खेल की दुनिया के किंवदंती पुरूष- ध्यानचंद

 खेल की दुनिया के किवदंती पुरुष-मेजर ध्यानचंद


प्रयागराज (इलाहाबाद) में जन्मे भारतीय हाॅकी के अग्रदूत की जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय खेल दिवस का आयोजन किया जाता है।  जीते-जी किंवदंती बन चुके ध्यानचंद खेल भावना के धनी थे।  देश में ऐसे बहुत से लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में इतनी महारत हासिल की कि उनका नाम इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो गया। भारत में हॉकी के स्वर्णिम युग के साक्षी मेजर ध्यानचंद का नाम भी ऐसे ही लोगों में शुमार है। उन्होंने अपने खेल से भारत को ओलिंपिक खेलों की हॉकी स्पर्धा में स्वर्णिम सफलता दिलाने के साथ ही परंपरागत एशियाई हॉकी का भी दबदबा कायम किया। कालजयी खिलाड़ी, ध्यानचंद के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए उनके जन्मदिन 29 अगस्त को भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है।  इसी दिन उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को राष्ट्रपति भवन में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।  इस वर्ष यह आयोजन पैरालंपिक खेलों के बाद आयोजित किया जाएगा।  विदित हो कि सरकार ने उनकी महानता को सम्मान देते हुए खेल के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार का नाम ध्यानचंद खेल रत्न कर दिया।

हाल ही में संपन्न हुए खेलों के महाकुंभ यानी टोक्यो ओलंपिक में भारतीय पुरुष और महिला हॉकी टीमों का प्रदर्शन बेहद दमदार रहा। महिला टीम तो बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए पहली बार सेमीफाइनल तक पहुंची।   दुर्भाग्य से यह टीम पदक से चूक गई।  पुरूष हॉकी टीम ने इतिहास रचते हुए कांस्य पदक जीता।  इस ऐतिहासिक प्रदर्शन ने एक बार फिर से भारतीय हॉकी में नई जान फूंकी है । हाॅकी  टीम के कप्तान मनजीत सिंह कहते हैं इस जीत से हाॅकी पुनः घर-घर पहुंचेगी ।

वास्तव में इस पुनः शब्द का बड़ा महत्व है।   भारतीय हॉकी टीम का इतिहास बेहद  स्वर्णिम रहा है। हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले  मेजर ध्यानचंद इस स्वर्णिम युग के मुखिया थे।  कहा जाता है कि ध्यानचंद रात के समय में जब सब सो जाते थे, तब वे अभ्यास करते।  खेल के प्रति उनके इस जूनून को देखकर उनके प्रशिक्षक  ने उनसे कहा, ‘ध्यान वह दिन जरूर आएगा जब इस खेल की दुनिया में इस आसमान के चाँद की तरह इस पृथ्वी पर तुम चमकोगे’ और उन्होंने उन्हें एक नया नाम दिया ध्यानचंद, और यहीं से धीरे-धीरे वे ध्यानचंद के नाम से विख्यात हो गये। सच में गुरु का आशीर्वाद फलित हुआ । गुरु ने उनकी साधना को देखते हुए यह कामना की और इस फलित कामना के रूप में भारत को खेल की दुनिया का नया सितारा मिला। जिसने गुलाम भारत की आबादी को देशप्रेम का नया जज्बा दिया।

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने अपने खेल जीवन में 1000 से अधिक गोल दागे। जब वे मैदान में खेलने को उतरते थे तो गेंद मानों उनकी हॉकी स्टिक से चिपक-सी जाती थी। उन्हें 1956 में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। भारत सरकार ने इसी साल खेल के सर्वोच्च पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम ध्यानचंद के नाम पर कर दिया।

ध्यानचंद साल 1926 में पहली बार विदेशी धरती पर  न्यूजीलैंड गए थे। यहां भारतीय टीम ने एक मैच में कुल 20 गोल किए, जिसमें से अकेले 10 गोल ध्यानचंद द्वारा किये गए थे। न्यूजीलैंड में भारत ने 21 मैचों में से 18 मैच जीते और पूरी दुनिया ध्यानचंद को पहचानने लगी।  कभी पढा था कि जिसमें उनके सुपुत्र अशोक कुमार कहते है कि उस समय हाॅकी की दुनिया में  ध्यानचंद का ऐसा डर था कि वर्ष 1928 में ब्रिटेन की टीम ने ध्यानचंद की टीम से हार के डर से ओलंपिक से अपना नाम ही वापस ले लिया था।

जर्मन शासक हिटलर से जुड़ा प्रसंग तो हम सभी ने जनश्रुतियों में  सुना ही होगा कि जब हिटलर अपनी  टीम को किसी भी कीमत पर जीतते देखना चाहता था।  बताया जाता है कि भारत को हराने के लिए मैदान तक गीला कर दिया गया, ताकि हल्के जूते पहनने वाले भारतीय खिलाड़ी अपने पांव नहीं जमा सकें।  पर ध्यानचंद के जादुई  स्टिक ने नंगे पांव जर्मनी को हिटलर की आंखों के सामने 8-1 से परास्त कर दिया।

कहा जाता है कि इस शानदार प्रदर्शन से खुश होकर हिटलर ने उन्हें खाने पर बुलाया और उनसे जर्मनी की ओर से खेलने को कहा।  इसके बदले उन्हें मजबूत जर्मन सेना में कर्नल पद का प्रलोभन भी दिया गया।  लेकिन ध्यानचंद ने कहा, 'हिंदुस्तान मेरा वतन है और मैं वहां खुश हूं।'

ध्यानचंद की उपलब्धियों का सफर भारतीय खेल इतिहास को गौरवान्वित करता है।  लगातार तीन ओलंपिक खेल  (1928 एम्सटर्डम, 1932 लॉस एंजेलिस और 1936 बर्लिन) में भारत को हॉकी का स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद के जीवट का हर कोई कायल रहा।   उनके खेल जीवन से जुड़े अनेक यादगार प्रसंग भारतीय हॉकी को शिखर पर ले जाते है।

1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने एक संस्मरण में लिखा- छह गोल खाने के बाद जर्मनी की टीम  काफी खराब हॉकी खेलने लगी।  उनके गोलकीपर टिटो वार्नहोल्ज की हॉकी स्टिक ध्यानचंद के मुंह पर इतनी जोर से लगी कि उनका दांत टूट गया।  प्राथमिक चिकित्सा के बाद मैदान पर लौटते ही ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए, जर्मन खिलाड़ियों को ये बताया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है। भारत ने उस फाइनल में जर्मनी को 8-1 से हराया।  इसमें तीन गोल अकेले ध्यानचंद ने किए।

कहा जाता है कि  एक बार जब ध्यानचंद एक मैच के दौरान गोल नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने गोल पोस्ट की माप पर आपत्ति जताई।  आखिरकार वे सही पाए गए।   गोल पोस्ट अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत निर्धारित आधिकारिक न्यूनतम चौड़ाई का नहीं था।

ध्यानचंद 22 साल तक भारत के लिए खेले और 400 अंतरराष्ट्रीय  गोल किए।  कहा जाता है- जब वे खेलते थे, तो मानो गेंद स्टिक पर चिपक जाती थी।  हॉलैंड में एक मैच के दौरान चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़कर देखी गई।  जापान में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात भी कही गई।  जीते जी किंवदंती बन चुके भारत के इस नायाब हीरे का देहांत 3 दिसंबर, 1979 को दिल्ली में हुआ। उनका अंतिम संस्कार झांसी में उसी मैदान पर किया गया, जहां वे हॉकी खेला करते थे।

मेजर ध्यानचंद ने अपनी जीवनी और महत्वपूर्ण घटना वृतांत को अपने प्रशंसकों के लिए अपनी आत्मकथा गोल में सम्मिलित किए हैं।  खेल में रूझान रखने वाले  युवाओं के लिए उनका जीवन और खेल दोनों ही एक मिसाल हैं।

जय हिंद ! ध्यानचंद जी 


डाॅ साकेत  सहाय 


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