अज्ञेय

 


आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तंभों में से एक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी का जन्मदिन है। आपका जन्म वर्ष 1911 में उतर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। कालेज के दौरान आप सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए और कई बार जेल भी गए। कारावास में रहकर अपनी कुछ प्रमुख कृतियों का सृजन किया। 1943 में काव्य संग्रह तार सप्तक का संपादन किया। 1947 में अपने संपादन में नया प्रतीक पत्रिका में आधुनिक साहित्य की नई धारणा के साहित्यकारों को स्थान देकर साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। चार अप्रैल, 1987 को आपका निधन हुआ। उनकी स्मृति में उनकी दो रचनाएँ- 

 (१)

‘मन बहुत सोचता है’ -अज्ञेय  

 

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो  

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?  

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,  

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!  

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,  

खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,  

पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,  

धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,  

सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,  

वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—  

इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!  

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,  

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!  

स्रोत :पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 137)

संपादक : अशोक वाजपेयी  

रचनाकार : अज्ञेय  

प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन  

संस्करण  : 1997 कविता


(२)


जो पुल बनाएँगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएँगे।

सेनाएँ हो जाएँगी पार

मारे जाएँगे रावण

जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएँगे

      _  अज्ञेय।

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