आखिर अंतर रह ही गया....
आखिर अंतर रह ही गया ..... बचपन में जब हम सभी रेलगाड़ी या बस से यात्रा करते थे, तो माँ घर से खाना बनाकर देती थी, पर रेलगाड़ी में कुछ लोगों को जब खाना खरीद कर खाते देखता तो बड़ा मन करता हम भी कुछ खरीद कर खाए l तो बाबुजी समझाया करते यह हमारे बस का नहीं, यह सब स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं, बाहर का खाना, स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता आदि-आदि। पर मन में आता, अमीर लोग जिस प्रकार से पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं। बड़े हुए तो देखा, जब हम खाना खरीद कर खा रहे हैं, तो लोग घर का भोजन ले जा रहे हैं और यह "स्वस्थ रहने के लिए" आवश्यक है। आखिर में अंतर रह ही गया .... बचपन में जब हम सब सूती कपड़ा पहनते थे, तब कुछ लोग टेरीलोन का कपड़ा पहनते थे l बड़ा मन करता था पर बाबुजी कहते हम इतना खर्च नहीँ कर सकते l बड़े होकर जब हम टेरीलोन पहने लगे तब वे लोग सूती के कपड़े पहनने लगे l सूती कपड़े समय के साथ महंगे हो गए l हम अब उतने खर्च नहीं कर सकते l आखिर अंतर रह ही गया.... बचपन में जब खेलते-खेलते हमारी पतलून घुटनों के पास से फट जाती, तो माँ बड़ी ही कारीगरी से उसे रफू कर देती और हम खुश...