Saturday, October 8, 2022

मुंशी प्रेमचन्द की पुण्यतिथि पर स्मरण

 


हिंदी भाषा और साहित्य के रत्न तथा उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की  पुण्यतिथि पर उन्हें कोटिशः नमन। 💐🙏💐

मुंशी प्रेमचंद की लेखनी आम आदमी, गाँव, समाज, व्यवस्था को समर्पित रहीं।  व्यवस्था, गाँव-देहात की सच्चाई तथा मानवीय मूल्यों का उन्होंने जिस प्रकार से अपनी रचनाओं में सजीव चित्रण किया, वह आज भी प्रासंगिक है। सामाजिक सरोकारों पर उनकी लेखनी विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर और अनुकरणीय है।

आज से 100 साल पहले भी जो उन्होंने लिखा, वह आज भी प्रासंगिक है। उनकी हर रचना ऐसे लगती है जैसे आज की कहानी है। नमक का दारोगा, बड़े घर की बेटी, गोदान, गबन... हर रचना जाग्रत।  जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और न ही प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके समक्ष था। हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद जी का कद काफी ऊंचा है और उनका लेखन कार्य एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिन्दी के विकास को अधूरा ही माना जाएगा। भारतीय साहित्य का बहुत-सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा, चाहे वह दलित साहित्य हो या फिर नारी साहित्य, उसकी जड़ें प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई पड़ती हैं। 

उपन्यास सम्राट’ की उपाधि पानेवाले प्रेमचंद आज भी भारतीय साहित्य के सबसे अधिक लोकप्रिय लेखक हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में चैदह उपन्यास, ढाई सौ कहानियां और अनगिनत निबंध लिखे। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ अन्य भाषाओं की पुस्तकों को भी हिन्दी में अनूदित किया। उनका सारा लेखन यथार्थ पर आधारित था और उसके माध्यम से उस समय की सामाजिक स्थितियों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का उनका एक प्रयास था। बाल-विवाह, गरीबी, भुखमरी, ज़मींदारों के अत्याचार अक्सर उनके लेखन का विषय थे। 1936 में लिखा गोदान उनका आखिरी उपन्यास है जिसे सबसे महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। गोदान गांव में रहनेवाले उस परिवार की कहानी है जो कठिनाइयों का सामना करते हुए हिम्मत नहीं हारता।

हिंदी जैसी भाषा का ऐसा उत्कृष्ट साहित्यकार जो वास्तव में नोबेल पुरस्कार से भी बड़े पुरस्कार प्राप्ति के योग्य थे, पर उनका सम्मान उस समय उस भाषा के प्रेमियों बोलने ने उनके जीते -जी कभी नहीं की जिसमें वह अपनीं अस्थियाँ गलाकर लगातार ३३ वर्षों तक लिखते रहें। 

उनके अंतिम यात्रा का वह दृश्य पढ़िए “मुँह धुलाने के लिए शिवरानी गर्म पानी लेकर आई। मुंशी जी ने दांत माँजने के लिए खरिया मिट्टी मुँह में ली… नवाब ने बेबस आँखों से रानी को देखा और दम उखड़ते-उखड़ते , रुकती अटकती, कुएँ के भीतर से आती हुई सी—-…भारी गूंजती आवाज़ में डूबते आदमी की तरह पुकारा…..रानी…… “,चले गए मुंशी जी।( सिरहाने न कोई डॉक्टर ,न ही वे नामी गिरामी हिंदी के साहित्यकार , जो उस समय जीवित थे)।

ऐसी जाति की भाषा के रचनाकारों को कैसे मिलेगा नोबेल पुरस्कार?कैसे बनेगी वह राष्ट्र भाषा ?

भाषाएँ केवल गाल बजाने और अपना पीठ खुद ही थपथपाते रहने से श्रेष्ठ भाषा नहीं बन जातीं, उस भाषा के लोगों को  भाषा के लिए और उस भाषा में लिखने वालों के लिए अपना सर्वस्व निछावर करना होता है । 

प्रेमचन्द जी की एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी

“हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिन्दी की चार-दीवारी को तोड़ कर दोनों में रब्त-ज़ब्त पैदा कर देना चाहती है, ताकि दोनों एक-दूसरे के घर बे-तकल्लुफ़ आ जा सकें। महज़ मेहमान की हैसियत से नहीं, बल्कि घर के आदमी की तरह।” (प्रेमचंद) 

"सौभाग्य उसी को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहते हैं।"

सच में प्रेमचन्द जी के उद्गार उन पर अक्षरश: खरे उतरते है। मानवीय भावनाओं का सजीव चित्रण कर अपने लेखन से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले "उपन्यास सम्राट"  विश्व साहित्य के महान साहित्यकार की पुण्य तिथि पर पुन: नमन एवं श्रद्धांजलि 🌹💐🙏🙏💐💐💐👏

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