Sunday, July 30, 2023

उपन्यास स्म्राट प्रेमचंद जी को नमन




उपन्यास  सम्राट, अपनी  लेखनी के माध्यम  से ग्रामीण पृष्ठभूमि एवं शहरी समाज की  वास्तविकता  को  चित्रित करने  वाले, समाज  को  अपनी लेखनी से जागृत करने वाले प्रेमचंद जी लिखते हैं " मैं एक मजदूर हूँ।  जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने  का कोई हक नहीं।"  वास्तव में लेखन के प्रति उनका यह समर्पण ही उन्हें भारतीय साहित्य में विशिष्टता प्रदान करता हैं । प्रेमचन्द जी ने हर प्रकार के साहित्य का सृजन किया, इसलिए वे साहित्य- शिल्पी कहे गए।  सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ प्रेमचंद का वैचारिक साहित्य बेहद समृद्ध है। हिंदी पत्रकारिता में हंस के रूप में उनके उल्लेखनीय योगदान को भला कौन भूल सकता है। प्रेमचंद अपने संपूर्ण वैचारिकी में पाठकों को जगाते हैं । उन्हें आदर्श राष्ट्र राज्य की प्राप्ति हेतु संघर्ष करने हेतु उद्वेलित करते हैं । प्रेमचन्द का साहित्य यथार्थवादी रहा । वे हिंदी के यथार्थ से भी परिचित थे,इसीलिए उन्होंने हिंदी में जमकर लेखन किया। उनके भाषा विषयक निबंध और टिप्पणियाँ राष्ट्रभाषा हिंदी की विशिष्टता को  समग्रता से समझने में  सहायक हैं । 

मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके जन्म स्थान लमही  जाने का अवसर मिला।  महान  साहित्य  शिल्पी  मुंशी प्रेमचंद जी को  मेरा शत -शत नमन🙏

जय हिंद! जय हिंदी!!

-साकेत सहाय

#साकेत_विचार #प्रेमचंद #साहित्य #पत्रकारिता #हिंदी #भाषा #लेखनी

Friday, July 28, 2023

हिंदी : राष्ट्रभाषा


अक्सर सुनते है हिंदी फ़ारसी भाषा का शब्द है। पर यह भाषा आर्यभाषा, अपभ्रंश, लौकिक संस्कृत के रूप में उत्तर वैदिक काल से ही अस्तित्व में रही। इस प्रकार से हिंदी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा अवश्य मिलना चाहिए। वैसे भी  फ़ारसी भाषा में हिंदी का अर्थ होता है हिंद देश के निवासी। अर्थात् हिंदी सदियों से इस देश की जनभाषा, लोकभाषा, तीर्थभाषा, संपर्क भाषा आदि उपनामों से अलंकृत होकर ब्रिटिश पराधीनता से मुक्ति की वाहक भाषा बनकर उभरी। फिर स्वाधीनता प्राप्ति के बाद राष्ट्रभाषा से राजभाषा के पद पर आसीन हुईं।  इन सभी के बावजूद कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि हमने हिंदी की सेवा की। कुछ लेखकों/पत्रकारों को तो यह भी लगता है कि हिंदी का वजूद ही उनकी वजह से हैं । मगर वे यह भूल जाते हैं कि हिंदी या मातृभाषाओं की वजह से ही हम सभी का अस्तित्व हैं । हिंदी सदियों से भारत की अखंडता की बुनियाद को  सशक्त करने का कार्य कर रही हैं ।  ऐसे में यह स्वाभाविक है  कि हिंदी का अस्तित्व हमारी वजह से नहीं बल्कि हमारे अस्तित्व की नींव में हिंदी का योगदान है।  भाषाएँ, बोलियाँ हमारी माँ के समान है इनसे किसी का क्या बैर?

भाषाएँ, बोलियाँ प्रकृति  की जीवंतता हेतु  प्राणतत्व होती है और प्राणतत्व की शुद्धता हेतु हम सभी को प्रयासरत अवश्य होना चाहिए। 

#साकेत_विचार

#हिंदी। #शास्त्रीय_भाषा

Thursday, July 27, 2023

कलाम साहब की पुण्यतिथि पर नमन🙏

 

आज मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध अबुल पकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम जी की पुण्यतिथि है।  रामेश्वरम, तमिलनाडु में जन्मे कलाम साहब भारतीय मिसाइल कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं।  भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम की जीवन गाथा किसी रोचक उपन्यास के नायक की कहानी से कम नहीं ।  चमत्कारिक प्रतिभा के धनी अब्दुल कलाम का समग्र व्यक्तित्व भारतीय अध्यात्म को समर्पित रहा।  सभी के प्रिय कलाम जी का विज्ञान की दुनिया से चलकर दुनिया के सबसे बड़े एवं प्राचीन लोकतंत्र की भूमि के प्रथम नागरिक के पद पर आसीन होना, किसी भी आम भारतीय का सर गर्व से ऊंचा कर देता है। आपको शत-शत नमन!🙏🌺

#कलाम #राष्ट्रपति #साकेत_विचार

Tuesday, July 25, 2023

कारगिल विजय दिवस

 

कारगिल विजय दिवस (26 जुलाई ) -वीर शहीदों को शत्-शत् नमन! 💐🙏

आज देश 25वाँ कारगिल विजय दिवस मना रहा है। आज का यह विशेष दिन भारतीय सेना के वीर सैनिकों की बहादुरी, शौर्य एवं पराक्रम को नमन करने का दिन है। कारगिल विजय दिवस के दिन पूरा भारत कारगिल युद्ध के नायकों की बहादुरी और वीरता को श्रद्धांजलि देता है। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में देश के बहादुर सैनिकों ने नापाक पाकिस्तान को धूल चटा दी थी। भारत-पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध का कोड नाम ‘ऑपरेशन विजय’ दिया गया था । कारगिल युद्ध 60 दिनों से अधिक चला।  26 जुलाई, 1999 को भारत ने पाकिस्तान को पराजित कर कारगिल युद्ध में विजय प्राप्त की। 26 जुलाई के दिन भारतीय सेना ने पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से क़ब्ज़ाई गई चौकियों पर तिरंगा फहराया था। 

कारगिल विजय दिवस के इस अवसर पर शहीद सैनिकों को नमन करते हुए वीर सपूतों को समर्पित है कुछ पंक्तियाँ - 

समर्पित है यह प्राण भारतमाता के लिए, 

यह देह बना है भारत की माटी से 

इससे आती है अपने प्यारे वतन की सुगंध 

वतन के काम आए यह हम

यह सपना है हर सैनिक का

सीमाएँ देश की सुरक्षित रहें

यह संकल्प है हर सैनिक का। 

कारगिल विजय दिवस की हार्दिक शुभकामना! 

जय हिंद! जय भारत!!

#साकेत_विचार। #कारगिल #ऑपरेशन_विजय

Friday, July 14, 2023

बिहार बिहान में साक्षात्कार

 डीडी बिहार (दूरदर्शन, बिहार)  के प्रशंसित एवं चर्चित कार्यक्रम ‘बिहार बिहान’ में मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित जो भाषा, संचार, साहित्य और संस्कृति को लेकर समर्पित रहा है से जुड़े विविध आयामों पर एक बार फिर लाइव अपनी बात रखने का अवसर कल यानी १३ जुलाई, २०२३ को मिला।   पूरा  साक्षात्कार इस यूट्यूब लिंक में  आप सभी के अवलोकनार्थ -   


https://youtu.be/EIr-YpZCKtg

Tuesday, July 11, 2023

संदेश मिठाई

 



शब्दों की खोज"

"संदेश"


      बंगाली मिठाई  संदेश সন্দেশ [शोंदेश] का नाम इसलिए रखा गया है, क्योंकि इसे किसी अच्छी खबर या संदेश के साथ खाया या उपहार में दिया जाता था।


 संदेश अपने पहले अवतार में अलग था।  यह डेयरी मुक्त था और नारियल और चीनी से बना था।


"संदेश" नाम भारत के बंगाल में एक लोकप्रिय मिठाई है, जो विशेष रूप से बंगाली व्यंजनों के साथ जुड़ी  है।  "संदेश" शब्द की व्युत्पत्ति का पता संस्कृत से लगाया जा सकता है, जो एक प्राचीन इंडो-आर्यन भाषा है।


संदेश : Monier Williams Sanskrit-English Dictionary (2nd Ed. 1899)   


 communication of intelligence,

 message,

 information,

 errand,

 direction, 

command, 

order to 

a present, gift

a partic.

 kind of sweetmeat 


 संस्कृत में, "संदेश"  शब्द का अर्थ है "संदेश" या "संचार।"  मीठे व्यंजन को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि पारंपरिक रूप से इसका उपयोग विशेष अवसरों और त्योहारों पर संदेश या शुभकामनाएं देने के माध्यम के रूप में किया जाता था।


 संदेश आमतौर पर ताज़ा पनीर (छेना) और चीनी से बनाया जाता है।  इसे अक्सर इलायची, केसर, या अन्य सामग्रियों से स्वादिष्ट बनाया जाता है, और कभी-कभी नट्स या सूखे मेवों से सजाया जाता है।  मिश्रण को छोटे-छोटे टुकड़ों में आकार दिया जाता है, जिन्हें बाद में एक स्वादिष्ट मिठाई के रूप में परोसा जाता है।


 "संदेश" नाम बंगाली परंपराओं में इस मिठाई के सांस्कृतिक महत्व और उत्सव समारोहों के दौरान संदेशों और शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के साथ  ऐतिहासिक रूप से जुड़ गया  है।

Friday, July 7, 2023

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’



चन्द्रधर शर्मा गुलेरी (अंग्रेज़ी: Chandradhar Sharma 'Guleri, जन्म: 7 जुलाई, 1883; मृत्यु: 12 सितम्बर, 1922) हिन्दी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार थे। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक से अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।

मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर नामक गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं आत्मसात् किया। जब गुलेरी जी दस वर्ष के ही थे कि इन्होंने एक बार संस्कृत में भाषण देकर भारत धर्म महामंडल के विद्वानों को आश्चर्यचकित कर दिया था। पंडित कीर्तिधर शर्मा गुलेरी का यहाँ तक कहना था कि वे पाँच वर्ष में अंग्रेज़ी का टैलीग्राम अच्छी तरह पढ़ लेते थे। चन्द्रधर ने सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। चन्द्रधर बी.ए. की परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। सन् 1904 ई. में गुलेरी जी मेयो कॉलेज, अजमेर में अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। चन्द्रधर का अध्यापक के रूप में उनका बड़ा मान-सम्मान था। अपने शिष्यों में चन्द्रधर लोकप्रिय तो थे ही, इसके साथ अनुशासन और नियमों का वे सख्ती से अनुपालन करते थे। उनकी असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर पंडित मदनमोहन मालवीय ने उन्हें बनारस बुला भेजा और हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद दिलाया।[१] आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ. ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय) और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए, हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अँग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नगरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।

जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेने वाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज़ बुख़ार से मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।

इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला, मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष, इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषा विज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है। पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानो ग्रस लिया है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं। प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिन्दी भाषा समकालीन समाज, राजनीति आदि विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का ज़िक्र यदा-कदा होता रहता है, पर ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ जैसे एक दो निबन्धों और पुरानी हिन्दी जैसी लेखमाला के उल्लेख को छोड़कर उस विद्वता की बानगी आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो। व्यापक हिन्दी समाज उनकी प्रकाण्ड विद्वता और सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है।

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नगरी मंच की स्थापना में योगदान दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे। जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेने वाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े।

अकादमिक, शोधपरक लेखन

अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है। मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं।

रचनाएँ

निबंधकार के रूप में भी चंद्रधर जी बडे प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने सौ से अधिक निबंध लिखे हैं। सन् 1903 ई. में जयपुर से जैन वैद्य के माध्यम से समालोचक पत्र प्रकाशित होना शुरू हुआ था जिसके वे संपादक रहे। इन्होंने पूरे मनोयोग से समालोचक में अपने निबंध और टिप्पणियाँ देकर जीवंत बनाए रखा। चंद्रधर के निबंध विषय अधिकतर - इतिहास, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान और पुरातत्त्व संबंधी ही हैं।

चंद्रधर शर्मा गुलेरी की रचनाएँ[१]

निबंध

शैशुनाक की मूर्तियाँ

देवकुल

पुरानी हिन्दी

संगीत

कच्छुआ धर्म

आँख

मोरेसि मोहिं कुठाऊँ

कविताएँ

एशिया की विजय दशमी

भारत की जय

वेनॉक बर्न

आहिताग्नि

झुकी कमान

स्वागत

ईश्वर से प्रार्थना

कहानी संग्रह

उसने कहा था

सुखमय जीवन

बुद्धु का काँटा

भाषा विशेषज्ञ

प्रतिभा के धनी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने अपने अभ्यास से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं पर असाधारण अधिकार प्राप्त किया। उन्हें मराठी, बंगला, लैटिन, फ़्रैंच, जर्मन आदि भाषाओं की भी अच्छी जानकारी थी। उनके अध्ययन का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। साहित्य, दर्शन, भाषा विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व ज्योतिष सभी विषयों के वे विद्वान् थे। इनमें से कोई विषय ऐसा नहीं था, जिस पर गुलेरी जी ने साधिकार लिखा न हो। वे अपनी रचनाओं में स्थल-स्थल पर वेद, उपनिषद, सूत्र, पुराण, रामायण, महाभारत के संदर्भों का संकेत दिया करते थे। इसीलिए इन ग्रन्थों से परिचित पाठक ही उनकी रचनाओं को भली-भाँति समझ सकता था। ग्रन्थ रचना की अपेक्षा स्फुट के रूप में ही उन्होंने अधिक साहित्य सृजन किया।[२]

शोधपरक लेखन

अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है। मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं।

विषय-वस्तु की व्यापकता

विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन धर्म पुरातत्त्व, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे गम्भीर विषयों से लेकर काशी की नींद जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है, तो हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिन्दू धर्म के तमाम कर्मकाण्डों में विधिवत् दीक्षित, त्रिपुण्डधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रूढ़ियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना ज़रूरी है कि वे रूढियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते। खण्डन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। किन्तु धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखण्ड या अनौचित्य नज़र आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचना आज भी प्रासंगिक हैं। उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है-जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में इससे गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।

‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-

‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904)

साभार-भारतकोश


सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...