर भावपूर्ण नमन! आज जब देश में रीयल एस्टेट की आड़ में कृषि जोत ख़रीदने की होड़ लगी हुई है। हर कोई ज़मीर से अधिक ज़मीन ख़रीदने की होड़ में शामिल है। अब किसान भी मुँहमाँगी क़ीमत पर अपनी ज़मीन बेच रहे हैं। जिससे भारतीय ग्रामीण परंपरा की नींव दरकती-सी जा रही है। हर पैसे वाला ज़मींदार बनना चाहता है। ग्राम, समाज के प्रति चेतना भी शिथिल पड़ती जा रही है। ज़्यादातर केवल भौतिक निवेश के लिए जमीन ख़रीद रहें हैं। कृषि भूमि छीज रही है। बड़ी-बड़ी जोतें बढ़ते परिवार के साथ छोटी होती गई। समय के साथ जमीन का बंटवारा होता गया और छोट-छोटी जोतों में खेती करना अव्यवहारिक। खेती अनपढ़, अज्ञानी और कमज़ोर पेशा बनकर मात्र रह गया। ग्राम पलायन से भी कई सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हुई। लोग गांव छोड़कर रोजगार तलाशने शहर चले गये। इससे चालाक भूमाफिया वर्ग सक्रिय हुआ और उन छोटी-छोटी कृषि भूमियों को लोभ, लालच व सपने दिखाकर, औने-पौने दामों में खरीदकर वहाँ अमानक कॉलोनियां बसाई जा रही हैं। परिणामस्वरूप लोग अपने ही गांव में बेघर, बेजमीन हो गये। आज की सच्चाई एवं सामाजिक दर्द यही है। इस होड़ के कारण भूदान आंदोलन के जनक आचार्य विनोबा भावे ज़्यादा याद आ रहे हैं।
विनोबा जी की प्रेरणा से लोगों ने भूदान किया। न जाति देखी और न पंथ और न मज़हब देखा। भूदान के बाद विनोबा जी ने वो जमीन भूमिहीनों को दे दी। भूमिहीनों के पास जमीन में फसल उपजाने के लिए न तो पैसा था, न पानी। यह भी दुःखद सच्चाई है कि थोड़े ही दिनों में ही वो जमीन भी या तो भूमाफियाओं ने खरीद ली या दानदाता ने वापस कब्जा कर लिया। भूदान आंदोलन सरकारी प्रबंधन के ग़ैर-सहयोग के कारण विफ़ल भी माना गया। परंतु यह सत्य है हजारों लोगों ने उनके प्रभाव और प्रेरणा से समाज हित में भूदान किया। विनोबा जी का भूदान आंदोलन कालांतर में ज़रूर विफ़ल कहा गया। पर देश उनकी गांधीवादी सोच, भाषिक चेतना, भूदान आंदोलन के कारण सदैव याद करेगा। एक और महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया - चंबल, यमुना खादरों के डाकुओं से आत्मसमर्पण एवं उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित करना। बाद में जयप्रकाश नारायण ने भी इस दिशा में काफी कार्य किया।
ऐसे महापुरुषों के त्याग एवं समर्पण को पढ़कर यह कहा जा सकता है कि सच में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की विरासतें कमज़ोर पड़ रही है। विनोबा जी कहते थे “हमारा शरीर स्वयं ही प्रेम और लगाव की अद्भुत मिसाल है। अंगों में परस्पर अनुपम प्रेम होता है। सब अंग एक दूजे की सेवा में लगे होते हैं ताकि शरीर सुखी रहे । सोते हुए में भी एक अंग को दूसरे की फ़िक्र होती है । शरीर पर कहीं भी मच्छर बैठ जाए तब तत्काल हाथ उठ जाता है काश! समाज भी शरीर-सा हो जाए, जिसमें सभी को सभी की फिक्र हो लेकिन ऐसा होता नहीं है इसलिए दुख दर्द की अवस्था कही न कही बची-बनी रहती है। जब प्रेम का अभाव होता है, तब दुःख अक्सर घृणा में बदल जाता है और घृणा ही हिंसा पर उतारू हो जाती है। “
आज देश की युवा पीढ़ी अपनी भाषा और लिपि को हीनता बोध से देखती है। रोमन लिपि की अपसंस्कृति हावी है। ऐसे में विनोबा जी के विचारों को अपनाने की आज ज़्यादा ज़रूरत है। परमार्थ का भाव लुप्त होता जा रहा है। हड़पने की दबंगई चलन में है। काश कि “सबै भूमि गोपाल की” यह सोचकर भूदान और बेघरों के लिए सहयोग हेतु फिर से दरियादिली दिखाते हुए लोग आगे बढ़ते हुए आएं।
विनोबा जी को नमन🙏
-डॉ साकेत सहाय
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक
hindisewi@gmail.com
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