अरबी व्याकरण के निर्माण में संस्कृत व्याकरण परंपरा का योगदान

 "अरबी व्याकरण के निर्माण में संस्कृत व्याकरण परम्परा का योगदान"

-  आचार्य  बलराम शुक्ल 

 फ़ारसी विभाग, दि॰वि॰वि॰ तथा इ॰गा॰रा॰क॰केन्द्र द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में आज १५.०३.२०२२ को एक महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा का अवसर मिला, जिसका सार यह है कि अरबी भाषा के व्याकरण संस्कृत वैयाकरणों के मॉडल पर तैयार किये गये थे। प्रायः यह समझा जाता है कि दर्शन तथा चिकित्साशास्त्र इत्यादि विद्यास्थानों की तरह अरबों ने अपने व्याकरण के प्रतिदर्श तथा तकनीकें भी यूनानी अथवा लातीनी मूल ग्रन्थों अथवा उनके अनुवादों से प्राप्त कीं। परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न ही है। प्रसिद्ध ईरानी भारतविद् प्रो॰ फ़त्हुल्लाह मुज्तबाई ने अपनी पुस्तक “नह्वे हिन्दी व नह्वे अरबी: हमानन्दी–हा दर ता,रीफ़ात, इस्तिलाहात व तर्हे क़वायद” (भारतीय तथा अरबी व्याकरण: पारिभाषिक, शब्दावलीगत तथा तकनीकी समानताएँ ) में पाश्चात्त्य विद्वानों की इस धारणा का बहुत सारे शोधपूर्ण तर्कों के द्वारा खण्डन किया है। यह पुस्तक भारतीय व्याकरण शास्त्र के विश्व विजय के एक महत्त्वपूर्ण सोपान का डिण्डिमघोष करती है। मुस्लिम विद्वानों के पास अरबी भाषा के लिए व्याकरण बनाने का प्रतिदर्श न तो अरबों से आया था (क्योंकि उनके पास इसकी परम्परा नहीं थी) और न ही यूनानियों से (क्योंकि उनके व्याकरण इतने विकसित नहीं थे)। प्रश्न उठता है कि उनके पास व्याकरण का प्रतिदर्श आया कहाँ से? क्योंकि स्वयं पारसियों के पास अवेस्ता या पुरानी फ़ारसी का अन्वाख्यान करने वाला कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं था। अनेकानेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि यह प्रतिदर्श उन्होंने भारतीयों से प्राप्त किया था और वह प्रतिदर्श संस्कृत व्याकरण का था। अरबी भाषा के प्रारम्भिक व्याकरण उन ईरानी विद्वानों के द्वारा लिखे गए हैं जो ईरान के सीमावर्ती ख़ुरासान प्रान्त के रहने वाले थे तथा भारतीय व्याकरण की प्रविधियों से परिचित थे। ध्यातव्य है कि बौद्ध संस्कृति इस्लाम के आगमन से पहले ईरान के पूर्वी सीमाओं पर सीस्तान और मकरान से लेकर बल्ख, समरकन्द और बुख़ारा तक फैली हुई थी। उनमें रहने वाले ईरानी विद्वानों का संस्कृत व्याकरण (सम्भवतः कातन्त्र) से प्रगाढ परिचय था। संस्कृत तथा उसकी सुग़्दी और ख़ुतनी भाषाओं में हुए अनुवादों की पाण्डुलिपियों के जो भण्डार मध्य एशिया में मिले हैं उनसे इन प्रदेशों में भारतीय ज्ञान विज्ञान के प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है। इन पुस्तकों में प्रायः सभी सामग्री बौद्ध धर्म के ग्रन्थ हैं लेकिन उनके बीच ज्योतिष तथा आयुर्वेद की किताबों के साथ संस्कृत व्याकरण की पुस्तक के अंश भी मिले हैं। ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र के बौद्ध इरानियों ने इस्लाम के विजय के बाद इस नये धर्म को स्वीकार करने के साथ स्वयं इस्लामी जगत् में इन प्राचीन कला और विज्ञान के प्रसार के साधन बन गये। (मु॰५६)। यहाँ तक कि इस्लाम के शुरुआती काल में ७८ हिजरी तक ईराक़ में तथा१२४ हिजरी तक ख़ुरासान में आर्थिक विभाग और महासिबात की भाषा फ़ारसी थी और वह फ़ारसी कर्णिकों के हाथ में थी(मु॰६०)। बाद में धर्म परिवर्तन के बाद इन्हीं विद्वानों ने "मवाली" अथवा "मुल्ला" के नाम से ख़िलाफ़त के दीवानी और दौलती कामों को अपने हाथों में ले लिया। यही मवाली लोग अथवा उनकी सन्तानें अरबी के शुरुआती वैयाकरण थे। अरबी व्याकरण इन्हीं के माध्यम से प्रारम्भ होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त हुआ। ध्यान देने की बात है कि अरबी के इल्मे क़िराअत (क़ुरान के पाठ करने की विद्या) और व्याकरण के प्राथमिक चार आचार्य जिन्हें इस विद्या की नींव डालने वाला माना जाता है वे इन्हीं मवालियों में से थे- नस्र बिन आसिम (मृ॰८९), याह्या बिन या,म्र (मृ॰१२९), अब्दुल्लाह बिन अबू इसहाक (मृ॰११७), अब्दुर्रहमान बिन हुर्मुज़ (मृ॰ १२९) (मु॰६१)। –––––––––––––––– अनेक तर्कों से प्रो॰ मुज्तबाई यह सिद्ध कर सके हैं कि अरबी व्याकरण की रचना संस्कृत व्याकरण के प्रभाव से ही हो सकी थी। फ़ारसी में लिखी यह पुस्तक भारतीय लोगों के लिए इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसका अविकल अनुवाद अत्यन्त अपेक्षित है। 

साभार  आचार्य डॉ.बलराम शुक्ल जी का आलेख

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