राम मंदिर का शिलान्यास और 05 अगस्त का महत्व
05 अगस्त, हम सभी के लिए बड़ा ही ऐतिहासिक दिवस हैं । जब श्रीरामचन्द्र अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होकर पुनः स्थायी रूप से विराजमान हुए। यह कोई साधारण घटना नहीं रही। इस परिघटना की भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक पुनरोदय में अभूतपूर्व भूमिका रहेगी। श्रीराम भारतवासियों के लिए आराध्य मात्र नहीं वरन् हमारी जीवन शैली के प्रतीक हैं । राम जैसे नायक जिस समाज के समक्ष उपस्थित हो उसे दूसरों के समक्ष देखने की क्या आवश्यकता?
श्रीराम भारतीय संस्कृति के प्रणेता हैं । चाहे सुख हो या दुःख श्री राम सभी में प्रेरणा देते हैं । चूँकि वे स्वयं इन परिस्थितियों का सामना करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। प्रभु श्रीराम की जीवन लीला के पथ में मर्यादा ही सबसे बड़ा पाथेय रहा। पितृ, मातृ, पति, मित्र, शासक, प्रशासक, नीतिज्ञ आदि के प्रत्येक धर्मपालन में वे सबसे बड़े आदर्श हैं । राम हमारी विरासत हैं, उमंग हैं, संस्कृति एवं संस्कार हैं । जिनसे भारतीय सभ्यता-संस्कृति पुष्पपित-पल्लवित हुई। राम को जानने-समझने के लिए यह जरूरी है कि हम रामायण एवं रामचरितमानस दोनों ग्रंथों के जीवन मूल्यों को समझें । समाज जिन आदर्शों एवं मूल्यों से ऊर्जस्वित होता है वे सभी कुछ इन ग्रंथों में हैं ।
05 अगस्त का दिवस हमें हीनता से उबरने का भी बोध कराता है। एक विदेशी आक्रांता द्वारा देश के ऐतिहासिक नायक की जन्मभूमि को पद दलित करना भला कौन-सी मर्यादा थीं । माननीय सर्वोच्च न्यायालय का कोटि-कोटि अभिनन्दन जिसने भारतवर्ष के इस ऐतिहासिक घाव को भरने का सुअवसर दिया। साथ ही भारतीय इतिहास की भूलों को सुधारने का भी।
भारत के विरुपित इतिहास ने भारतीयों के जनमानस को कुंठित करने का जो मार्ग अपनाया था, उसे 05 अगस्त का दिन मर्यादित स्वर देने का मार्ग प्रशस्त करती है। अब वक्त आ गया है जब भारतीय समाज को पुन: नचिकेता, प्रह्लाद और ध्रुव जैसे नायकों को स्मरण करते हुए अपने नौनिहालों को सींचित करना होगा।
एक बात यहाँ लिखना ज़रूरी है कि ज्यादातर मामलों में हमारे देश यह परिपाटी स्थापित हो चुकी है कि एक वर्ग या विचारधारा के लोगों द्वारा हिंदुओं में उपस्थित धार्मिक या जातिगत भेदभाव को पूरे समाज के साथ जोड़कर पेश किया जाता है। उनकी चिंता जायज हैं पर समरसता की खबरें भी वे लाए तो ज्यादा अच्छा । इससे बहुसंख्यक समाज के बहाने बहुस्तरीय रुप में एकता का मार्ग प्रशस्त होगा। प्रार्थना है राम मंदिर के मर्यादित कार्य से शासन के स्वर मर्यादित हो!
अब यह विचारणीय है कि क्या कोई पंथ, समुदाय बुरा हो सकता है। तब क्यों ज्यादातर धार्मिक बुराईयों को केवल सनातन पंथ से ही जोड़कर दिखाया जाता है ? इन सब के पीछे इस देश की बुनियाद को कमजोर करने की साजिश दिखती है। क्या सारी बुराईयां सनातन पंथ में ही विद्यमान है। यहाँ सनातन का मतलब बौद्ध, जैन, सिक्ख परंपराओं से हैं । क्या कथित प्रबुद्ध लेखकों ने कभी इस पर कुछ लिखा है कि जिन हिंदुओं ने अपने पुरखों का धर्म छोड़कर चाहे जबरदस्ती, चाहे भेदभाव के कारण भी इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाया था, उन पिछडों की इस्लाम या ईसाई धर्म में आज क्या स्थिति है? इस प्रकार की समस्या केवल हिंदू समाज में ही नहीं है।
सामाजिक या धार्मिक बुराईयां सामंती कुंठाओं की उपज है जो सत्ता, व्यवस्था और पंथ में एक समान उपस्थित हैं । ऐसे लोगों को धर्म से अधिक शिक्षा का महत्व समझना चाहिए । उन लोगों को यह जरूर समझना चाहिए कि किसी भी धर्म या कर्तव्य पालन को समझें बिना शिक्षा का कोई मोल नहीं है। धर्म लोगों को सही मार्ग पर चलना सिखाता है। उच्च शिक्षित भी असत्य के मार्ग पर चलते है और मानव जीवन को कुमार्ग पर लाने के सारे प्रयत्न करते हैं । अतः समाज, अर्थ और शिक्षा से धर्म को न जोड़े । शिक्षा और धर्म दोनो अलग विषय है और जीवन शैली में दोनों का महत्व है।
इस अवसर पर मुझे अपनी एक कविता ' इतिहास' का स्मरण हुआ।
इतिहास ..........
इतिहास
भारत की जहालत का
बदनामी का
संपन्नता का
विपन्नता का
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कौन-सा
कुभाषा का
कुविचारों का
या अपने को हीन मानने का
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सौहार्दता की आड़ में
अपने को खोने का
विश्व नागरिक की चाह में
भारतीयता को खोने का
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समरसता की आड़ में अपने को खोने का
इतिहास है क्या
सिकंदर को महान बनाने का
या
समुद्रगुप्त से ज्यादा नेपोलियन को
या
फिर स्वंय को खोकर
दूसरों को पाने का
या
दूसरों को रौंदकर अपनी पताका फहराने का
...............................
आधुनिकता की आड़ में
पुरातनता थोपने का ।
समाज सुधार आंदोलनों को
धार्मिक आंदोलन का नाम देने का
या
कौमियत को धर्म का नाम देने का
.............................
क्या धर्म को विचार का नाम देना आंदोलन है
या फिर
अंग्रेजी दासता को श्रेष्ठता का नाम देना
या फिर सूफीवाद की आड़ में
भक्तिवाद को खोने का
..........................
या फिर
इतिहास है अतीत के पन्नों पर
खुद की इबारत जबरदस्ती लिखने का
या शक्तिशाली के वर्चस्व को स्थापित करने का
कहते है भारत सदियों से एक है
तो फिर जाति-धर्म के नाम पर
रोटी सेंकना क्या इतिहास है।
क्या देश की सांस्कृतिक पहचान नष्ट करना
इतिहास है?
...................
यदि यह इतिहास है ?
तो जरूरत है इसे जानने-समझने की
इतिहास है तटस्थता का नाम
तो फिर यह एकरूपता क्यूँ
क्या इतिहास दूसरों के रंगों में रंगने का नाम है
या दूसरों की सत्ता स्थापित करने का ।
©डॉ. साकेत सहाय
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