हिंदी में शोध और अन्य विचारणीय पहलू





हिंदी अपने ही बलबूते आम आदमी की ज़ुबान होने के बल पर आगे बढ़ रही है। मेरा यह व्यक्तिगत रूप से मानना है कि हिंदी का सबसे बड़ा अहित इस सोच ने किया है कि यह उत्तर भारत की भाषा है, जबकि इसे उत्तर-दक्षिण के खाँचे से इतर राष्ट्रभाषा के रूप में सशक्त करने की जिम्मेदारी व्यवस्था को लेनी थी। जिसे व्यवस्था ने अंग्रेज़ीयत के कारण नहीं सँभाली और अपने पाप को छुपाने की ख़ातिर हिंदी को भारतीय भाषाओं की प्रतिस्पर्धी बना डाला। अनेक कुतर्क गढ़े ग़ए। स्वभाषा के बिना हर कोई भाषाविद् और तकनीकीविद् होने लगा। पत्रकारिता और सिनेमा जगत ने भी हिंदी को इवेंट की भाषा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। थोड़ा-बहुत विकास हुआ भी तो हिंदी की आंतरिक शक्ति के बल पर।

दूसरी बात हिंदी में जुगाड़ू और चाटुकार लोगों का जमघट बना रहा। अकादमिक जगत में यह बात क़ायम रही कि हिंदी के विकास का ठेका हिंदी के अध्यापकों ने लिया है। वैसे ही जैसे राजभाषा की प्रगति की जिम्मेदारी केवल राजभाषा सेवियों की है पर तकनीक, प्रबंधन या अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोग तो केवल अंग्रेज़ी के लिए ही बने हुए है। उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में अंग्रेज़ी के व्याप्त मोह ने हिंदी को केवल निम्नवर्ग की भाषा बनाने का कार्य किया। अब यदि वास्तव में सरकार गंभीर हैं तो अनुच्छेद ३५१ के अनुरूप वाली हिंदी माध्यम में शोध हो इस दिशा में सरकार और समाज को गंभीर होना होगा। इस देश की समृद्धि के लिए संस्कृत के सहयोग से एक प्रमुख भाषा में ज्ञान-विज्ञान की धारा प्रवाहित करनी होगी, यह सबके सार्थक सहयोग से ही होगा। 

विश्वविद्यालय स्तर पर  शिक्षकों को विद्यार्थियों के बीच हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए अनिवार्य पहल करनी होगी। बहुत कम ऐसे शिक्षक हैं जो विश्वविद्यालय में विमर्श के माध्यम से छात्रों को अपना शोध पत्र हिंदी में  लिखने के लिए प्रेरित  करते हैं।   ऐसी पहल हिंदीतर क्षेत्रों में भी साथ-साथ हो तभी हिंदी वास्तव में राष्ट्रभाषा  बनेगी। साहित्य की अपनी जगह है पर विश्वविद्यालय के सभी विभागों को अपनी भूमिका समझनी होगी और राष्ट्रीय स्तर पर  तकनीक,ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति जैसे विषयों में हिंदी के विस्तार हेतु कार्य करने का दायित्व समझना होगा।

मैंने २००८ में भारत में इलेक्ट्रोनिक मीडिया और हिंदी :१९९० के दशक के बाद -एक समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर भारतीय वायु सेना में रहते हुए प्री-पी एच डी परीक्षा पास करने के बाद पंजीकरण किया था और २०१३ में इसे विश्वविद्यालय को प्रस्तुत किया था। मेरे शोध की काफ़ी प्रशंसा हुई।   मुझे जहां तक ज्ञात है इस विषय पर उस समय शोध करने वाला मैं पहला व्यक्ति था।  यह सत्य है कि भाषा के क्षेत्र में बहुत कम लोग गंभीर विषयों पर शोध लेखन के लिए आगे आते है और यह भी विचारणीय है कि बहुत कम उन्हें प्रोत्साहित करते है। इस दिशा में हिंदी की समृद्धि हेतु ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। 



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