Sunday, February 27, 2022

रूस -यूक्रेन युद्ध, भारत की भूमिका के बहाने अमेरिकी कुचक्र और सोवियत रूस का सहयोग


युद्ध किसी भी राष्ट्र, समाज, संस्कृति के लिए पाश्विकता का ही प्रसार करता है। युद्ध मानवता के विरुद्ध सबसे बड़ा अभिशाप है। यह अहं, सत्ता और तानाशाही का भी सबसे बड़ा हथियार है । भारत तो मानवता के लिए सबसे बड़े खलनायक 'युद्ध' का सबसे बड़ा शिकार रहा है। कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष । आज भले ही रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत सरकार को सभी सीख दे रहे हैं, पर सच्चाई यही है कि यह युद्ध रूस और यूक्रेन की महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है। थोड़ा कम या अधिक। 

सभी देश भारत नहीं होते, जो अमेरिका, चीन और इंग्लैंड द्वारा पोसे गए सांप रूपी पाकिस्तान का सामना पूरी हिम्मत और ईमानदारी के साथ कर रहा है।  वो तो  भला हो चार युद्ध और 'सर्जिकल स्ट्राइक' का जिसने पाकिस्तान को उसकी औकात दिखाई है। पर रूस भारत नहीं है, उसने एक महत्वपूर्ण सबक यूक्रेन और पूरी दुनिया को दे दिया है यह कि कभी किसी पर भरोसा न करो । हां, यह अलग बात है कि इस युद्ध में यूक्रेन की भोली और निरीह जनता शिकार हो रही है। जैसे बलूचिस्तान की निरीह जनता चीनी दमन का। 

जो लोग यूक्रेन के मुद्दे पर सरकार को सीख दे रहे है उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इंग्लैंड से आजादी मिलने के बाद भारत को जांचे-परखे मात्र दो ही मित्र देश मिले है। सोवियत संघ या वर्तमान रुस और इसरायल । 1971 में रुस के सहयोग को भला कौन भूला सकता है। इस युद्ध की एक परिघटना को याद कर लें । जब 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की हार तय लग रही थी, तो उसी समय पाकिस्तान के 'हथियार मित्र' तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को, विमानवाहक परमाणु पोत, यूएस 7वीं फ्लीट टास्क फोर्स को बंगाल की खाड़ी में भेजने का अनुरोध किया। 1970 के दशक में यूएसएस एंटरप्राइज, दुनिया का सबसे बड़ा विमान वाहक परमाणु पोत था, जिसमें 70 से अधिक लड़ाकू विमान चालित हो सकते थे। एक विशाल दैत्य की भांति ! उस समय भारतीय नौसेना के बेड़े का नेतृत्व 20,000 टन के विमानवाहक पोत, विक्रांत के पास था, जिसमें मात्र 20 हल्के लड़ाकू विमान थे। आधिकारिक अमेरिकी बयान के अनुसार, यूएसएस एंटरप्राइज को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा के उद्देश्य से भेजा गया था। पर सच्चाई यही था कि यह भारतीय सेना को धमकाने और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को रोकने के उद्देश्य से लाया गया एक कुचक्र था। भारतीय नौसेना को बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में एक साथ घेरने के उद्देश्य से शक्तिशाली ब्रिटिश नौसैनिक समूह भी आ गए। उस समय ब्रिटिश और अमेरिकी सेना द्वारा भारत को धमकाने की नीयत से एक समन्वित आक्रमण की योजना बनाई गयी। अरब सागर में ब्रिटिश जहाज और बंगाल की खाड़ी मेें शक्तिशाली नौसेना के बीच विश्वास से भरी भारतीय नौसेना फंसी थी। आजादी के बाद भारत इन विदेशी शक्तियों के कुचक्र का शिकार होकर चौथा युद्ध लड़ रहा था। आर्थिक रुप से समृद्ध आधुनिक विश्व के दो प्रमुख लोकतंत्र, विश्व के सबसे प्राचीन और सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने असत्य और क्रूरता के समर्थक बनकर खड़े थे। इस खतरनाक स्थिति से निपटने हेतु भारत ने अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी सोवियत संघ को तुरंत मदद का संदेश भेजा । तुरंत ही सोवियत संघ ने व्लादिवोस्तोक से 16 सोवियत नौसैनिक इकाइयों और छह परमाणु पनडुब्बियों को भेजा। भारतीय नौसेना के पूर्वी कमान के प्रमुख एडमिरल एन कृष्णन अपनी पुस्तक 'नो वे बट सरेंडर' में लिखते है कि उन्हें डर था कि कहीं अमेरिकी नौसैनिक चटगांव पहुंच जाएंगे। वे यह भी लिखते है कि उन्होंने किस प्रकार अमेरिकी-ब्रितानी कुचक्र को थामने के लिए 'करो या मरो' की रणनीति के तहत आक्रमण की योजना बनाई और, दिसंबर, 71 के दूसरे सप्ताह में, जब दैत्याकार यूएसएस एंटरप्राइज के नेतृत्व में यूएस 7वीं फ्लीट की टास्क फोर्स बंगाल की खाड़ी और ब्रिटिश बेड़ा अरब सागर पहुँचा, तो पूरी दुनिया अपनी सांसे थाम रखी थी। तब भारत का सबसे विश्वस्त सहयोगी दीवार बनकर खड़ा था । अमेरिकी और ब्रिटिश दोनों ही बेड़े सोवियत दीवार के समक्ष नही टिके। बिना लड़े ही पीछे हट गए। आज से 52 वर्ष पूर्व वर्ष 1971 की लड़ाई में अमेरिकी धमकी के समक्ष रूस ही ढाल बनकर खड़ा रहा। आज जो लोग रूस -यूक्रेन युद्ध में भारत की रणनीति को गलत बता रहे है उन्हें इस वाकये को जरूर याद रखना चाहिए । यह सच्चाई है कि आज की नीति में किसी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी नीति है 'अपने हितों की सुरक्षा'। ऐसे लोगों को इस घटना से अवश्य सीख लेनी चाहिए । 

डॉ साकेत सहाय 

 #साकेत_विचार

राम-कृष्ण

राम का घर छोड़ना एक षड्यंत्रों में घिरे राजकुमार की करुण कथा हैऔर कृष्ण का घर छोड़ना गूढ़ कूटनीति। राम जो आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते हैं, कृष्ण षड्यंत्रों के हाथ नहीं आते, बल्कि स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं। श्री राम से श्री कृष्ण हो जाना एक सतत प्रक्रिया है.... राम को मारिचि भ्रमित कर सकता है, लेकिन कृष्ण को पूतना की ममता भी नहीं उलझा सकती। राम अपने भाई को मूर्छित देखकर ही बेसुध बिलख पड़ते हैं, लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते। राम राजा हैं, कृष्ण राजनीति...राम रण हैं, कृष्ण रणनीति... राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं, कृष्ण मानवता के लिए... हर मनुष्य की यात्रा राम से ही शुरू होती है और समय उसे कृष्ण बनाता है। व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है, जितना राम होना.. लेकिन राम से प्रारंभ हुई यह यात्रा तब तक अधूरी है, जब तक इस यात्रा का समापन कृष्ण पर न हो।

साभार -सोशल मीडिया 

Wednesday, February 16, 2022

संत रविदास



आज संत रविदास जयंती हैं ।  माघ पूर्णिमा के अवसर उनकी जयंती मनाई जाती है। संत रविदास सनातन एवं समन्वय की संस्कृति के प्रतीक है। संत रविदास ‘रैदास’ के नाम से भ भी जाने जाते हैं । उनका एक दोहा -

ऐसा चाहूँ राज मैं 

जहाँ मिलै सबन को अन्न । 

छोट बड़ो सब सम बसै ,

 रैदास रहै प्रसन्न ।। 

यह हमारा दुर्भाग्य है कि तुर्क-मुग़ल-ब्रिटिश एवं उसके बाद के सत्ता वर्ग ने अपना हित साधने के लिए गौतम बुद्ध , महावीर, कबीर , गुरुनानक महाराज, गुरु गोविन्द सिंह महाराज , दयानंद सरस्वती , विवेकानंद,  अंबेडकर , ज्योतिबा फुले आदि तमाम सामाजिक - धार्मिक रहनुमाओं को जाति - धर्म के सांचे में बांधकर उनके विचारों को सीमित या बांधने का अनथक प्रयास किया।   जबकि कभी जाति व सभी प्रकार के मिथ्याचारों के विरोधी और सनातन धर्म के ध्वज वाहक संत रविदास ने  सिकन्दर लोदी के प्रलोभन का उत्तर यूँ  दिया था:

 "प्राण तजूँ पर धर्म न देऊँ

तुमसे शाह सत्य कह देऊँ"

"वेद धरम त्यागूँ नहीँ 

जो गल चलै कटार"

संत रविदास  महाराज सनातन संस्कृति के आदर्श पुरुष है। सनातन संस्कृति के नायक हैं। ऐसे ही महापुरुष भारतीयता के प्रतीक माने जाते हैं । 

जय हिंद ! जय भारत !! जय सनातन !!! 

© डॉ . साकेत सहाय 

#रविदास

इसे आप मेरे ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं http://vishwakeanganmehindi.blogspot.com/2022/02/blog-post_16.html 

Saturday, February 12, 2022

नालंदा विश्वविद्यालय नये प्रारूप में







इतिहास को हम और आप बदल नहीं सकते पर इतिहास हमारी विरासतों, प्रतीकों का आईना जरूर होता है। इतिहास हमें सशक्त भविष्य हेतु हमारी अटूट विरासतों से रु-ब-रु कराता है। भारत का इतिहास तो जीवंत अतीत के साथ खंडित प्रतीकों का भी दस्तावेज रहा है। बहुधा हम इन खंडित प्रतीकों में जाने से परहेज भी करते हैं, पर इतिहास तो इतिहास है। वह सत्य की अकाट्य तस्वीर है, चाहे आप कितनी भी इससे छेड़छाड़ कर दें वह सत्य की गवाही जरूर देगा। भारत का इतिहास तो इस छेड़छाड़ का सबसे बड़ा शिकार हुआ। पर सत्य तो 'आत्मा' की तरह अटल, अडिग और अमर है। तभी तो कहा गया है - 

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते। 

मृज्यया रक्ष्यते रुपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।। 

भावार्थ: धर्म की रक्षा सत्य से, ज्ञान से अभ्यास से, रूप से स्वच्छता से और परिवार की रक्षा आचरण से होती है।

भारत देश की संरचना भी सत्य की नींव पर खड़ी है। इसीलिए तमाम रक्तरंजित आक्रमणों के बावजूद यह देश जीवंत है, इसका इतिहास शाश्वत हैं । हमारा इतिहास बार-बार जीवंतता और भाव-बोध के साथ पुनः उठ खड़ा होता है। हम भारतीय पुनः अपने गौरवमयी इतिहास को देखने के साक्षी बन रहे हैं। वर्ष 1193 में दुर्दांत आक्रमणकारी आधुनिक शब्दों में आतंकवादी बख्तियार खिलजी ने कभी भारत के गौरव के प्रतीक 'नालंदा विश्वविद्यालय' को नेस्तनाबूत कर दिया था। तब से यह अपूर्व विरासत खंडहर के रुप में तब्दील होता रहा। कभी नालन्दा विश्वविद्यालय पूरी दुनिया का ज्ञानपीठ माना जाता था। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, धर्मशास्त्र, साहित्य, दर्शन, कला, शिल्प, सभ्यता का प्रमुख ज्ञान केंद्र था। यहाँ के स्नातक प्रकाण्ड पांडित्य से पूरी दुनिया को प्रेरित कर रहे थे। जब सनातन संस्कृति की मूल प्रतीकों के साथ संपूर्ण एशिया में बौद्ध मत की विजय पताका फहरा रही थी, तब भारतीय ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत नालन्दा ही था। नालंदा की भव्यता के बारे में इतिहास में बहुत कुछ लिखा गया है। सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि दूसरी शती के मध्य में यह एक बहुप्रतिष्ठित ज्ञान केंद्र था। महायान के प्रवर्तक नागार्जुन का संबंध यहीं से रहा। नालन्दा को महाज्ञानियों का गढ़ भी माना जाता रहा है। 

वर्तमान नालंदा के एक गाँव में भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में यह अपूर्व विरासत केंद्र अपने ध्वंसावशेष, ऊँची दीवारें, अनगिनत टीले, प्राचीन तालाब इत्यादि के साथ अपने गौरव-गाथा को आगंतुक पर्यटकों के दिलों में भारतीय इतिहास की जीवंतता का बखान करता है। पर कभी इस केंद्र में सुदूरवर्ती चीन, जापान, मध्य एशिया, तिब्बत, श्याम, बर्मा, मलय इत्यादि देशों के विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे। यहाँ अठारह बौद्ध निकाय ग्रन्थों के अतिरिक्त वैद्यक, दर्शन, साहित्य, कला, ब्राह्मण एवं जैन-दर्शन आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। खंडहरों की खुदाई से यह ज्ञात होता है कि यहाँ हर प्रकार की शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रबन्ध था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार, नालंदा में दस हजार से अधिक छात्र पढ़ते थे और अध्यापकों की संख्या डेढ़ हजार के करीब थीं । करीब तीन सौ छात्रावास भवन थे। रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नामक तीन विशाल पुस्तकालय भवन थे। इन पुस्तकालयों में विविध विषयक ग्रंथ मौजूद थे। 

नालन्दा समस्त संसार में ज्ञान-विज्ञान के पथ-प्रदर्शक के रुप में विख्यात था। भारत-दुर्दशा के बुरे दिनों में विदेशी आक्रांता के आक्रमण ने विश्वविख्यात नालन्दा को नेस्तनाबूत कर दिया। कहा जाता है कि कई मास तक यह विश्वविद्यालय जलता रहा। आज भी इसके ध्वंसाशेष में मिली जली ईंटें इसकी गवाही दे रही हैं । 

अब, यह एक सुखद समाचार है कि खंडहर में तब्दील नालंदा विश्वविद्यालय को एक नए कलेवर में पुनः खड़ा किया जा रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय का यह नवीन परिसर पूरी तरह से बनकर तैयार है। समय बदला, सोच बदली की नीति के साथ नालंदा विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास को नए संकल्प के साथ स्थापित करने के लिए बिहार सरकार ने केंद्रीय सरकार के वित्तीय सहयोग से नालंदा विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण कराया है, विश्वविद्यालय का यह ढांचा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की प्रतिकृति के रुप में निर्मित है। सब कुछ प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का अहसास देगा। 

प्रार्थना है इस पहल के साथ ही इसे भारत के 'ज्ञान केंद्र' के रुप में स्थापित किया जाए । साथ ही, भारत कभी अपनी भाषा, संस्कृति और ज्ञान के बल पर विश्व गुरू बना था, आशा है सरकार इस स्मृति का भान रखते हुये विश्वविद्यालय में संस्कृत, हिंदी एवं सभी भारतीय भाषाओं में संचित ज्ञान को उन्मुख करने की दिशा में कार्य करेगी। तभी यह 'ज्ञान केंद्र' ऐतिहासिक विरासतों के मूल धरोहरों को जीवंत कर सकने में सक्षम हो सकेगा। 

शीघ्र ही माननीय प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री, बिहार के कर-कमलों से विश्वविद्यालय का लोकार्पण किया जाएगा। तब तक इस अपूर्व धरोहर के नए प्रारूप का आनंद लें एवं समेकित संकल्प अपनी भाषा, ज्ञान को सशक्तता प्रदान करने का जरूर लें ।

 जय हिंद! जय हिंदी!! 

 #नालंदा #











साकेत_विचार

Sunday, February 6, 2022

भारत कोकिला लता मंगेशकर जी को अंतिम प्रणाम


भारत कोकिला लता दीदी राष्ट्र, समाज, संस्कृति को समर्पित अपने नश्वर देह को त्याग कर आज अनंत में विलीन हो गयी।  कहते हैं लता जी के कंठ में साक्षात् वाग्देवी निवास करती थीं।  जिसे कई पीढ़ियों ने अनुभूत किया।  कल माँ वाग्देवी की पूजा थी, आज माँ विदा हो रही हैं तो इस क्षण में वृहत्तर भारतीय समाज को ऐसा लग रहा है जैसे माँ इस बार अपनी प्रिय कलापुत्री को ले जाने स्वयं आयी थीं। 

इस धरा का सबसे अमिट, अटल सत्य है मृत्यु ।  जो आया है वो जाएगा। मृत्यु बहुधा इस चराचर जगत में पूर्णता का भी प्रतीक है।  लता दीदी ने भरपूर जीवन जिया।  93 वर्ष का वैशिष्ट्य एवं विविधतापूर्ण जीवन जीनेे वाली लता जी को लगभग पाँच पीढ़ियों ने मंत्रमुग्ध होकर सुना है। जब उनकी गुुुुड़़ियों के साथ खेलने का उम्र थीं, तभी उनकेे पिता ने अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी।  तेरह वर्ष की अल्पायु मेंं ही लता दीदी के कंधे पर चार छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन की जिम्मेवारी थी। लता जी ने अपना समस्त जीवन इन चारों के कल्याण में समर्पित कर दिया। 




कला के प्रति प्रतिबद्धता एवं समर्पण का परिणाम है भारतरत्न लता  दीदी का विशिष्ट व्यक्तित्व ।  व्यक्ति अपने जीवन में इन्हीं  सब कुछ का तो आकांक्षी रहता है।   भारतीय जनमानस की रगों में बीते सात दशकों से लता दीदी के गीतों का रस झंकृत हो रहा है।  सुख-दुख, हर्ष-विषाद, भक्ति-अध्यात्म, राष्ट्रप्रेम  सभी रंग, सभी भाव में ।  सही मायनों में लता दीदी भारत कोकिला रहीं । भारत उनके 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत से जाग उठता था, राष्ट्रीय भक्ति-भाव से परिष्कृत हो उठता था।  

संगीत ही उनके लिए जीवन था। कोई उनके घर जाता तो उसे वे अपने माता-पिता की तस्वीर और घर में बना अपने आराध्य का मन्दिर दिखातीं थीं। बस इन्ही चीजों से उन्हें लगाव था।  स्वर कोकिला लता दीदी ने 28 से अधिक भाषाओं में 80 वर्ष तक देश को अपनी आवाज के जादू से मोहित किया।  "तुम अगर जाओ, कभी जाओ,  कहीं वक़्त से कहना ज़रा वो ठहर जाए वहीं वो घडी वहीं रहे, ना जाए ना ना जिया लागे ना"  इस प्रकार के भावपूर्ण गीत से लता जी ने न जाने कितने संगीत प्रेमियों को जागृत किया। 

लता दीदी ने कभी अपने एक साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता के यह पूछे जाने पर कि 'क्या वे फिर से लता मंगेशकर के रूप में दुबारा जन्म लेना चाहेंगी?'  तो लता दीदी ने उत्तर में कहा था कि वे इस धरती पर दुबारा नहीं आना चाहेंगी। आज वे अनंत में विलीन हो गयी।  

देश की जनता, आपको यूँ ही न भूला ना पाएगी, लता दीदी, आप युगों तक जीवंत रहेेंगी, आपकी हर गीत, आपकी मधुर आवाज हम सभी को  आपको याद करने पर मजबूर करेगी। 

भारत रत्न लता मंगेशकर को अंतिम प्रणाम 🙏🌷


Saturday, February 5, 2022

हिंदी अपमान नहीं, सम्मान की भाषा


दो दिन पहले केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया से सदन में एक संसदीय प्रश्न के हिंदी में उत्तर दिए जाने से सांसद शशि थरूर उनसे विवाद मोल लेते है। घटनाक्रम यह है कि सदन में नागरिक उड्डयन मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न का हिंदी में उत्तर दिया, जिसे तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर ने "अपमान" करार दिया। इसे  तमिलनाडु के सदस्यों द्वारा अंग्रेजी में पूरक प्रश्न के रुप में पूछे गयाा था, जिसका केंद्रीय मंत्री ने हिंदी में उत्तर दिया। इसके तुरंत बाद, सांसद शशि थरूर ने टिप्पणी की कि मंत्री का हिंदी में उत्तर देना "अपमान" है। थरूर ने कहा, "मंत्री अंग्रेजी बोलते हैं, उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देने दीजिए।" थरूर ने कहा, "उत्तर हिंदी में मत दीजिए, ये अपमान है लोगों का।" 

सदन में एक अनुभवी संसद सदस्य द्वारा राजभाषा, राष्ट्रभाषा के विरुद्ध इस प्रकार की टिप्पणी से नाराज मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि एक वरिष्ठ सदस्य का इस प्रकार की टिप्पणी करना बड़ा अजीब है। उन्होंने कहा, "मैंनेे हिंदी में बोला तो आपत्ति है," उन्होंने कहा कि सदन में इस हेतु अनुवादक की व्यवस्था भी है। सांसद शशि थरूर की इस टिप्पणी के तुरंत बाद, लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने कहा, "ये अपमान नहीं है।" 

इससे पूर्व भी शशि थरुर यह कहकर अपनी आंग्ल मानसिकता का परिचय दे चुके है। " हिन्दी,हिन्दू और हिन्दुत्व की विचारधारा देश (भारत) को बाँट रही है " आखिर इस प्रकार के विरोध से माननीय सांसद शशि थरूर क्या हासिल करना चाहते है?  

सांसद, संसदीय व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग होते है और हिंदी संसदीय लोकतंत्र की प्रतिनिधि भाषा।  क्या माननीय की संविधान, संसद और लोकतंत्र के प्रति कोई आस्था नहीं है? ऐसे में राजभाषा के अपमान पर विधायिका क्या कोई कार्रवाई करेगी? 

इस हेतु उन्हें तमिलनाडु के भाषाई मामले में माननीय न्यायालय के पूर्व निर्णयों को ध्यान में रखना चाहिए । क्या किसी देश की राजभाषा किसी के लिए भी "अपमान " की भाषा हो सकती है। इस देश की व्यवस्था, तंत्र इस पर दृढ़तापूर्वक विचार करें । हिंदी ने सदियों के हक से, राष्ट्रभाषा से राजभाषा का सफर तय किया है। जहाँ तक हिंदी का प्रश्न है हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं । इस तथ्य को सदियों से प्रतिपादित किया गया है। फिर किस तथ्य के आधार पर यह 'अपमान' की भाषा इस देश के किसी भी जन के लिए हो सकती है। इस प्रकार का बयान देश का अपमान है। 

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारी भाषा एवं संस्कृति स्वयमेव समरसता के आधार पर स्थापित हुई है। अतः इस प्रकार के अतार्किक बयानों से किसी को भी परहेज करना चाहिए, विशेष रूप से जिम्मेदार नेतृत्व को। 

यह राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है। हिंदी आत्मीयता की भाषा हैं। इसे हर भारतीय अनुभूत करता है। मैंने स्वयं भी इसे अनुभव किया है। जब भी मुझे किसी सेमिनार, संगोष्ठी या अन्य किसी कार्य से देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने का अवसर प्राप्त होता है तो भाषा के एक छात्र होने के नाते मेरा पहला ध्यान लोगों द्वारा सामान्य या आपसी बातचीत में उनके द्वारा बोली जाने वाली लोकभाषाओं पर रहता हैं । जिसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके द्वारा प्रयुक्त अधिकांश शब्द सभी भारतीयों को आसानी से समझ आ जाते हैं। 

यह तथ्य भारतीय लोकजन द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं यथा तमिल, तेलुगु, पंजाबी, मलयालम, गुजराती, मराठी, कन्नड़, बांग्ला तथा हिंदी की सभी 22 बोलियों (यदि लिपि को छोड़ दें तो उर्दू हिंदी एक ही भाषा के दो रुप हैं । 

संविधान निर्माताओं के मन में यह तथ्य जरूर रहा होगा हिंदी को देश की राजभाषा बनाने की पृष्ठभूमि में। संविधान में भी उसी हिंदी या हिंदुस्तानी को मान्यता दी गई है जिसमें मूलतः संस्कृत यानि हमारी परंपरा, व्यवहार एवं व्यवस्था की शास्त्रीय भाषा तथा गौणत: अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को शामिल करने की बात कही गई है। 

परंतु हमने केवल खड़ी बोली को हिंदी का रूप मानकर एक हद तक हजारो वर्षों से भारतीय लोक जनमानस की भाषा हिंदी को कमजोर करने का कार्य किया है। दरअसल सभी भारतीय भाषाओं में लिपि को यदि छोड़ दें तो अद्भुत शाब्दिक समानता है। इस दिशा में हम सभी को सोचने की आवश्यकता है। एक उदाहरण-' घाम' शब्द को ही लें यह शब्द बांग्ला, मराठी, हिंदी के देशी रूप भोजपुरी, पंजाबी, तेलुगु आदि भाषाओं में धूप या गर्मी के अर्थ में समान रूप से प्रयुक्त किए जाते है। ऐसे असंख्य शब्द है। 

फिर भी नकारात्मकता के साथ यह धारणा फैलाई गई कि भारत विभिन्न भाषा-भाषियों का देश है। जबकि तथ्य यह भी है भारत के लोगों की बोलियों में विभिन्नता के बावजूद अद्भुत शाब्दिक समानता है और इस समानता की धूरी सदियों से अलग-अलग रूपों में मौजूद रही है। कभी पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदुस्तानी या हिंदी के रूप में । 

वर्ना क्या कारण है नानक-कबीर की वाणी संचार के कम साधनों के बावजूद देश भर में लोकप्रिय रही। हिंदी की इस ताकत को उसकी समरसता को भारत के सभी शासकों ने समझा, पर अफसोस आज़ादी के बाद हमारे शासक उस ढंग से समझ नहीं पाए । पर इसे समझना देश के लिए नितांत आवश्यक है । हां आम जनता जरूर समझती है । 

अतः आदरणीय शशि थरुर जी इस प्रकार के अतार्किक बयानों से परहेज कीजिए। हिंदी अपमान नहीं, देश के स्वाभिमान, सम्मान की भाषा है। हिंदी विभाजन की नहीं, राष्ट्रीय एकता की भाषा है । 

 डाॅ साकेत सहाय

 शिक्षाविद्

Thursday, February 3, 2022

संघवाद के विरुद्ध ब्यान

1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में गाँधीजी ने कहा था कि "विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिये हम हिंदी सीखें। ऐसा करने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं और वह राष्ट्रीय होने के लायक है।" परंतु आज बड़ा दुख हुआ देश की सबसे पुरानी पार्टी से टूट कर बनी कांग्रेस(आई) के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के नजरिए से कि भारत राष्ट्र नहीं है, शायद इसके संस्कार उन्हें अपनों से मिले होंगे जो भारत राष्ट्र की परंपरा, संस्कृति और सबसे प्रमुख 'हिंदी' से भारी द्वेष रखते थे। हालांकि इन ब्यानों को ज्यादा तूल नहीं दिया चाहिए । क्योकि यह सत्य सदैव जीवंत बना रहेगा कि यह देश एक दिन में नहीं बना यह तो सदियों से तमाम लुटेरों की लूट के बावजूद आज भी शाश्वत है, अमिट है और इसकी जनभाषा हिंदी इस अटूट संस्कृति का पहिया। पर हम सभी को उस मानसिक क्षुद्रता की खोज करनी चाहिये कि आखिर क्यों? इस देश को जोड़ने वाली हर चीज पर क्षुद्र मानसिकता वाले प्रहार करते हैं । कभी मर्यादा पुरुषोत्तम पर, कभी माता सीता, कभी श्रीकृष्ण व कभी अन्य महापुरुषों, कभी हमारी परंपराओं पर, कभी हमें खंडित दिखाकर, कभी हमारी भाषा को हीन बनाकर, कभी आपस में लड़ाकर। अब यह सब थमना चाहिए। राष्ट्र आज अपने महान सेनानियों के कठोर बलिदान, आत्मोत्सर्ग के बाद तुर्क-मुगल-ब्रिटिश पराधीनता से अपनी स्वाधीनता का 75वां वर्ष मना रहा है। ऐसे में हम सभी को इन कुत्सित प्रयासों से सचेत रहना होगा। "इंडिया इज नॉट ए कंट्री इट्स यूनियन ऑफ स्टेट्स"…. राहुल गांधी का यह भाषण उन बलिदानियों का मजाक है। यह शर्म का भाषण है। देश केवल चुनाव या सत्ता के लिए नहीं होता। शायद इसी प्रकार की सोच के कारण काँग्रेस इतिहास में सिमटती जा रही है। श्रीमन् राहुल गांधी जी भारत को "राज्यों के संघ" के रूप में संदर्भित करके क्या संदेश देना चाहते हैं? राहुल गाँधी चुनाव आयोग, न्यायपालिका पर भी आरोप लगाते हैं । इस प्रकार के ब्यानों से उनकी कुंठा का संकेत मिलता है। क्या सत्ता के लिये उनकी पार्टी देश के अखंडतावाद को कमजोर करेगी? सत्ता के लिये कभी जातिवाद, दलितवाद, अल्पसंख्यकवाद का हौवा देश को ही कमजोर करेगा और इस प्रकार के ब्यानों से आसुरी शक्तियों को ही बल मिलता है। भारत को क्षेत्रवाद के जरिए तोड़ने की साजिश भारत के सबसे बड़े दुश्मन चीन के हित में ही काम करेगा। अब चीन का हित सोचने वाले कौन लोग हो सकते हैं ? सत्ता छोड़ते समय अंग्रेज इस देश की व्यवस्था में कई गुत्थियाँ छोड़ गए, जिनको अभी तक सुलझाया नहीं जा सका है। अब क्या देश की कथित सबसे पुरानी पार्टी के नेता इन गुत्थियों को और उलझाने का कार्य करेंगे । विचार कीजिए, आप सब। मेरी प्रार्थना है ईश्वर उन्हें सुबुद्धि दें । 

 #साकेत_विचार

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...