Saturday, November 27, 2021

मेरी स्वरचित कविता-जिंदगी एक सपर




जिंदगी कई नए रंग देती है। यह  रंग हमें  जीवन यात्रा को देखने, महसूस करने का अवसर देती है। वास्तव में हम सभी एक यात्री के रूप में इस सफर को महसूस करते है। यहीं तो जिंदगी है। आइए महसूस करते है इस कविता के माध्यम से- मेरी स्वरचित कविता 

सफर सफर इच्छाओं का 

सफर आकांक्षाओं का सफर 

अरमानों का सफर

उम्मीदों का सफर 

ना-उम्मीदों का सफर 

आशावाद का सफर 

प्रतीकवाद का सफर 

बचपन का सफर 

जवानी का सफर 

बुढ़ापे का सफर

 जीवन के हर मोड़ का सफर 

बदलाव का सफर 

नए आयाम का सफर 

कुछ पाने का 

कुछ खोने का सफर

 ग़ैरत का सफर 

बेगैरत का सफर 

तनाव का सफर 

कुछ खोकर पाने का सफर

कुछ देकर पाने का सफर 

अपने को खोकर 

 स्वयं को पाने का सफर 

खुशियों का सफर

गमों का सफर 

इन सब में 

संतुलन बनाने का सफर 

स्वयं को स्थापित करने का सफर 

अपने अधिकारों को पाने का सफर 

अपने कर्तव्यों को जानने का सफर 

जिम्मेदारियों का सफर 

खुद के बडे होने का सफर 

बड़ो से सीखने का सफर 

छोटे से बड़े बन जाने का सफर 

मानवता का सफर

 बराबरी का सफर 

दूसरों के हकों के लिए 

लड़ने का सफर 

स्वयं को बचाने का सफर 

खुद को समझने का सफर 

खुद को जानने का सफर 

यादों का सफर 

उम्मीदों का सफर 

कुछ पाने का सफर 

जीवन में कुछ बनने का सफर 

मन का सफर 

भाव का सफर 

रोमांच का सफर 

जो पा लिया 

उस सफर के अनुभव का 

जो नहीं पाया 

उस सफर के स्वप्न-पथ का सफर 

मिट्टी में मिल जाने

यही तो है जिंदगी का सफर 

#जिंदगी एक सफर 

©डाॅ. साकेत सहाय 



#साकेत_विचार

शादियों में बढ़ता ताम-झाम

शादी को पारिवारिक प्रसंग बनाइए आज तक जितनी शादियों में मैं गया हूँ , उनमें से करीब 80% में दुल्हा- दुल्हन की शक्ल तक नही देखी... उनका नाम तक नहीं जानता था... अक्सर तो विवाह समारोहों मे जाना और वापस आना भी हो गया पर ख्याल तक नहीं आया और ना ही कभी देखने की कोशिश भी की कि स्टेज कहाँ सजा है, युगल कहाँ बैठा है... भारत में लगभग हर विवाह में हम 75% ऐसे लोगों को आमंत्रित करते हैं जिसे आपके वैवाहिक आयोजन, व्यवस्था में कोई खास रुचि नही, जो आपका केवल नाम जानती है... जिसे केवल आपके घर का पता मालूम है, जिसे केवल आपके पद- प्रतिष्ठा, रसूख से मतलब है.. और जो केवल एक शाम का स्वादिष्ट और विविधता पूर्ण व्यञ्जनों का स्वाद लेने आती है।  

आज की पेशवर शादियों का सच बन चुका है।  विवाह कोई सत्यनारायण भगवान की कथा नहीं है कि हर आते जाते राह चलते को रोक रोक कर प्रसाद दिया जाए... *केवल आपके रिश्तेदारों, कुछ बहुत close मित्रों के अलावा आपके विवाह मे किसी को रुचि नही होती...* ये ताम-झाम , पंडाल झालर , सैकड़ों पकवान , आर्केस्ट्रा DJ , दहेज का मंहगा सामान एक संक्रामक बीमारी का काम करता है... *लोग आते हैं इसे देखते हैं और "मै भी ऐसा ही इंतजाम करूँगा, बल्कि इससे बेहतर"...* और लोग करते हैं... चाहे उनकी चमड़ी बिक जाए.. *लोग 75% फालतू की जनता को show off करने में अपने जीवन भर की कमाई लुटा देते हैं.. लोन ले लेते हैं...* और उधर विवाह मे आमंत्रित फालतू जनता , गेस्ट हाउस के gate से अंदर सीधे भोजन तक पहुंचकर , भोजन उदरस्थ करके , लिफाफा पकड़ा कर निकल लेती है... आपके लाखों का ताम झाम उनकी आँखों में बस आधे घंटे के लिए पड़ता है... *पर आप उसकी किश्तें जीवन भर चुकाते हो...इस अपव्यय और दिखावे को रोकना होगा...* *सोचियेगा जरूर*

गुरु तेगबहादुर, किसान, और पंजाब



 दिखी न दूजी जाति कहुँ , सिक्खन -सी मजबूत , 

 तेग बहादुर - सो पिता , गुरुगोविंद सो पूत ।


 धर्म और मानवता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी दिवस पर मन में कुछ विचार आए। गुरु तेगबहादुर जी ने धर्म एवं संस्कृति के रक्षार्थ मुगलों के आगे कभी हार नहीं मानी। हाल में हमने देखा कि किस प्रकार से पंजाब के मजबूत समृद्ध किसानों ने राजनीतिक आंदोलन के नाम पर किसान कानून को निरस्त करवा दिया। हालांकि इस कानून को वापस करके सरकार ने कुछ नया तो नहीं किया, क्योंकि तीनों कानून पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण लंबित थे। पर आंदोलनजीवियों की राजनीतिक हठधर्मिता के कारण इस कानून में किसी भी प्रकार से संतुलन भी नही लाया जा सका था। अब सरकार ने एक राजनीतिक निर्णय के तहत इसे वापस ले लिया है, जिसे हठधर्मी किसान नेताओं की जीत मानी जा सकती है। अब आते है मूल बात पर। इस हठधर्मिता का अभिनंदन! पंजाबी समुदाय अपनी जिद, दृढ़ता, बहादुरी एवं मेहनत के कारण जाना जाता है। इस समुदाय ने अपनी इन्हीं गुणों के कारण पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया है। इस आंदोलन में हासिल जीत भी उनकी इसी दृढता का परिचायक है। अब अनुरोध है इस समुदाय से कि देश के बंटवारे ने भारत विशेष रूप से इस समुदाय का बहुत अधिक नुकसान किया है। भारतीय समाज के महान संत गुरुनानक जी की जन्म स्थली और प्रभु श्रीराम के सुपुत्र लव द्वारा स्थापित शहर को हमसे छीन लिया है। अब इसे पाने हेतु एक ऐतिहासिक दृढता की जरूरत है जिस हेतु पूरा भारत आपके साथ खड़ा होगा। इस हेतु पहली जरूरत यह है कि यह समुदाय धर्म आधारित भारत के विभाजन का विरोध करें और पूरे पंजाब को भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाने हेतु आंदोलन करें । अविभाजित भारत के समृद्ध टुकड़े को फिर से एक करने हेतु आपको पूरी ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य करना होगा । चाहे इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ तक क्यों न जाना पड़े। आप अपने जिद एवं समर्पण से इस कार्य को कर सकते है। जिस प्रकार से आपने इस कानून को निरस्त कराने में योगदान दिया, अब आप पाकिस्तान पर दबाव बनाए कि वे भारतीय संस्कृति के इस खंड को वापस करें , इससे अखंड भारत के निर्माण का एक बड़ा मार्ग प्रशस्त होगा । जय हिंद! जय भारत !! #साकेत_विचार #पंजाब #किसान #देश_विभाजन

Thursday, November 25, 2021

संविधान दिवस और देशरत्न डाॅ राजेन्द्र प्रसाद

संविधान दिवस 

आइए ! संविधान को सशक्त करने में अपना योगदान दें। 


संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में समिति को संबोधित करते हुए कहा था "यदि लोग, जो चुनकर आएंगे योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वह दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। हमारे में सांप्रदायिक, जातिगत, भाषागत और प्रांतीय अंतर है। इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले और दूरदर्शी लोगों की जरूरत है जो छोटे छोटे समूह तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें।" इस संबोधन से स्पष्ट है कि देश को एक सशक्त, पारदर्शी नेतृत्व की जरूरत प्रारंभ से ही रही है। ऐसा नेतृत्व जो देश के व्यापक हितों को समझे न कि छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान करें ।

आइए भारतीयता एवं मानवता के लिए संविधान के मूल अर्थ को समझें। 

 जय हिंद ! जय हिंदी !! #संविधान_दिवस

भाषिक आत्महीनता


इस बार भी #valleyofwords वालों ने वही गलती करीं। वैली ऑफ वर्ड्स यानी शब्दों की घाटी, अब भला भारत में शब्दों की घाटी का आयोजन हो और बैनर अंग्रेजी में! वो भी तब जब यह देश विनोबा भावे जी की 125वीं वर्षगाँठ मनाने की तैयारी कर रहा है। जो हिंदी और देवनागरी लिपि के समर्थक थे। पर इनके लिए न हिंदी का महत्व है न संविधान का। यूँ तो हर चीज में संविधान का हवाला देंगे। पर भाषाई असमानता पर मौन? रोज ही बच्चे पीस रहे है अंग्रेजी की वजह से। पर किसी में हिम्मत नहीं । हम जड़ हो चुके है। हम अपनी भाषाओं को कब महत्व देंगे । हर आयोजन में विशेष रूप से निजी आयोजनों में हिंदी एवं देशी भाषाओं की अवमानना की जाती है। पिछली बार भी की थी, इस बार भी, हर बार करेंगे । क्योंकि अंग्रेजी से सम्मान जो बढ़ता है। ऐसे लोग गांधीजी के भक्त बनेंगे, सरकारों को कोसेगें। सरकारें भाषा के मामले में बहुत कुछ करती है। पर हम? कूंद हो चुके है। हर बड़े आयोजन में अंग्रेजी । कब आएगी अपनी भाषाएं। #जेएनयू की 30 से 300 पर राजनीतिक विरोध करने वालो, अन्य विषयों पर हंगामा बरपाने वालों को इस देश में शिक्षा में व्याप्त भाषिक असमानता नहीं दिखतीं । टीवी पर कार्यक्रमों में पश्चिमी छाप नहीं दिखतीं । हमारी संस्कृति, संस्कार सब कुछ दकियानूसी हैं? यह तस्वीर पिछले साल की है, पिछ्ली बार भी मैंने लिखा था। विरोध भी किया था। हर बार लिखेंगे। पिछला पोस्ट #एक तरफ कहते हैं कि हिंदी अंतरराष्ट्रीय भाषा है राष्ट्रभाषा है जन भाषा लोकभाषा है तमाम विशेषण है। हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनेगी । पर देवभूमि या हिंदी प्रदेश में ही लोक साहित्य की भाषा या लिपि गायब हैं ।तमाम साहित्यिक धुरंधर बैठे है। कैसे होगा विकास? क्या हिंदी में लिख देने से कद छोटा हो जाएगा आयोजकों का? बहुत दुःख होता है। सरकारें क्या करें! हमारी मानसिकता ही कुंद हो चुकी है। सोचिएगा! #valleyofwords के बैनर से अपने शब्द गायब। #साकेत_विचार

Tuesday, November 23, 2021

पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण

पीढ़ी के साथ संस्कृति का क्षरण ! 

जब बच्चे महर्षि वेदव्यास , वाल्मीकि, संत तिरुवल्लुवर, रामानुज, कबीर, नानक, महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द सिंह से इतर सेंट अलबर्ट, जेवियर्स, जोसेफ, माइकल,केरेन के नाम और संस्कृति से प्रभावित होंगे तो भारतीय संस्कृति नाम की ही बचेगी। हमारी पूरी संस्कृति शिक्षा और संस्कारों के अपसंस्कृति के कारण विलुप्ति की ओर हैं । सब कुछ में मिलावट। किसी प्रकार की शुद्धता नहीं, यह स्थिति तब और कठिन होगी जब एक से दो दशक में भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाली, पालन करने वाली पीढ़ी अपनी वय पूरी कर परलोक गमन कर जाएगी। अनुशासन से जीने वाली, ब्रह्ममूहर्त में जगने वाली, रात को जल्दी सोने वाली, आस-पड़ोस को परिवार का सदस्य मानने वाली, रिश्तों का लिहाज करने वाली, घर के आंगन, दालान, तुलसी का चौबारा, ब्रह्मबेला में देवपूजा के लिए पुष्प तोड़ने वाली, पूजा-पाठ करने वाली, प्रतिदिन मंदिर जाने वाली आदि का पालन करने वाले पीढ़ी कम हो रही है। घर से निकलते ही रास्ते में मिलने वालों से बात करने वाली, उनका सुख-दु:ख पूछने वाली, बड़े-बुजुर्ग के पैर छूने वाली, प्रणाम करने वाली, पूजा किये बगैर अन्नग्रहण न करने वाली, चाचा-चाची, मामा-मामी, फूफा-फुआ, मौसा-मौसी आदि के नाम से अपने रिश्तों को पहचानने वाली पीढ़ी अब सिर्फ अंकल तक सिमटती जा रही है। तीज-त्यौहार, अतिथि देवो भव, शिष्टाचार, अन्न, धान्य, सब्जी, तीर्थयात्रा, चाहे कोई भी पंथ धारी हो, पर सनातन पंथ के रीति रिवाजों में आस्था रखने वाली पीढ़ी खो-सी रही है। बेहद संतुष्टि के साथ जीने वाली, पंचाग याद रखने वाली, हिंदी माह याद रखने वाली, दीपावली के छः दिन बाद छठ का तर्क देने वाली पीढ़ी, अमावस्या और पूर्णमासी याद रखने वाली, ईश्वर पर अपने-से अधिक विश्वास रखने वाली, समाज से लिहाज पालने वाली, पुरानी चीजों पर यकीन करने वाली, घर में परिवार और समाज के लिए निःशुल्क अचार-पापड़ बनाने वाली, घर का बना मसाला इस्तेमाल करने वाली, अपने खेत का सब्जी खाने वाली पीढ़ी अब खो-सी रही है। जरूरत है भारत के लिए इस पीढ़ी को बचाने की, जरूरत है इनकी नज़र उतारने की। क्योंकि यह पीढ़ी अब खो, समाप्त या कमजोर पड़ रही है। इनके खो-जाने, कमजोर पड़ने से एक महान जीवन शैली, महत्वपूर्ण सीख, गहरे समंदर में डूब जायेगी। आज के इस भागम-भाग में संतोषप्रद, सादगीपूर्ण, मिलावटरहित, धर्म सम्मत मार्ग पर चलने वाला आत्मीय जीवन खो-सा गया है। जरुरत है इनसे सीखने की। स्वयं के लिए,परिवार के लिए, समाज के लिए,देश के लिए । सच में किसी ने कहा है 'यह मानव इतिहास की आखिरी पीढ़ी है , जिसने अपने-से बड़ों की सुनी और अब अपने छोटों की भी सुन रही हैं।'

Friday, November 19, 2021

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस - कुछ विचार

 कल बड़ी ख़ामोशी के साथ एक दिवस आया और चला गया। हर विषय पर मुखर रहने वाला सोशल मीडिया भी मौन रहा। अंध मुखरता के कारण यह वर्ग बड़ी खामोशी के साथ खुद को बदनाम महसूस कर रहा है। जैसे सरकार ने एक नकारात्मक भय से किसान कानून निरस्त कर दिया । खैर यहाँ हम बात कर रहे है अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस की। वैसे खुशी इस बात की है कि अन्य दिवसों की भांति इस मूक मजदूर वर्ग के लिए कोई तो दिवस बना। अन्यथा, यह वर्ग तो अपनी झूठी शान में जी रहा है। समाज में आधी से अधिक आबादी का हिस्सा इस तथाकथित अत्याचारी समाज से अपील है कि अपनी कमियों को पहचाने, अपनी खूबियों को जाने। आप समाज के महत्वपूर्ण हिस्सा है। आप निर्माता नहीं, पर निर्माण के स्तंभ जरूर हैं । समाज आपके बिना चल नहीं सकता। क्योंकि वर्तमान में समाज के बड़े हिस्से की अंधभक्ति में हम भावी पीढ़ी के लड़कों का हश्र वहीं न कर दें जो आज से तीन सदी पूर्व लड़कियों के साथ होता था। आज का यथार्थ यह है कि लडकें भी शोषण का शिकार हो रहे हैं। समाज का मूल स्वभाव है 'सख्तर भक्तों, निर्ममों यमराज'। वैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस 2021 का मुख्य प्रसार उद्देश्य पुरुष-स्त्री के बीच बेहतर संबंध, सामंजस्य का निर्माण करना है। वर्ष 1999 के बाद से, अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के रूप में सार्वजनिक आयोजनों की शुरुआत हुई । इस दिवस का मूल उद्देश्य जीवन में पुरुष के रूप में स्थापित हुए संबंध यथा, भाई, पिता, पति, दोस्त के साथ दिल और दिमाग़ में रिश्ता बैठाकर उनके साथ समय बिताना, उनकी समस्याएं जानना। साथ ही उन्हें इस बात का भी अहसास दिलाना कि वे अपने आसपास के लोगों के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, उनके जीवन को कैसे समृद्ध करते हैं। यहीं सार्थकता है इस दिवस की। हालांकि इस प्रकृति के अनुसार पुरुष का पौरुष और स्त्री का स्त्रीत्व बना रहे, यही प्रार्थना है।


#साकेत_विचार 



Friday, November 12, 2021

ट्रेन में बर्थ आवंटन की प्रक्रिया

 सभी के लिए कुछ दिलचस्प।


 क्या आप जानते हैं कि IRCTC आपको सीट चुनने की अनुमति क्यों नहीं देता है?  क्या आप विश्वास करेंगे कि इसके पीछे का तकनीकी कारण PHYSICS है।


 ट्रेन में सीट बुक करना किसी थिएटर में सीट बुक करने से कहीं अधिक अलग है।


 थिएटर एक हॉल है, जबकि ट्रेन एक चलती हुई वस्तु है।  इसलिए ट्रेनों में सुरक्षा की चिंता बहुत अधिक है।


 भारतीय रेलवे टिकट बुकिंग सॉफ्टवेयर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि यह टिकट इस तरह से बुक करेगा जिससे ट्रेन में समान रूप से लोड वितरित किया जा सके।


 मैं चीजों को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेता हूं: कल्पना कीजिए कि S1, S2 S3... S10 नंबर वाली ट्रेन में स्लीपर क्लास के कोच हैं और प्रत्येक कोच में 72 सीटें हैं।


 इसलिए जब कोई पहली बार टिकट बुक करता है, तो सॉफ्टवेयर मध्य कोच में एक सीट आवंटित करेगा जैसे कि S5, बीच की सीट 30-40 के बीच की संख्या, और अधिमानतः निचली बर्थ (रेलवे पहले ऊपरी वाले की तुलना में निचली बर्थ को भरता है ताकि कम गुरुत्वाकर्षण केंद्र प्राप्त किया जा सके)


 और सॉफ्टवेयर इस तरह से सीटें बुक करता है कि सभी कोचों में एक समान यात्री वितरण हो और सीटें बीच की सीटों (36) से शुरू होकर गेट के पास की सीटों तक यानी 1-2 या 71-72 से निचली बर्थ से ऊपरी तक भरी जाती हैं।


 रेलवे बस एक उचित संतुलन सुनिश्चित करना चाहता है कि प्रत्येक कोच में समान भार वितरण के लिए होना चाहिए।


 इसीलिए जब आप आखिरी में टिकट बुक करते हैं, तो आपको हमेशा एक ऊपरी बर्थ और एक सीट लगभग 2-3 या 70 के आसपास आवंटित की जाती है, सिवाय इसके कि जब आप किसी ऐसे व्यक्ति की सीट नहीं ले रहे हों जिसने अपनी सीट रद्द कर दी हो।


 क्या होगा अगर रेलवे बेतरतीब ढंग से टिकट बुक करता है?  ट्रेन एक चलती हुई वस्तु है जो रेल पर लगभग 100 किमी / घंटा की गति से चलती है।

 इसलिए ट्रेन में बहुत सारे बल और यांत्रिकी काम कर रहे हैं।


 जरा सोचिए अगर S1, S2, S3 पूरी तरह से भरे हुए हैं और S5, S6 पूरी तरह से खाली हैं और अन्य आंशिक रूप से भरे हुए हैं।  जब ट्रेन एक मोड़ लेती है, तो कुछ डिब्बे अधिकतम केन्द्रापसारक बल का सामना करते हैं और कुछ न्यूनतम, और इससे ट्रेन के पटरी से उतरने की संभावना अधिक होती है।


 यह एक बहुत ही तकनीकी पहलू है, और जब ब्रेक लगाए जाते हैं तो कोच के वजन में भारी अंतर के कारण प्रत्येक कोच में अलग-अलग ब्रेकिंग फोर्स काम करती हैं, इसलिए ट्रेन की स्थिरता फिर से एक मुद्दा बन जाती है।


 मुझे लगा कि यह एक अच्छी जानकारी साझा करने लायक है, क्योंकि अक्सर यात्री रेलवे को उन्हें आवंटित असुविधाजनक सीटों/बर्थों का हवाला देते हुए दोष देते हैं।


Thursday, November 11, 2021

छठ पर्व की महत्ता













हमारे घर-समाज में छठी मइया की व्रत-पूजा की समृद्ध परम्परा रही है। परंपरागत रूप से घर के वरिष्ठ सदस्य माता, अपवाद स्वरूप पुरूष भी छठ व्रत करते थे। हालांकि समय के साथ इस स्वरूप में बदलाव आए है। 
छठ पर्व यह सीख देता है कि  प्रकृति अथवा सृष्टि में सब कुछ क्षणभंगुर है,  समय के साथ बस रूपांतरण होता रहता है, अतः अहंकार का त्याग कर हर छोटी से छोटी वस्तु का सम्मान करना चाहिए।   जो उदय हुआ उसका अस्त होना तय है। इसकी अनुभूति छठ के अवसर पर अस्त होते सूर्यदेव तथा उगते सूर्य को आराधना के दौरान होती है। 
छठ पर्व की परम्परा को आगे बढ़ाने में पीढ़ीगत क्रम में परिवार के सदस्यों द्वारा इसे अपनाने की परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है। बचपन से इस व्रत को देखने वाले, इसे करने वाले इसके सहज स्वरूप के कारण इसे अपनाते चले गए । दादी, छोटकी दादी, बड़की चाची, माँ, बड़की भाभी, पत्नी या घर के पुरूष द्वारा इसे करने से छठ की समृद्ध परंपरा स्थापित होती गयी। घर के बच्चों में भी इससे समृद्ध संस्कार का निर्माण हुआ । बच्चों को यह व्रत परम्परा बहुत लुभाती हैं । इसके लोक गीत, गांवों, परंपराओं की ओर खींचते हैं । परिवार के सभी बच्चे इस अवसर पर इकट्ठा होकर परिवार में समृद्ध पारिवारिक संस्कृति की नींव रखते थे। छठ का प्रकृति से करीब होना बच्चों को माटी से जोड़ता था। सारे बच्चे घर पर जुटते थे। बच्चों का आपस में खेलना कूदना एक अलग रस देता था। खरना का प्रसाद, ठेकुआ, गन्ना का प्रसाद, शरीफा खाना, अन्नानाश खाना, गुड़ से बनी खीर, सभी को भाती। गांव-नगर के पोखर सामुदायिक पर्व का स्वरुप बनाते थे । पहले छठ-होली का पर्व जाति, धर्म से ऊपर गांव-घर का सबसे बड़ा त्यौहार होते थे। सभी को स्वीकार्य, कोई विरोध नहीं। आनंद, त्याग और समर्पण का बोध। परिवार में भी जुटान, उत्सव की भांति, कोई कहीं भी रहे, इस अवसर पर सभी जुटते थे। इसमें सभी शामिल होने आते थे। कमरे भले छोटे होते थे, पर लोग बड़े से ज्यादा प्रेम और दिल से जुटते थे। एक ही कमरे में परिवार के सभी लोग जमा होते थे। सामान्य स्वरूप में छठ मइया का व्रत शाम और भोर में भगवान भास्कर को साक्षी मानकर छठी मइया को अर्घ्य देने की परंपरा और पूजा हैं । बच्चों, प्रियजनों के स्वस्थ रहने और लम्बी उम्र की कामना के साथ छठी मइया के लिए यह कठिन तप किया जाता है।छठ व्रत की अनूठी विशेषता इसकी सादगी, सफाई और शुद्धता के साथ करने की परंपरा है। सादगी, स्वच्छता और शुद्धता का सीधा सम्बन्ध प्रकृति और पर्यावरण से है और पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध हमारे शरीर और मन से है। स्वास्थ्य और स्वच्छता के महत्व को कोरोना जैसी महामारी ने पुनः बोध कराया है। जिससे पूरी दुनिया जूझ रही है। ऐसे में छठ व्रत करने की परंपरा और इसकी वैज्ञानिकता आकर्षित करती है। छठ एक वैज्ञानिक पर्व है। यह पर्व हमें प्रकृति-पर्यावरण से जुड़ने की प्रेरणा देता है। हमें हमारी लोक भाषा और संस्कृति से भी जोड़ता है। हम संस्कृति, भाषा और पर्यावरण से जब तक अपने को जोड़े रखेंगे। अपनी माँ की तरह उससे प्रेम करेंगे, उसका प्रसार करेंगे और सम्मान करेंगे, हम स्वस्थ और समृद्ध रहेंगे । जिसका उदय होता है उसका अस्त होना तय है । पर समय के साथ उसकी समृद्ध विरासतें ही सुदृढ़ संस्कृति का निर्माण प्रशस्त करती हैं । छठ का यही संदेश हैं । छठ पर्व में समय के साथ आडंबर भी जुड़े हैं, पर इसकी मूल प्रवृति स्थायी है। छठ का यही संदेश हैं । 

साकेत सहाय

 #साकेत_विचार 

 #छठ 

#लोक_संस्कृति 

#लोक_पर्व


Wednesday, November 10, 2021

बिहार निर्माता डा. सच्चिदानंद सिन्हा -भारत के अग्रणी संविधान निर्माता

आधुनिक बिहार के निर्माता डाॅ सच्चिदानंद सिन्हा की जयंती पर शत शत नमन! 

उनसे जुड़ा एक संस्मरण है 'विधि शास्त्र की उच्च शिक्षा प्राप्त करके जब डाॅ सिन्हा बिहार लौटेें तो उनसे एक पंजाबी अधिवक्ता ने पूछा आप किस प्रदेश से हो तो उन्होंने उत्तर दिया बिहार से। वे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि उस समय बिहार का एक प्रदेश के रूप में गठन नहीं हुआ था। बिहार ब्रिटिश शासन में बने बंगाल का भाग था। अधिवक्ता महोदय ने पूछा कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो हिंदुस्तान में है ही नही तब डाॅ सिन्हा ने जवाब दिया कि है नहीं पर जल्दी ही हो जाएगा। यह बात फरवरी 1893 की है। उसके बाद मात्र 9 वर्षों के भीतर बिहार राज्य की सशक्त नींव रखी गयी। कहा जाता है जो स्थान बंगाल के नव निर्माण में राजा राम मोहन राय का है वहीं स्थान बिहार के नव निर्माण में डाॅ सच्चिदानन्द सिन्हा का है। साथ ही देश के युवाओं को यह भी नोट करनी चाहिए कि आधुनिक भारत के संविधान के निर्माण में कायस्थ कुल रत्न स्व. डा. सच्चिदानंद सिन्हा की अहम् भूमिका रही। वे बिहार की भोजपुरी माटी के महत्वपूर्ण स्थल बक्सर जिले के मूल निवासी थे। उनका जन्म वर्तमानु डुमरांव अनुमंडल के चौंगाई प्रखंड के मुरार गांव में 10 नवंबर 1871 ई. को हुआ था। पर दुर्भाग्य है इस देश का जहां आज का समाज वोट से निर्धारित होता है। तभी तो देश या बिहार के लोग वोट खेंचक को तो जमकर याद करते है पर इन्हें कोई नही याद नहीं करता क्योंकि इनके पीछे कोई बड़ा वोट बैंक नहीं था। विधिवेत्ता सच्चिदानन्द सिन्हा को वरिष्ठता और श्रेष्ठता के कारण संविधान सभा का अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया। पं. जवाहरलाल नेहरू ने अधिकृत नियम बन जाने तक कार्य संचालन के लिए यह प्रस्ताव रखा कि जब तक संविधान सभा अपने संचालन की नियमावली स्वयं नहीं बना लेती तब तक केंद्रीय धारा सभी के नियमानुसार यथासंभव कार्य किया जाय। तदनुसार कार्य प्रणाली को बनाने के लिए श्री जे.बी. कृपलानी ने केन्द्रीय धारा सभा के नियमों के अनुसार एक लम्बा प्रस्ताव भेजा जिसके अनुसार संविधान सभा को वह नियम निर्माण समिति (प्रोसोडवोर कमेटी) गठित करना था जो संविधान सभा की कार्य प्रणाली के नियम और उसके अधिकारों का नियमन करने के प्रारूप बनाकर संविधान सभा में उसको स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करती। कृपलानी जी का यह प्रस्ताव समस्त संविधान सभा सदस्यों के पास भेजा गया कि अगली बैठक की तिथि के पूर्व तक यदि कोई संशोधन हो तो सचिव संविधान सभा तक पहुँचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं हो सकता। इस पर माननीय रघुनाथ विनायक धुलेकर ने इस प्रस्ताव पर यह संशोधन भेजा कि यह कार्य नियमावली गठन समिति अपने नियम हिंदुस्तानी में बनाये। वे नियम अंग्रेज़ी में अनुवाद किये जा सकते हैं। जब कोई सदस्य किसी नियम पर तर्क करे तो वह मूल हिन्दुस्तानी का उपयोग करे और उस पर जो निर्णय किया जाये वह भी हिंदुस्तानी में । जिसका समर्थन सच्चिदानंद सिन्हा ने किया। डा. सिन्हा के पिता बख्शी शिव प्रसाद सिन्हा डुमरांव महाराज के मुख्य तहसीलदार थे। डा.सिन्हा की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा गांव के ही विद्यालय में हुई। महज अठारह वर्ष की उम्र में 26 दिसंबर, 1889 को उन्होंने उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड प्रस्थान किया। वहां से तीन साल तक पढ़ाई कर सन् 1893 ई. में स्वदेश लौटे। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दस वर्ष तक बैरिस्टरी की प्रैक्टिस की। उन्होंने इंडियन पीपुल्स एवं हिंदुस्तान रिव्यू नामक समाचार पत्रों का कई वर्षों तक संपादन किया। बाद में बंगाल से पृथक बिहार के निर्माण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। डॉ सच्चिदानंद जैसे सपूत का होना देश के लिए गर्व की बात है। वे सन् 1921 ई. में बिहार के अर्थ सचिव व कानून मंत्री का पद सुशोभित किये। तत्पश्चात पटना विश्वविद्यालय में उप कुलपति के पद पर रहते हुए उन्होंने राज्य में शिक्षा को नया आयाम दिया। 6 मार्च, 1950 को भारत के इस महान सपूत का निधन हो गया। डा.सिन्हा की स्मृति में आज पटना में सिन्हा लाइब्रेरी स्थापित है। जिसकी स्थिति बहुमूल्य पांडुलिपियों के बीच बदहाल है।


 स्रोत -भारत कोश वेबसाइट से।

Saturday, November 6, 2021

चित्रगुप्त पूजा के बारे में

 




संकलन साभार 

भैया दूज की पौराणिक कथा

भैया दूज की पौराणिक कथा




भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ल का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया। यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने 'तथास्तु' कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है। 


संकलन- साकेत सहाय 

Friday, November 5, 2021

एक विचार - निश्चल विश्वास


सनातन सत्य आपके पास जो कुछ भी है वो इस संसार के करोड़ों लोगों के पास नही है। इसलिए परमपिता ने आपको जो दिया है उसके प्रति आभार प्रकट कीजिए और इन त्यौहारों पर अपनी ख़ुशियाँ साझा कीजिए। #साकेत_विचार

आदि गुरु शंकराचार्य और सांस्कृतिक एकता

भारतवर्ष को सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से जागृत करने वाले आदि शंकराचार्य की केदारनाथ धाम स्थित समाधि पर मूर्ति का अनावरण । कभी इन चार धामों से तमाम भौगोलिक बाधाओं के बीच भारत की अद्भुत सांस्कृतिक, धार्मिक एवं भाषिक एकता का उद्घोष होता था। शायद इसी को देखते हुए कभी भाषाविद् एमनो ने कहा था-' पूरा भारत एक ही भाषिक परिवार का अंग हैं ।




धर्मो रक्षति रक्षितः।

 #साकेत_विचार

Tuesday, November 2, 2021

हिंदी विश्व

हिंदी राजनेताओं, पत्रकारों की चिंताओं से अलग कश्मीर से अमेरिका तक आम पथ पर सरपट भाग रही है। अतः हिंदी के बारे में एक वर्ग द्वारा दी जा रही


जहरीली खुराक से दूर रहें। बहरहाल हिंदी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा के रूप में सर्वस्वीकृत है और तमाम दबावों एवं हीनता बोध के बावजूद यह विश्व स्तर पर मजबूती के साथ स्थापित हो रही है। लोग इसे सम्मान भी दे रहे है। समस्या या कमी हिंदी को अपनी मातृभाषा मानने वालों या हिंदी भाषी राज्यों में ज्यादा है यहां के लोग हिंदी को वह सम्मान नहीं देते जिसकी वह हकदार है। ऐसे में आज हिंदी तकनीक एवं ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में गरिमा के साथ स्थापित नही है। यदि इसमें लेखन हो भी रहा है तो हिंदी के मठाधीश उसे जगह नहीं देते। एक समय में ओडीशा या बंगाल जैसे प्रदेशों की ग्रामीण महिलाएं घरों में हिंदी की पत्र-पत्रिकायें पढ़ती थीं । आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व केरल में भी लिखित स्तर पर इसकी पहुँच बहुत अधिक थी। तमिलनाडु में भी पर्याप्त सम्मान था। पर अब? समस्या हिंदी के मठाधीशों से ज्यादा है। दूसरी हम हिंदी की मूल ताकत से भी अंजान है। केवल रोने से या सरकारों को कोसने क्या होगा? हिंदी क्षेत्र का हर परिवार अपने घरों, परिवारजनों, समाज में इसे भाषा के रूप में मजबूत करें। हिंदी की किताबें खरीद कर पढ़े यही सच्ची सेवा होगी। 

 सादर #जय हिंद जय #हिंदी #साकेत_विचार

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...