भारत


 आज कल भारत और इण्डिया की बड़ी चर्चा है। सबके अपने तर्क है, वितर्क है, कुतर्क है, विमर्श है। इण्डिया पर किंतु-परंतु हो सकते हैं पर भारत तो अपने-आप में विशिष्ट भाव है। 

‘ गायन्ति:  देवा किल गीत किल गीत कानि, धन्यास्तु ने भारत भूमि भागे’ -विष्णुपुराण 

अत: निवेदन है  भारत को यूरोपियन या किसी ख़ास विचारधारा के चश्मे से न देखें। भारत हमारी सशक्त पहचान का बोध कराता है और इण्डिया ओढ़ी हुई परंपराओं का।  यह कहा जा सकता है -

‘भारत भाषिक, परम्परागत एवं सांस्कृतिक रूप से एक ईकाई है। हमारी सांस्कृतिक परंपराओं को भी देखकर यह कहा जा सकता है कि भारत में रहने वाले किसी पंथ, मज़हब या रिलीजन से जुड़े सभी समुदाय तमाम विभिन्नताओं के बावजूद सांस्कृतिक रूप से एक ही समाज के अंग है। भले विभाजनकारी मानसिकता ने देश को मज़हब विशेष के नाम पर बाँटा परंतु पाकिस्तान आज भी इसी विशाल भारतीय संस्कृति का भाग है। चाहे कोई खिलाफत या अन्य विचारधारा कितना भी भारतीय इस्लाम को तुर्की या सऊदी के साथ जोड़ने का प्रयास कर लें परंतु यह भारतीयता ही है कि इसने इस्लाम को भी भारतीय रंग में रंग दिया।’

भारत सबको जोड़ता है, तोड़ता नहीं ! 

भारत का वृहत्तर  समाज आज भी अपने घरों में, पूजा स्थलों में भगवान शिव, श्रीराम, श्रीकृष्ण, के साथ ही गौतम बुद्ध, महावीर, गुरु नानक महाराज को सम्मानपूर्वक रखता है। ये हमारे लिए प्रात: वंदनीय है। भारत अपने गुण धर्म के बल पर अस्तित्व में है। कितने ही लुटेरे गोरी, गजनी, मंगोल, चंगेज, बिन कासिम,  बाबर, औरंगजेब, अंग्रेज, जिन्ना जैसे आए यह समाज अपने सत्य बल पर सदैव जीवंत रहा, आगे भी रहेगा, बस अपने भीतर के भारत को बनाए रखें। 

रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में 

“भारत कोई नया देश नहीं है। जिस भाषा में उसकी संस्कृति का विकास हुआ, वह संसार की सबसे प्राचीन भाषा है।  जो ग्रंथ भारतीय सभ्यता का आदि-ग्रंथ समझा जाता है, वही समग्र मानवता का भी प्राचीनतम ग्रंथ है। विदेशियों के द्वारा बार-बार पद-दलित होने पर भी भारत अपनी संस्कृति से मुँह मोड़ने को तैयार नहीं हुआ। अब जो वैज्ञानिक और औद्योगिक सभ्यता आ रही है, वह भी भारत से उसके अतीत का प्रेम नहीं छीन सकेगी। सत्य केवल वही नही है, जो पिछले दो सौ वर्षों में विकसित हुआ है। उस ज्ञान का भी बहुत-सा अंश सत्य है, जिसका विकास पिछले छह हजार वर्षों में हुआ है। भारत को वह नवीन सत्य भी चाहिए, जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और  प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि के लिए आत्मा के हनन को पाप समझता है।”

#भारत

©डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार

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बहुत ही सुन्दर विचार

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