भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकता और हिंदी


जब भी मुझे किसी सेमिनार, संगोष्ठी या अन्य किसी कार्य से देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने का अवसर प्राप्त होता है तो भाषा के विद्यार्थी होने के नाते मेरा पहला ध्यान लोगों द्वारा सामान्य या आपसी बातचीत में उनके द्वारा बोली जाने वाली लोक भाषाओं पर रहता हैं ।  जिसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके द्वारा प्रयुक्त अधिकांश शब्द सभी भारतीयों को आसानी से समझ आ जाते हैं।  यह तथ्य भारतीय लोक जन द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं यथा तमिल, तेलुगु, पंजाबी, मलयालम, गुजराती, मराठी, कन्नड़, बांग्ला तथा हिंदी की सभी 22 बोलियों (उर्दू को मैं हिंदी एवं हिंदुस्तानी का मिश्रित रूप मानता हूँ, यदि फारसी लिपि न हो तो उर्दू हिंदी का ही  रूप हैं ) के भाषा-भाषियों पर समान रूप से लागू होता है।

उर्दू भाषा का विकास तो मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ-साथ शुरू होता है और यही उर्दू दक्षिण में जाकर दक्खिनी का नाम लेती है और फिर उत्तर में आकर रेख्ता के नाम से प्रचलित हो जाती है।  भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से उर्दू और हिंदी दोनों एक भाषा है। आधुनिक युग में अंग्रेजों ने शैक्षिक और राजनीतिक कारणों से उर्दू भाषा को हिंदी से अलग देखने का यत्न किया । जिसमें कहीं न कहीं राजनीति ही ज्यादा नजर आती है। परंपरा, ज्ञान, संस्कार एवं संस्कृति की भाषा संस्कृत के साथ भी ऐसा ही षड्यन्त्र किया गया।

यह देखा गया है कि भारतीय जागरण के साथ ही भाषा भी राजनीतिक दांव-पेंच की कठपुतली बन गई। पहले तो यह माना जाता था कि भाषा देशगत होती है; परंतु भाषा विज्ञान का कोई भी सिद्धांत यह सिद्ध नहीं कर सकता कि भाषा जातिगत या धर्गगत होती है।  किन्तु ब्रिटिश काल से ही राजनीतिक षड्यंत्र के तहत भाषाओं को विभाजन का हथियार बनाया गया।  भाषाओं को विशेष धर्म या प्रदेश से बांधने का प्रयास किया गया। ऐसी भी धारणा बनाई गई कि भाषा विशेष के बिना धर्म या प्रदेश या संस्कृति का अस्तित्व मिट जाएगा।  भाषा और लिपि के बारे में झूठे प्रचार जोर-शोर से किए गए। उर्दू भाषा के साथ फारसी लिपि को बांधना क्या माना जाएगा। इससे उर्दू कमजोर ही हुई है।  देश की तमाम अन्य भाषाओं को भी राजनीतिक षड्यन्त्र के तहत विभाजित करने का प्रयास किया गया।  जो किसी से छुपी हुई नहीं है।  इन सभी कारणों से भारतीय भाषाओं की अद्भुत शाब्दिक एकता को छिपाने का यत्न किया गया।

यदि भारत के पिछले इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो ज्ञात होता है कि विज्ञान, इतिहास, परंपरा, संस्कृति, धर्मग्रंथ, गणित, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, दर्शन, स्मृति, पुराण, साहित्य आदि जिस भाषा में लिख जाते हैं वही भाषा और वही लिपि उस देश के राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि मानी जाती है । इस देश में सदियों देवनागरी लिपि और संस्कृत भाषा इन सभी की भाषा थी।  साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यिक चेतना का मूल स्वर एक ही है।  यही चेतना का स्वर संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि के माध्यम विभिन्न धाराओं से प्रवाहित होती हुई जनभाषा के रूप में हिंदी  के रूप में विद्यमान है।  जिसके बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय में' कहते है -



‘’भारत की आधुनिक भाषाओं में नए शब्द बनाने की शक्ति समाप्त है।  अब भारत की जो भी भाषा नया शब्द खोजती है, उसके सामने संस्कृत की ओर जाने के सिवा और कोई राह नहीं है।  इसी संस्कृत पर आधारित होने के कारण भारत की सभी भाषाएं एक हैं, क्योंकि उनके शब्द एक हैं, उनकी तर्ज, भंगिमा और अदाएं एक हैं तथा वे एक ही सपने का आख्यान अलग-अलग लिपियों में करती हैं।  

उत्तर भारत की सभी भाषाएं संस्कृत से निकलकर विकसित हुई हैं। ये भी परस्पर भिन्न हैं, किन्तु संस्कृत ने हिंदी को, एक खास ढंग से, विकसित करके उत्तर भारत को एक ऐसी भाषा दे दी, जो थोड़ी-बहुत सभी भाषा क्षेत्रों में समझ ली जाती है। तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भी प्राचीन तमिल से ही निकली हैं। लेकिन, द्रविड़ क्षेत्र में उस परिवार की कोई ऐसी भाषा उत्पन्न नहीं हुई, जो चारों भाषा-क्षेत्रों में समझी जा सके।  उत्तर की एक विलक्षणता यह भी है कि वहां सभी भाषाएं (संसार की अन्य भाषाओं के समान) किसी-न-किसी क्षेत्र के लोगों की मातृ भाषाएं हैं, केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जो सही माने में, किसी भी क्षेत्र की मातृभाषा नहीं है।   कदाचित् यही कारण है कि सारा देश उसे अपनी भाषा के रूप में अपना रहा है।   इसी प्रकार संस्कृत भी भारत के किसी एक क्षेत्र की मातृभाषा नहीं थी।‘’

संविधान निर्माताओं के मन में यह प्रमुख तथ्य रहा होगा हिंदी को देश की राजभाषा बनाने की पृष्ठभूमि में।  हिंदी राजभाषा बनी अपनी जनप्रियता के बल पर। हिंदी ने लोकसत्ता के बल पर लोक मानस में राष्ट्रभाषा की स्वीकार्यता पाई है। इसी लोकसत्ता के बाल पर हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला।  संविधान में भी हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकता को मान्यता दी गई है तथा उस हिंदी को मान्यता दी गई है जिसमें मूलतः संस्कृत यानी हमारी परंपरा, व्यवहार एवं व्यवस्था की शास्त्रीय भाषा तथा गौणत: अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को शामिल करने की बात कही गई है। परंतु हमने केवल खड़ी बोलीं को हिंदी का रूप मानकर एक हद तक हजारों वर्षों से लोकमानस की भाषा हिंदी को कमजोर किया।

तमाम समानताओं के बावजूद आज का युवा भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का मानता  है।  यही कारण है कि तमाम भारतीय भाषाएं खिचड़ी बनती जा रही है।  अंग्रेजी के पीछे का श्रेष्ठता बोध भारतीय भाषाओं  को कमजोर कर रहा है। अब तो यह स्थिति होती जा रही है कि युवा पत्रकार, लेखक हिंदी एवं भारतीय भाषाओं से परहेज करते है। उन्हें बस कामचलाऊ हिंदी आनी चाहिए।  और राजनीति इतनी कि जब बात हिंदी की आती है तो फिर तमाम जन हिंदी बनाम भारतीय भाषाओं की तान छेड़ते है। बाकी चीज़ो में संविधान अहम् है पर हिंदी के लिए नहीं। ऐसी सोच भारतीय संविधान का भी अपमान है। हिंदी को अखिल भारतीय स्वरूप देने के लिए यह जरूरी है कि वह अंग्रेजी से अधिक भारतीय भाषाओं से समन्वय करें।

दरअसल सभी भारतीय भाषाओं में लिपि को यदि छोड़ दें तो अद्भुत शाब्दिक समानता है। इस दिशा में हम सभी को सोचने की आवश्यकता है। एक उदाहरण-' घाम' शब्द को लें यह शब्द बांग्ला, मराठी, हिंदी के देशी रूप भोजपुरी, पंजाबी, तेलुगु आदि भाषाओं में धूप या गर्मी के अर्थ में समान रूप से प्रयुक्त किए जाते है। ऐसे असंख्य शब्द है।  यह शाब्दिक समानता का ही असर है एक आम भारतीय लोक भाषाओं को दो से तीन माह में कामचलाऊ रूप से सीख लेता है।  जबकि तमाम प्रोत्साहनों के बावजूद 300 सालो से थोपी जा रही अंग्रेजी के ज्ञान को उस हद तक हासिल करने में असमर्थ है।  भारतीय भाषाओं में अनूठी समानता का एक और उदाहरण , आजि शब्द को लें। यह लोक भाषा में दादी के लिए भोजपुरी मैथिली मगही छत्तीसगढ़ी के साथ ही दक्षिण की शास्त्रीय भाषा कन्नड़ में भी यह शब्द दादी के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे हजारों शब्द है, जो हमारी भाषाई एकता की श्रेष्ठ उदाहरण हैं। भले लिपि अलग है शेष शाब्दिक समानता बहुत अधिक है।

कोरोना विषाणु से निपटने के लिए भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकता को समझने की आवश्यकता है।  पर हमारे देश की संस्थाएं भाषाई हीनता बोध की वजह से इस महामारी से निपटने में जागरूकता भूमिका तथा इसमें शब्दों की उपयोगिता को काफी हद तक समझने में असफल ही रहे है।  उदाहरण के लिए लॉकडाउन, कवारंटाईंन, सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द प्रयोग को ही लें।  अधिकांश लोग इन शब्दों के अर्थ से अधिक भावार्थ से परिचित हुए है।  अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि इन शब्दों यथा, सोशल डिस्टेंसिंग के मायने क्या हैं ?, क्या यह शब्द लोकमानस  तक उतनी ही गम्भीरता से पहुंचने में सफल हुआ है जितना कि सरकारी संस्थाये इसे लेकर गम्भीर हैं। इसमें मीडिया चैनल भी पर्याप्त जिम्मेदार है।  उल्लेखनीय हो कि अभी भी एक बड़ी आबादी को इन शब्दों के अर्थ नहीं मालूम।  क्या मणिपुर या तमिलनाडु का व्यक्ति, क्वारंटाइन या सोशल डिस्टेंसिंग शब्द से परिचित है।  कहीं ऐसा तो इन शब्दों को नहीं समझ पाने की वजह से इसे वह उतनी ही गंभीरता से ले पाने में असमर्थ है जितना हम उसे समझाना चाहते हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि हम इन शब्दों के भारतीय पर्याय अपनाने की कोशिश करें।  हम सहजता से संक्रमण तथा सामाजिक दूरी या शारीरिक दूरी के रूप में इसे समझा सकते है।  हालांकि हिंदी की ताकत को कोरोना विषाणु के संक्रमण काल में समझा जा रहा है। देश के तमाम मुख्यमंत्री हिंदी में अपना सम्बोधन दे रहे हैं।  इन सम्बोधनों के दौरान उनके शाब्दिक प्रयोगों से शाब्दिक एकता को समझा जा सकता है।  

यह कहा जा सकता है कि संस्कृत के बाद हिंदी ने ही देश की  भाषाई एकता में भूमिका निभाई है।  इसीलिए हिंदी को देश की एकता गान कहा जाता है। अंत में यह कहा जा सकता है कि देश की सामाजिक-आर्थिक प्रगति भाषाई समृद्धि के कंधे पर सवार होकर आती है।  ऐसे में हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकता की ताकत को, उसकी समरसता को समझना नितांत आवश्यक है। देश की आर्थिक, सामाजिक समृद्धि में हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसे में यह आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं की शाब्दिक एकता एवं देवनागरी लिपि के प्रसार को राष्ट्रीय कर्तव्य समझा जाए और इसमें देश की एकता में हिंदी के महत्व का ध्यान रखा जाए।   



©डॉ. साकेत सहाय
ई-मेल hindisewi@gmail.com

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