अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस


अं

 पुरुष दिवस की हार्दिक शुभकामना! 

अंत में काई दिवसों के साथ यह दिवस  भी बड़ी ख़ामोशी के साथ आता और चला जाता है।  विचारणीय यह है कि हर विषय पर मुखर रहने वाला सोशल मीडिया भी मौन रहता है। क्या आज अंध मुखरता के कारण पुरुष वर्ग बड़ी खामोशी के साथ खुद को बदनाम महसूस कर रहा है। जी हाँ हम बात कर रहे है अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस की।  

चलो इस मूक मजदूर वर्ग के लिए कोई तो दिवस बना। वरना, यह वर्ग तो झूठी शान में जी रहा है।  समाज में आधी से अधिक आबादी का हिस्सा इस तथाकथित अत्याचारी समाज से अपील है कि अपनी कमियों को पहचाने, अपनी खूबियों को जाने।  

आप समाज के महत्वपूर्ण हिस्सा है। आप निर्माता नहीं, पर निर्माण के स्तंभ जरूर हैं । समाज आपके बिना चल नहीं सकता। क्योंकि वर्तमान में समाज के बड़े हिस्से की अंधभक्ति में हम भावी पीढ़ी के लड़कों का हश्र वहीं न कर दें  जो आज से तीन सदी पूर्व लड़कियों के साथ होता था।  आज  का यथार्थ यह है कि  लडकें भी शोषण का शिकार हो रहे हैं।  समाज का मूल स्वभाव है  'सख्तर भक्तों, निर्ममों यमराज'।

समय के साथ सृष्टि की दोनों सृजनात्मक धूरियों में बदलाव परिलक्षित हुए है। स्त्री और पुरुष दोनों ही सृष्टि की आत्मा है।  एक के बिना दूसरे का अस्तित्व शून्य है। आइए, पुरुष दिवस पर इस समभाव को स्वीकारें। आज संबंधों में प्रेम में अधिक लालच, हवस, हिंसा, स्वार्थ, दिखावे और झूठ की प्रवृति हावी होती जा रही है। वहाँ कर्त्तव्य, दायित्व बोध, प्रेम, दया, करुणा, नैतिकता ही सबसे ज़रूरी है। अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस के अवसर पर ओशो की इस रचना के मूल भाव को दोनों को ही समझना होगा। 

सुनहरी मछली  🌹🌸🌹


बात है तो विचित्र 

किन्तु फिर भी है !


हो गया था 'प्रेम' एक पुरुष को 

एक सुनहरी मछली से ! 

लहरों से अठखेलियाँ करती,

बलखाती ,चमचमाती मछली 

भा गई थी पुरुष को !

टकटकी बाँधे पहरों देखता रहता वह 

उस चंचला की अठखेलियाँ !

मछली को भी अच्छा लगता था 

पुरुष का यूँ निहारना !


बन्ध गए दोनों प्रेम- बंधन में !

मिलन की आकांक्षा स्वाभाविक थी !

पुरुष ने मछली से मनुहार की--

"एक बार,सिर्फ़ एक बार 

जल से बाहर आने का प्रयत्न करो "

प्रिय-मिलन की लालसा इतनी तीव्र थी 

कि भावविव्हल हो -

मछली जल से बाहर आ गई

छटपटा गई,बुरी तरह से छटपटा गई 

किन्तु अब वह प्रियतम की बाँहों में थी !

प्रेम की गहन अनुभूति में ......

कुछ पल को----

सारी तड़प,सारी छटपटाहट जाती रही !

एकाकार हो गए दोनों !

ये प्रेम की पराकाष्ठा थी !!!


तृप्त हो ,प्रेमी नें प्रेयसी को 

फिर से जल में प्रवाहित कर दिया !

बड़ा विचित्र,बड़ा सुखद और 

बड़ा दर्दनाक था यह मेल !!!

हर बार पूरी शक्ति बटोर--

चल पड़ती प्रेयसी प्रीतम से मिलने

तड़फडाती-छटपटाती

प्रेम देती- प्रेम पाती

तृप्त करती - तृप्त होती

फिर लौट आती अपने जल में !

बहुत दिनों तक चलता रहा ये खेल !


एक दिन ----

मछली को जाने क्या सूझी ...

उसने पुरुष से कहा --

" आज तुम आओ ! "

" मैं...मैं जल में कैसे आऊं ??

मेरा दम घुट जायगा !"-- पुरुष बोला

"कुछ पल को अपनी साँस रोक लो"-मछली नें कहा

साँस रोक लूँ ...यानी जीना रोक लूँ ??

कुछ पल 'जीने ' ही तो आता हूँ तुम्हारे पास ,

साँस रोक लूँगा तो जियूँगा कैसे ???-पुरुष ने कहा


मछली अवाक थी !!!

एक पल में -----

पुरुष-प्रकृति और प्रेम के पारस्परिक सम्बन्ध

का "सत्य " उसके सामने था !!!!

अब कुछ भी जानने-पाने और चाहने को शेष ना था !

मछली ने निर्विकार भाव से पुरुष को देखा ......

फिर डूब गई जल की अतल गहराइयों में !!!!

अनभिज्ञ पुरुष जीने की लालसा लिए

अभी तक वहीं खड़ा सोच रहा है

मेरा दोष क्या है ???


ओशो🌹🌸🌹

#पुरुष_दिवस

#साकेत_विचार

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