Sunday, July 31, 2022

मुंशी प्रेमचंद



उत्कृष्ट साहित्य की रचना तभी होगी, जब प्रतिभा संपन्न लोग तपस्या की भावना लेकर साहित्य क्षेत्र में आएंगे।-प्रेमचंद। 

आज उनकी जयंती है। प्रेमचंदजी का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव  में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद (प्रेमचन्द) की आरम्भिक शिक्षा फ़ारसी में हुई।  13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया था। सन 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे शिक्षक नियुक्त हो गए, और 1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और शिक्षा विभाग में इन्स्पेक्टर नियुक्त हुए। वे आर्य समाज से प्रभावित थे और विधवा-विवाह का समर्थन करते थे। उन्होंने स्वयं भी बाल-विधवा शिवरानी देवी से 1906 में दूसरा विवाह किया। 1910 में उनकी रचना- सोज़े वतन, जो धनपत राय के नाम से लिखी गयी थी, को जनता को भड़काने वाला कह कर, उसकी सारी प्रतियाँ सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयी थीं, और साथ ही आगे ना लिखने की हिदायत दी गयी थी। 

तब अपने अज़ीज़ दोस्त मुंशी दयानारायण की सलाह पर उन्होंने 'प्रेमचंद' के नाम से लिखना शुरू किया। उनकी पहली हिन्दी कहानी 'सौत' 1915 में और अंतिम कहानी 'कफ़न' 1936 में प्रकाशित हुई, बीस वर्षों की इस अवधि में उन्होंने कुल 301 कहानियाँ लिखीं जिनमें अनेक रंग देखने को मिलते हैं। 'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बड़े भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि, उनकी मुख्य कृतियाँ रहीं। 

उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए श्री शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर सम्बोधित किया। आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट, प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया, आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित करते हुए उन्होंने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनके पुत्र अमृत राय ने 'कलम का सिपाही' नाम से अपने पिता की जीवनी लिखी है।  डाक-तार विभाग ने उनकी स्मृति में 31 जुलाई 1980 को जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया। स्वास्थ्य बिगड़ने और लम्बी बीमारी के कारण 8 अक्तूबर 1936 को इस संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा विद्वान संपादक का निधन हो गया।

समग्रत: उपन्यास सम्राट, अपनी  लेखनी के  माध्यम  से ग्रामीण पृष्ठभूमि एवं शहरी समाज की  वास्तविकता  को  चित्रित करते हैं। रचनाओं के द्वारा समाज  को जागृत करते हैं। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उन्होंने सामयिक संदर्भों से भारतीय साहित्य की  गरिमा में वृद्धि की। । मुंशी प्रेमचंद की लेखनी में मानव भावनाओं को कागज़ पर सजीव करने की विलक्षण प्रतिभा थी। उनकी कृतियों में उस समय के चरित्र चित्रण अभी भी रोचक हैं, साथ ही उनके निहित संदेश अभी भी प्रसंगोचित है।

महान साहित्य  शिल्पी मुंशी प्रेमचंद  "नमक का दारोगा" लिखकर बता गए कि भ्रष्ट तरीके से कमाई हुई दौलत की चमक मनुष्य को कैसे आकर्षित करती है। कानून चाहे कितने भी बन जाएं समाज का भ्रष्टाचार से मुक्त होना असंभव है। ज़रूरी है संस्कार निर्माण और नैतिकवान होने पर ज़ोर देना। सौ वर्ष पहले जितनी घूसखोरी थी, आज उसकी संख्या बढ़ी ही है। यह कहा जा सकता है कि उनका लेखन तब भी प्रासंगिक था आज भी  है।

उनके देहावसान पर महान साहित्यकार रवींद्र नाथ ठाकुर जी ने आँसू बहाए ,दुख प्रकट किया।  पर हिंदी भाषियों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हक़दार थे और मृत्यु के बाद भी।  एक उद्धरण “अर्थी बनी । ग्यारह बजते-बजते बीस-पच्चीस लोग किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की ओर चले।  रास्ते में एक राह चलते ने दूसरे से पूछा -के रहल? दूसरे ने जवाब दिया- कोई मास्टर था!  उधर बोलपुर में,रवींद्रनाथ  ने धीमे से कहा- एक रतन मिला था तुमको, तुमने खो दिया।”उद्धरण समाप्त   ( कलम का सिपाही -पृष्ठ सं ६५२)। 

यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि महान रूसी साहित्यकार फ्योदेर  दास्तेवेस्की के जनाज़े में लेनिन के जनाज़े से बस थोड़े ही कम लोग  गए थे (कई हज़ार लोग थे)।रूसी भाषा -भाषियों  के मन में अपने प्रिय साहित्यकार के प्रति  कितना सम्मान और आदर का भाव था  उसे बताने के लिए मात्र इसका उल्लेख ही पर्याप्त है । साथ ही, हम हिंदी भाषियों की मन: स्थिति और यह बताने के लिए भी यह पर्याप्त है कि हम अपने साहित्यकारों की न तो उनके जीते जी कोई परवाह करते हैं और  न ही मरने के बाद ।

सादर नमन!

Thursday, July 28, 2022

धैर्य

 एक शिक्षक ने क्लास के सभी बच्चों को एक एक खूबसूरत टॉफ़ी दी और फिर कहा..."बच्चो ! आप सब को दस मिनट तक अपनी टॉफ़ी नहीं खानी है और ये कहकर वो क्लास रूम से बाहर चले गए।"

कुछ पल के लिए क्लास में सन्नाटा छाया था, हर बच्चा उसके सामने पड़ी टॉफ़ी को देख रहा था और हर गुज़रते पल के साथ खुद को रोकना मुश्किल हो रहा था।

दस मिनट पूरे हुए और वो शिक्षक क्लास रूम में आ गए। समीक्षा की। पूरे वर्ग में सात बच्चे थे, जिनकी टाफियाँ जस की तस थी,जबकि बाकी के सभी बच्चे टॉफ़ी खाकर उसके रंग और स्वाद पर टिप्पणी कर रहे थे।

 शिक्षक ने चुपके से इन सात बच्चों के नाम को अपनी डायरी में दर्ज कर लिए और नोट करने के बाद पढ़ाना शुरू किया।

इस शिक्षक का नाम प्रोफेसर वाल्टर मशाल था।

कुछ वर्षों के बाद प्रोफेसर वाल्टर ने अपनी वही डायरी खोली और सात बच्चों के नाम निकाल कर उनके बारे में खोज बीन शुरू किया।

 काफ़ी मेहनत के बाद , उन्हें पता चला कि सातों बच्चों ने अपने जीवन में कई सफलताओं को हासिल किया है और अपनी अपनी फील्ड में सबसे सफल है। प्रोफेसर वाल्टर ने अपने बाकी वर्ग के छात्रों की भी समीक्षा की और यह पता चला कि उनमें से ज्यादातर एक आम जीवन जी रहे थे, जबकी कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें सख्त आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का सामना करना पड रहा था।

इस सभी प्रयास और शोध का परिणाम प्रोफेसर वाल्टर ने एक वाक्य में निकाला और वह यह था...."जो आदमी दस मिनट तक धैर्य नहीं रख सकता, वह संभवतः अपने जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता.... ”

इस शोध को दुनिया भर में शोहरत मिली और इसका नाम "मार्श मेलो थ्योरी" रखा गया था क्योंकि प्रोफेसर वाल्टर ने बच्चों को जो टॉफ़ी दी थी उसका नाम "मार्श मेलो" था। यह फोम की तरह नरम थी।

इस थ्योरी के अनुसार दुनिया के सबसे सफल लोगों में कई गुणों के साथ एक गुण 'धैर्य' पाया जाता है, क्योंकि यह ख़ूबी इंसान के बर्दाश्त की ताक़त को बढ़ाती है,जिसकी बदौलत आदमी कठिन परिस्थितियों में निराश नहीं होता और वह एक असाधारण व्यक्तित्व बन जाता है।

अतः धैर्य  कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति की सहनशीलता की अवस्था है जो उसके व्यवहार को क्रोध या खीझ जैसी नकारात्मक अभिवृत्तियों से बचाती है। दीर्घकालीन समस्याओं से घिरे होने के कारण व्यक्ति जो दबाव या तनाव अनुभव करने लगता है उसको सहन कर सकने की क्षमता भी धैर्य का एक उदाहरण है। वस्तुतः धैर्य नकारात्मकता से पूर्व सहनशीलता का एक स्तर है। यह व्यक्ति की चारित्रिक दृढ़ता का परिचायक भी है।

हमारे मनीषियों  ने इसीलिये कहा :

न धैर्येण बिना लक्ष्मी-

र्न शौर्येण बिना जयः।

न ज्ञानेन बिना मोक्षो 

न दानेन बिना यशः॥


धैर्य के बिना धन, वीरता के बिना विजय, ज्ञान के बिना मोक्ष और दान के बिना यश प्राप्त नहीं होता है॥

Saturday, July 23, 2022

स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

 





स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ नारे के प्रणेता महान स्वाधीनता सेनानी बाल गंगाधर तिलक जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन!

अहमदनगर में हुई लोकमान्य तिलक की ऐतिहासिक बैठक 

 31 मई और 1 जून 1916 को लोकमान्य तिलक अहमनगर शहर में थे।  वह होमरूल आंदोलन के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए अहमदनगर आए थे।  31 मई को तिलक ने कपड़ा बाजार क्षेत्र में ऐतिहासिक बैठक की।   अहमदनगर की इस सभा में लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करूंगा" के नारे लगाए।

 ब्रिटिश सरकार ने इन सभी भाषणों को आपत्तिजनक घोषित किया और लोकमान्य के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर किया था।

Tuesday, July 19, 2022

बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस और आगे


‘बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस’ पर आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामना ! बैंकर राष्ट्र के आर्थिक समुन्नति की महती जिम्मेवारी निभाता है। 

19 जुलाई 1969 ही वह दिन था, जो भारतीय वित्त, बैंकिंग व वाणिज्यिक इतिहास में एक ऐतिहासिक कदम साबित हुआ।  जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने वंचितों के आर्थिक हितों की सुरक्षा एवं आर्थिक सशक्तिकरण के लिए एक ही झटके में 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कदम उठाया। उस समय यह कदम पूँजीपतियों की शक्तियों के संकेंद्रण को रोकने, विभिन्न क्षेत्रों में बैंक निधियों के उपयोग में विविधता लाने और उत्पादक उद्देश्यों के लिए राष्ट्रीय बचत को जुटाने के उद्देश्य से किया गया था।  बाद में 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिससे यह 20 राष्ट्रीयकृत बैंकों में बदल गया। जिसका व्यापक असर राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक प्रगति के रूप में दिखा। बाद में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने सशक्त अर्थव्यवस्था हेतु कई वित्तीय सुधार किए, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण रहा वंचितों के लिए जन-धन योजना, मुद्रा योजना और पेंशन और बीमा योजना। इन योजनाओं को लागू करने में बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। विमुद्रीकरण में बैंक कर्मियों ने आर्थिक सिपाही की भाँति देश के आर्थिक मोर्चे पर अपनी ज़ोरदार भूमिका निभाई। वर्ष 2020 में बैंकों का समामेलन वृद्धिशील अर्थव्यवस्था को देखते हुए किया गया। 

इस दीर्घ सफ़र में बैंकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को समाज के वंचित व मध्यमवर्गीय लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार की गई ऋण व अग्रिम योजनाओं के साथ संचालित किया, साथ ही साथ औद्योगिक क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर दीर्घकालिक ऋण दिया।  वृहत सामाजिक उद्देश्यों के लिए किसानों, लघु उद्योगों, कारीगरों और ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचने के लिए बैंकिंग प्रणाली में ऋण की आपूर्ति सामाजिक रूप से वांछनीय वर्गों पर केंद्रित थी।  बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने देश के सभी क्षेत्रों में बैंकों का विस्तार सुनिश्चित किया। विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में।  वित्तीय समावेशन ने समाज में वंचितों एवं निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के आर्थिक समुन्नति के द्वार खोले। मोदी सरकार ने बैंकिंग को ख़ास से आम बनाया। 

समय के साथ भारतीय बैंकिंग उद्योग ने प्रतिस्पर्धा, दक्षता, उत्पादकता के नए क्षितिज में प्रवेश किया है।  उदारीकरण ने बैंकों के समक्ष चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ दोनों के राह खोले। जैसे, जन धन ने सामान्य लोगों तक बैंकिंग तो विमुद्रीकरण ने डिजिटल बैंकिंग की दिशा में महत्वपूर्ण दिशा दिखाई। 

वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था की चुनौतियों ने बैंकों के देशी स्वरूप को बदलने को बदलने में योगदान दिया है। अब बैंकिंग ऋण-जमा व ग्राहक सेवा व सम्बंध से अधिक - अनुपालन, तीव्र लाभ, उत्पाद बिक्री व मानक पर ज़ोर आधारित होती जा रही है।  जिससे सरकारी बैंक  दोहरी चुनौतियों का सामना कर रहे है। इससे बैंकों की मूल पहचान खतरे में है जिसे समझना आवश्यक है। 

बैंकिंग में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव कोर बैंकिंग के बाद  भी नित नए प्रौद्योगिकी नवाचार जारी रहे। अब बैंक,  इंटरनेट बैंकिंग, डिजिटल बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग के साथ इस सहस्राब्दी वाली डिजिटल पीढ़ी के साथ कदम मिला रहे है। 

आज पारंपरिक बैंकिंग के समक्ष नए युग की फिन टेक कंपनियों द्वारा लाई गई सेवाओं के वितरण में उच्च गति वाली मोबाइल सेवाओं और प्रौद्योगिकी नवाचार के आगमन के साथ बैंकिंग को बेहद प्रतिस्पर्धी और "अस्तित्व के साथ संघर्ष " वाली स्थिति में ला खड़ा किया है। 

अब नीति आयोग एवं अन्य अर्थव्यवस्था के जानकारों द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 5 दशकों से अधिक समय बीत जाने के बाद, यह विचार अपनाने पर जोर दिया जा रहा है कि बैंकों का सरकारी स्वामित्व वर्तमान परिदृश्य में उपयुक्त नहीं हो सकता है।  "सरकार को बैंकिंग व्यवसाय  में नहीं होना चाहिए"  आदि-आदि। ऐसी सोच उदारीकरण के बाद सभी सरकारों का रहा है। चाहे वह वामपन्थ समर्थित ही क्यों न रहा हो। आए दिन मीडिया में कुछ सरकारी बैंकों के निजीकरण की खबरें आती रहती हैं। यह कर्मचारियों के मनोबल को कमजोर करता है। सरकार सुधार करें पर निजीकरण अंतिम विकल्प न हो।  प्रतिस्पर्धा का विकल्प या अंतिम विकल्प भी निजीकरण कदापि हो भी नहीं सकता । 

भारतीय बैंकिंग प्रणाली में सरकार और भारतीय रिज़र्व  बैंक द्वारा शुरू किए गए आगामी परिवर्तन चाहे जो भी हों, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि 1969, 1980 तथा 2014 से 2020 तक  बैंकों के राष्ट्रीयकरण के परिणामस्वरूप ग्रामीण आबादी के जीवन स्तर में विभिन्न स्तरों पर व्यापक सुधार परिलक्षित हुआ है।

आइये हम सभी बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस के अवसर पर शपथ लें कि बैंकों के राष्ट्रीयकृत स्वरूप की रक्षा करेंगे और आम जनमानस को बेहतर सेवा प्रदान करने के साथ भी यह भी प्रेरित करेंगे कि वे भी राष्ट्रीयकृत बैंकों को राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय अस्मिता का  मान देंगे। 

इस अवसर पर चंद लाइनें बैंकर्स एवं समर्पित ग्राहकों के लिए-

'लाख बाधाएँ आएं 

मगर

हम नित कर्म पथ पर अग्रसर रहेंगे,

‘कर्म ही जीवन’ है

इस जीवन उद्देश्य को हमने अपनाया है

अर्थ क्षेत्र के योद्धा है हम

राष्ट्र के सामाजिक पथ पर हमने अर्थ-क्रांति की ठानी है,

लाख बाधाएँ आएं मगर

हम देशहित में आगे बढ़ते रहेंगे!

©डॉ. साकेत सहाय

लेखक व शिक्षाविद्

संप्रति पंजाब नैशनल बैंक में मुख्य प्रबंधक(राजभाषा) हैं। 

संपर्क-hindisewi@gmail.com

Sunday, July 17, 2022

श्रम का महत्व-अब्राहम लिंकन

 



अमेरिका के अमेरिका #बनने की एक छोटी सी कहानी 

अब्राहम_लिंकन के पिता जूते बनाते थे, जब वह राष्ट्रपति चुने गये तो अमेरिका के अभिजात्य वर्ग को बड़ी ठेस पहुँची!

सीनेट के समक्ष जब वह अपना पहला #भाषण देने खड़े हुए तो एक सीनेटर ने ऊँची आवाज़ में कहा-

मिस्टर_लिंकन याद रखो कि तुम्हारे पिता मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे! इसी के साथ सीनेट भद्दे अट्टहास से गूँज उठी! लेकिन_लिंकन_किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे! 

उन्होंने कहा कि, मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे! सिर्फ आप के ही नहीं यहाँ बैठे कई माननीयों के जूते उन्होंने बनाये होंगे! वह पूरे मनोयोग से जूते बनाते थे, उनके बनाये जूतों में उनकी #आत्मा बसती है! अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण उनके बनाये जूतों में कभी कोई #शिकायत नहीं आयी! क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है? उनका पुत्र होने के नाते #मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ और यदि आपको कोई शिकायत है तो मैं उनके बनाये जूतों की #मरम्मत कर देता हूँ! मुझे अपने पिता और उनके काम पर #गर्व है!

सीनेट में उनके ये #तर्कवादी भाषण से #सन्नाटा छा गया और इस भाषण को अमेरिकी सीनेट के इतिहास में बहुत #बेहतरीन भाषण माना गया है और उसी भाषण से एक थ्योरी निकली "Dignity of Labour" यानी '#श्रम के #महत्व की #थ्योरी'.

इसका ये #असर हुआ की जितने भी कामगार थे उन्होंने अपने पेशे को अपना #सरनेम बना दिया जैसे कि - कोब्लर, शूमेंकर, बुचर, टेलर, स्मिथ, कारपेंटर, पॉटर आदि।

अमरिका में आज भी श्रम को महत्व दिया जाता है इसीलिए वो दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति है।

वहीं हमारे देश भारत में जो श्रम करता है उसका कोई #सम्मान नहीं है वो छोटी जाति का है। यहाँ जो बिलकुल भी श्रम नहीं करता वो ऊंचा है।

जो यहाँ सफाई करता है, उसे हेय (नीच) समझते हैं और जो गंदगी करता है उसे ऊँचा समझते हैं।

ऐसी गलत मानसिकता के साथ हम दुनिया के नंबर एक देश बनने का #सपना सिर्फ देख तो सकते है, लेकिन उसे पूरा कभी नहीं कर सकते। 

जब तक कि हम श्रम को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे।जातिवाद और ऊँच नीच का भेदभाव किसी भी राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत बड़ी #बाधा है।

आदतें संस्कार का पता बता देती हैं।





आदतें संस्कार का पता बता देती हैं...

एक राजा के दरबार मे एक अजनबी इंसान नौकरी मांगने के लिए आया। उससे उसकी क़ाबलियत पूछी गई, 

तो वो बोला, 

"मैं आदमी हो चाहे जानवर, शक्ल देख कर उसके बारे में बता सकता हूँ।

राजा ने उसे अपने खास "घोड़ों के अस्तबल का इंचार्ज" बना दिया। 

चंद दिनों बाद राजा ने उससे अपने सब से महंगे और मनपसन्द घोड़े के बारे में पूछा, 

उसने कहा, "नस्ली नही  हैं ।"

राजा को हैरानी हुई, उसने जंगल से घोड़े वाले को बुला कर पूछा..

उसने बताया, घोड़ा नस्ली तो हैं, पर इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है। 

राजा ने अपने नौकर को बुलाया और पूछा तुम को कैसे पता चला के घोड़ा नस्ली नहीं हैं ?" 

"उसने कहा "जब ये घास खाता है तो गायों की तरह सर नीचे करके, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुह में लेकर सर उठा लेता हैं।😊

राजा उसकी काबलियत से बहुत खुश हुआ, उसने नौकर के घर अनाज ,घी, मुर्गे, और अंडे बतौर इनाम भिजवा दिए। 

और उसे रानी के महल में तैनात कर दिया।  चंद दिनो बाद , राजा ने उस से रानी के बारे में राय मांगी, उसने कहा, "तौर तरीके तो रानी जैसे हैं लेकिन पैदाइशी नहीं हैं।”

राजा के पैरों तले जमीन निकल गई, उसने अपनी सास को बुलाया, मामला उसको बताया, सास ने कहा "हक़ीक़त ये हैं,  कि आपके पिताजी ने मेरे पति से हमारी बेटी की पैदाइश पर ही रिश्ता मांग लिया था, लेकिन हमारी बेटी 6 माह में ही मर गई थी, लिहाज़ा हम ने आपके रजवाड़े से करीबी रखने के लिए किसी और की बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।"

राजा ने फिर अपने नौकर से पूछा "तुम को कैसे पता चला ?"

""उसने कहा, " रानी साहिबा का नौकरो के साथ सुलूक गंवारों से भी बुरा हैं । एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने का एक तरीका होता हैं, जो रानी साहिबा में बिल्कुल नही।

राजा फिर उसकी पारखी नज़रों से खुश हुआ और बहुत से अनाज , भेड़ बकरियां बतौर इनाम दीं साथ ही उसे अपने दरबार मे तैनात कर दिया।  कुछ वक्त गुज़रा, राजा ने फिर नौकर को बुलाया,और अपने खुद के बारे में पूछा।

नौकर ने कहा "जान की सलामती हो तो कहूँ।”

राजा ने वादा किया।

उसने कहा, "न तो आप राजा के बेटे हो और न ही आपका चलन राजाओं वाला है।"

राजा को बहुत गुस्सा आया, मगर जान की सलामती का वचन दे चुका था, राजा सीधा अपनी मां के महल पहुंचा।

मां ने कहा, "ये सच है, तुम एक चरवाहे के बेटे हो, हमारी औलाद नहीं थी तो तुम्हे गोद लेकर हम ने पाला।”

राजा ने नौकर को बुलाया और पूछा , बता, "तुझे कैसे पता चला ?”

उसने कहा " जब राजा किसी को "इनाम दिया करते हैं, तो हीरे मोती और जवाहरात की शक्ल में देते हैं....लेकिन आप भेड़, बकरियां, खाने पीने की चीजें दिया करते हैं...ये रवैया किसी राजाओं का नही,  किसी चरवाहे के बेटे का ही हो सकता है।"

किसी इंसान के पास कितनी धन दौलत, सुख समृद्धि, रुतबा,  बाहुबल हैं ये सब बाहरी चीजें हैं । 

इंसान की असलियत की पहचान उसके व्यवहार और उसकी नियत से होती हैं...

साभार-सोशल मीडिया

गौहर जान

 

एक जमाने में अमीरों की महफ़िल में गौहर जान का जलवा हुआ करता था । गौहर कलकत्ता की प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी थी । 1905 में ग्रामोफोन पर गाना रेकॉर्ड करवाने वाली वह भारत की प्रथम कलाकार भी थीं । उस जमाने की वह एकमात्र करोड़पति कलाकार थीं । उनकी फीस साधारण आदमियों के वश की बात नहीं थी । 13 साल की उम्र में वह रेप का शिकार हो गयी थीं । 

गौहर के जलवों के बारे में सुनकर मध्य प्रदेश के दतिया रियासत के महाराज भवानी सिंह बहादुर ने उसको दतिया आने का न्योता भेजा। गौहर का उस समय बहुत नाम था इसलिए वह मनचाहा दाम मिलने पर भी हर जगह गाने के लिए नहीं जाती थी। दरभंगा, मैसूर, हैदराबाद, कश्मीर के रियासतों में गौहर अपना प्रदर्शन दे चुकी थी। सब बड़ी रियासतें थीं और दतिया एक छोटी सी रियासत। उसको अपने सम्मान के अनुसार नहीं लगा ऐसे छोटे रियासत में जाना, उसने मना कर दिया। महाराज को गौहर का न कहना इतना बुरा लगा कि उन्होंने इस बात को आन पर ले लिया। बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर उनके दोस्त थे। उनके रसूख़ का इस्तेमाम करते हुए उन्होंने गौहर जान के ऊपर दबाव बनाया कि दतिया में युवराज के राज्याभिषेक का आयोजन है, उसमें उनको जाकर गाना था। अंग्रेज़ साहब को गौहर मना नहीं कर सकती थी। लेकिन दतिया जाने के लिए उसने अपनी शर्तें रखी। उसने कहा कि उसके लिए एक स्पेशल ट्रेन भेजी जाए। महाराज मान गए और उन्होंने 11 कोच का ट्रेन गौहर जान के लिए भिजवाया। गौहर के साथ 111 लोग गए, जिनमें दस धोबी, चार नाई, बीस ख़िदमतगार, पाँच घोड़े, पाँच साईस, पाँच दासियाँ तथा दुअन्नी और चवन्नी नामक दो शिष्याएँ थीं। इसी से उसके रुतबे का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

गौहर पहुँची तो उसने पाया कि दतिया को राज्याभिषेक के लिए ख़ूब सजाया गया था। उसको एक विशाल बंगले में ठहराया गया और दतिया में रहने के दौरान 2000 रुपए प्रतिदिन का उसका मानदेय तय किया गया। राज्याभिषेक के दिन एक के बाद एक जाने माने गायक-गायिकाओं का प्रदर्शन हुआ। वहाँ जब बड़ी संख्या में अलग अलग रियासतों के राजाओं-राजकुमारों को गौहर ने देखा तो वह समझ गई कि दतिया कोई छोटी रियासत नहीं थी। उसने ग़लत समझ लिया था। ख़ैर, उस दिन उसके गाने का मौक़ा ही नहीं आया। गौहर हैरान। उसको लगा कि महाराज शायद उसको अकेले में सुनना चाहते होंगे, लेकिन कई दिन हो गए रोज़ उसके लिए महंगे तोहफ़े आते, और मानदेय भी समय पर मिल जाता। लेकिन गाने का मौक़ा नहीं आया। जब उसने महाराज के पास संदेश भिजवाया तो महाराज ने मिलने से तो मना कर दिया लेकिन उसका मानदेय दोगुना कर दिया। कई सप्ताह गुजर गए। गौहर बेचैन होने लगी।

एक दिन जब सुबह के समय महाराज घोड़े पर सवार होकर सैर के लिए जाने वाले थे तो गौहर ने जाकर उनके पाँव पकड़ लिए और कहा कि मुझे माफ़ कर दीजिए महाराज, मैं अभिमान में आ गई थी। गौहर ने कहा कि एक कलाकार के लिए इससे ज़्यादा अपमानजनक कुछ नहीं हो सकता कि उसको बुलाया तो जाए लेकिन अपनी कला के प्रदर्शन का मौक़ा न दिया जाए। मुझे पैसे नहीं चाहिए। मुझे जिस काम के लिए यहाँ बुलाया गया है उसको दिखाने का मौक़ा दिया। 

तब जाकर गौहर जान को दतिया में गाने का मौक़ा मिला। और उसके बाद छह महीने तक वह दतिया रियासत में रही और अपनी बेहतरीन गायकी का प्रदर्शन करती रही। 

गौहर की तस्वीर माचिस के डिब्बी के ऊपर छपती थी और उसके नाम के पिक्चर पोस्टकार्ड बिकते थे। उस दौर में कहा जाता था- 'गौहर के बिना महफ़िल जैसे शौहर के बिना दुल्हन।'

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...