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हिंदी का प्रहसन

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वोट के लिए बापू , बाबा साहेब का सहारा लेने वालों के देश में अंग्रेजी, अंग्रेजियत से प्रेम और हिंदी से द्रोह । एक विदेशी भाषा के प्रति यह अंतहीन प्रेम एवं हीनता-बोध की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है कि तमाम दुश्वारियों के बीच यदि अधिकारी से लेकर क्लर्क और चपरासी तक, अपना और अपने परिवार का पेट काट कर भी, अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं और भेज भी रहे है तो इसका कुछ तो मतलब है? क्योंकि प्रदेश और देश की व्यवस्था भी विदेशी भाषा की गुलाम है । उन्हें न तो अपनी परंपरा से मतलब है और न अपनी संस्कृति से । हिंदी के प्रहसन पर मुझे विद्यानिवास जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कहा था, ‘मेरी झांसी मुझे वापस चाहिए।‘ मैं भी हिन्दी के लेखक की हैसियत से यही मांगता हूँ कि मेरा तो कोई प्रदेश नहीं, कोई वर्ग नहीं,मजहब नहीं, सिर्फ एक देश है, उसे वापस लाओ। बंद करो यह ढोंग कि हिन्दी संपर्क भाषा है। सारा राज-काज अँग्रेजी में, फारसी में या लैटिन में चलाओ! हिन्दी के विकास के मालिकों, हिन्दी को जीनो दो, छूछे सम्मान का जहर न दो,हिन्दी को, देश को वापस बुलाने का...