Friday, September 22, 2023

दिनकर जयंती


आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की जयंती है ।  भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी एवं पद्य भूषण से सम्मानित दिनकर जी रश्मिरथी, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, संस्कृति के चार अध्याय जैसी महान कृतियों के रचयिता रहे ।  आपको शत शत नमन! उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है उनकी प्रसिद्ध रचना -

‘जियो जियो अय हिंदुस्तान’

 

जाग रहे हम वीर जवान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम प्रभात की नई किरण हैं, 

हम दिन के आलोक नवल,

हम नवीन भारत के सैनिक, 

धीर, वीर, गंभीर, अचल।

हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, 

सुरभि स्वर्ग की लेते हैं।

हम हैं शान्तिदूत धरणी के, 

छाँह सभी को देते हैं।

वीर - प्रसू माँ की आँखों के 

हम नवीन उजियाले हैं

गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के 

हम रखवाले हैं।

तन मन धन तुम पर कुर्बान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम सपूत उनके जो नर थे 

अनल और मधु मिश्रण,

जिसमें नर का तेज प्रखर था, 

भीतर था नारी का मन!

एक नयन संजीवन जिनका, 

एक नयन था हालाहल,

जितना कठिन खड्ग था 

कर में उतना ही अंतर कोमल।

थर-थर तीनों लोक काँपते थे 

जिनकी ललकारों पर,

स्वर्ग नाचता था रण में 

जिनकी पवित्र तलवारों पर

हम उन वीरों की सन्तान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम शकारि विक्रमादित्य हैं 

अरिदल को दलने वाले,

रण में ज़मीं नहीं, 

दुश्मन की लाशों पर चलने वाले।

हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये 

जगत् में जीते हैं

मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, 

लहू वक्ष का पीते हैं।

हम हैं शिवा - प्रताप 

रोटियाँ भले घास की खाएंगे,

मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।

देंगे जान, नहीं ईमान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

जियो, जियो अय देश! कि 

पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।

वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही 

लगे हुए हैं हम।

हिन्द-सिन्धु की कसम, 

कौन इस पर जहाज़ ला सकता।

सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?

पर कि हम कुछ नहीं चाहते, 

अपनी किन्तु बचायेंगे,

जिसकी उँगली उठी उसे 

हम यमपुर को पहुँचायेंगे।

हम प्रहरी यमराज समान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

-रामधारी सिंह ‘ दिनकर’

संकलन-डॉ साकेत सहाय



Monday, September 18, 2023

पसंद और लगाव

 पसंद और लगाव 


कहा जाता है, राग, अनुराग स्नेह, प्रेम, लगाव प्रकृति के जीवंत रंग हैं।  ये रंग हम सभी की जिंदगी के अनेक भावों को दर्शाते हैं। जीवन के विशाल रंगमंच पर जीवन के ये रंग ज़िंदगी को यादगार बनाते हैं।  आमतौर पर हम सभी को ये शब्द एक जैसे लगते है।  पर इनके भाव एवं चरित्र में व्यापक अंतर है।  बात करते है पसंद और लगाव की।  हालंकि ये दोनों शब्द आपस में अभिन्नता से जुड़े हुए है। क्योंकि पसंद से ही लगाव की उपज होती है। यानि लगाव की प्राथमिक सीढ़ी पसंद ही है। किसी ने क्या खूब कहा है लगन बने लगाव की तो बयार बहे बदलाव की ।

परंतु यदि भाव की व्यापकता में जाए तो पसंद और लगाव में बड़ा फर्क दिखता है।  पर इसे विडम्बना ही कहेंगे कि लोग आजकल पसंद की ओर ज्यादा मुड़ते जा रहे हैं।  आमतौर पर यह देखा जाता है कि इंसान को कोई भी पसंदीदा/ मनचाही चीज यदि मिल जाए तो वह इसके महत्व को भूलने लग जाता है। ऐसे में पसंद को पाने की तीव्र लालसा हमें अंधी दौड़ की ओर ही धकेलती है। जहां सब कुछ है, मगर प्रेम नहीं है। 

बतौर उदाहरण आज पूर्वी भारत में व्यापकता के साथ मनाया जाने वाला आस्था का त्यौहार हरितालिका व्रत 'तीज' मनाया जा रहा है। मैंने सोशल मीडिया पर तमाम  प्रबुद्ध ? समझी जाने वाली महिलाओं के तीज के मजाक को लेकर कुछ पोस्ट पढ़े । अधिकांश ने इसे स्त्री विरोधी, शोषण का प्रतीक बताया। हो सकता है ऐसी महिलाएं पीड़ित रही हो। जिस कारण से उनमें इस प्रकार की कुंठाओ की उपज हुई हो। मगर मेरे विचार से इस आंतरिक विचार को अपनी पोस्टों के माध्यम से इसे सामाजिक रूप से शोषण का प्रतीक बताना कहीं न कहीं स्वार्थी सोच को ही दर्शाता है। 

समाज के दो महत्वपूर्ण इकाई है स्त्री और पुरुष।   दोनों पर ही इस धरती का अस्तित्व टिका हुआ है। दोनों समान है। ना कोई श्रेष्ठ है और ना कोई कमतर। फिर बेफिजूल का हंगामा क्यूँ? एक पुरुष भी परिवार की खातिर अपना सर्वस्व लुटाता  है। अत: हम किसी एक को महिमामंडित न करें । वर्ना यह पारिवारिक व्यवस्था की नींव को ही कमजोर करेगा। 

मेरे विचार से इस प्रकार की समस्या कहीं न कही लगाव से अधिक निजी सोच या पसंद को तरजीह दिए जाने से उपज रही है। व्यक्ति से जुड़ी अधिकांश समस्याएं लगाव और पसंद के महीन अंतर को न समझ पाने की वजह से ही है।  परंतु इस समस्या का सामाजिक व्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। आवश्यकता है सम्यक्, परिवार-समाज-हितकारी विचारों को प्रभावी बनाने की। 

आज की आभासी दुनिया में तो  हम सब लाइक की ओर ज्यादा देखते /ताकने के शिकार होते जा रहे है।  पर यह  लाइक आभासी दुनिया की तरह ही क्षणिक हो सकता  है।  ज्यों-ज्यों हम बनावटी दुनिया की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, हम अपने-आप में खोते जा रहे है। यह अपने-आप में खोना ही हमें स्वार्थी स्वत्व की ओर मोड़ता है।

ऐसे में जरूरत है पसंद से दूर लगाव को अपनाने की। लगाव ही मानवीय मूल्यों की मजबूत नींव है।  हालांकि लगाव की प्राथमिक सीढ़ी पसंद है।सोशल मीडिया के इस दौर में इस महीन फर्क को समझने की जरूरत है । क्योंकि ज़िंदगी का मतलब सिर्फ़ सफल होना भर नहीं है।  जीवन का मतलब है लगाव से जीवन जीना।  

#साकेत_विचार 

©डॉ. साकेत सहाय

hindisewi@gmail.com

#तीज  #संस्कृति

अंग्रेजी का विरोध नहीं, #अंग्रेजियत का विरोध जरूरी है।

 #अंग्रेजी का विरोध नहीं, #अंग्रेजियत का विरोध जरूरी है। 


यह विचारणीय है कि हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा-भाषी भाषाओं के मामलों में तथ्य से ज्यादा कथ्य को लेकर परेशान रहते है। हम कथ्य के पीछे ही अपनी अधिक ऊर्जा व्यय करते है। जबकि हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की मजबूती के लिए यह जरूरी है कि सभी भाषा प्रेमी तथ्य के लिए कार्य करें । केवल मंचों पर हिंदी के समर्थन से कुछ नहीं होगा। भाषाओं की मजबूती के लिए तथ्यों की मजबूती अधिक आवश्यक है। साथ ही, हम सभी को यह भी समझने की आवश्यकता है कि अंग्रेजी लिखने मात्र से कोई हिंदी या भाषा द्रोही नहीं हो जाता और ना ही हिंदी लिखने से कोई अंग्रेजी द्रोही हो जाता है। जरूरी यह है कि हम सभी अपनी भाषाओं  से प्रेम करें, अपने बच्चों में हिंदी एवं स्वभाषाओं के मजबूत संस्कार डालें। गिरमिटिया देश इस हेतु नमनीय है कि उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपनी भारतीयता की पहचान को सबसे ऊपर रखा।  हिंदी हमारी भारतीयता की पहचान है। पसंद और लगाव में बड़ा अन्तर है।  अंग्रेजी हम पसंद तो कर सकते हैं पर हिंदी से लगाव अधिक जरूरी है। अट: हम सभी अपनी भाषाओं से प्रेम करें ।  मगर यह न सोचें कि हम इसकी सेवा कर रहे है क्योंकि भाषाएँ माँ समरूप होती है और माँ की सेवा कोई कर ही नही सकता। भाषाएँ प्रकृति  की जीवंतता हेतु  प्राणतत्व है और प्राणतत्व की शुद्धता हेतु सभी का सहयोग जरूरी  हैं। 

अतः #अंग्रेजी का विरोध न करें #अंग्रेजियत का विरोध करें।

#साकेत_विचार  

#भाषा

सादर, 

डा. साकेत सहाय

Thursday, September 14, 2023

हिंदी दिवस पर मन की बातें





 पता नहीं क्यूँ 'हिंदी दिवस' के अवसर पर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'बूढी काकी' की याद आ जाती है। आप में से कइयों को सोशल मीडिया में अक्सर दो चुटकुले अक्सर दिखाई  पड़ते हैं - 

1. भारत के भाषिक गुलाम और अंग्रेजी के अंध अनुचर अक्सर हिंदी भाषा एवं उसकी शब्दावली को कठिन कहकर इसे हास्य-व्यंग्य का हिस्सा बनाकर खुद को ही मसखरा सिद्ध करते हैं। उन्हें यह बात पता होनी चाहिए कि वे अपनी ही भाषा की अपमान कर रहे है । जो उनके पंथ, परंपरा, देश-समाज की, भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत भाषा है। जिसे जन व नीति निर्माताओं ने राष्ट्रभाषा से राजभाषा बनाया। तो क्या यह भारतीय संविधान, स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का अपमान नहीं है? 

बहुधा यह देखा जाता है कि मूढ़तावश या हीनता बोध से ग्रसित हिंदी द्रोही ट्रेन के लिए लौहपथगामिनी जैसे निरर्थक शब्दों  का प्रयोग करते है। पता नहीं ऐसे मूर्ख कौन-से विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करके आए हैं? यह हिंदी का शाब्दिक अपमान तो हैं ही, साथ ही उस भाव का भी अपमान है जिस भाव के तहत हिंदी ने सबको एक सूत्र में पिरोया। क्या यह पिरोना बिना हिंदी के सहजता और सरलता के संभव था? आज भी गांव में लोग ट्रेन को पटरी गाड़ी कहते हैं । फिर किस षड्यंत्र के तहत इस प्रकार के मज़ाक़िया शब्द  गढे गए। जबकि तथ्य यह है कि लौह पथ गामिनी जैसे शब्द हिंदी के किसी भी शब्दकोष में शामिल  नहीं हैं । केवल यह भाषिक मजाक का हिस्सा भर है । सच तो यह है कि हमारी हिंदी में दूसरी भाषाओं को पचाने की अद्भुत क्षमता हैं और उसके पास संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं का अपूर्व शब्द भंडार है । वास्तव में रेलगाड़ी संकर शब्द हैं ।  हिंदी में ऐसे बहुत से शब्द हैं जो शब्द के चार रूप के अंतर्गत नहीं आते। इन्हें संकर या द्विज शब्द कहा जा सकता है ।  रेलगाड़ी (अंग्रेजी +हिंदी) मालगाड़ी (अरबी +हिंदी)

राजमहल (हिंदी +अरबी)। आदि । 

दूसरा इसी प्रकार हिंदी के साहित्य की बिक्री को किलो में दिखाया जाता है।  क्या ऐसा अंग्रेजी में नहीं होता । आप दिल्ली के किसी भी मैट्रो रूट में चले जाए आपको अंग्रेजी के साहित्य भी कुड़े के भाव मिल जाएंगे। क्या यह साहित्य का अपमान नहीं है?  सच तो यह है कि साहित्य कोई भी हो सभी का सम्मान समान रूप से होना चाहिए । पर देश की भाषा सबसे ऊपर है और हिंदी तो भारत का सिरमौर है।  यह सिरमौर भाषा 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से भारत संघ की राजभाषा घोषित हुई। इसलिए इस दिन को 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग १२७ करोड़ से ज्यादा लोग किसी-न-किसी रूप में हिंदी बोलते और समझते हैं। हिंदी भारत को उन तमाम देशों के साथ भी जोड़ती है जहां भारतीय मूल के लोग बसे हुए हैं। भारत के आर्थिक विकास और एक उभरती हुई वैश्विक ताकत के रूप में इसकी पहचान के कारण विश्व-समुदाय, आर्थिक एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तथा विभिन्न समाजों, समुदायों एवं व्यक्तियों के बीच हिंदी का महत्व बहुत बढ़ गया है। इंटरनेट और संचार के नए सामाजिक माध्यमों, जैसे फेसबुक, एस एम एस आदि ने हिंदी को एक नई ऊर्जा दी है और यह तेजी से फैल रही है। आज हम गर्व से कह सकते हैं कि हिंदी विश्व के सभी महाद्वीपों में बोली जाने वाली भाषा है। इस हम सभी ने हाल में आयोजित जी-२० सम्मेलन के दौरान महसूस भी किया।

आइए,  हम सब हिंदी को अपनाएं और अपने राष्ट्र को एकजुट करने  में  सहयोग  करें। अंत में,  हिंदी को चाहिए हिंदी के लिए बोलने वाला, हिंदी के लिए कुछ सोचने, करने वाला, हिंदी का प्रहसन न करने वाला, हिंदी पर गर्व करने वाला, हिंदी को चाहिए ऐसा हिंदी वाला जो इसे अग्रगामी भाषा बनाने में सहयोग करे।भारतीय संविधान के सभी प्रेमियों को हिंदी दिवस की मंगलकामना!  जनभाषा, संपर्क भाषा, सहज भाषा, सरल भाषा, हम सबकी भाषा,  राष्ट्रभाषा, राजभाषा “हिंदी” के भारतीय संविधान में अंगीकार दिवस पर आप सभी को बधाई एवं शुभकामना! 

आइए, इस शुभ दिवस पर यह संकल्प लें -

हिंदी  बोलें , 

लिखे और  

खूब पढ़ें

समय के साथ इसे 

आगे बढ़ाएं

अपने कार्य, कर्म और 

व्यवहार में इसे 

मन, वचन और कर्म से 

अपनाएँ

जय हिंद! जय हिंदी!!

🙏🌷🌹🪷🪷🌹🌷🙏

         🖋️

(डॉ साकेत सहाय)

मुख्य प्रबंधक (राजभाषा)

पंजाब नैशनल बैंक,

अंचल  कार्यालय, पटना

#साकेत_विचार


Monday, September 11, 2023

आचार्य विनोबा भावे का अवदान- भूदान आंदोलन, सामाजिक व भाषिक चेतना के प्रति अवदान

 भूदान आंदोलन के जनक, नागरी लिपि परिषद के प्रेरणास्रोत आचार्य विनोबा भावे की १४९वीं जयंती पर भावपूर्ण नमन!  आज जब देश में रीयल एस्टेट की आड़ में कृषि जोत ख़रीदने की होड़ लगी हुई है। हर कोई ज़मीर से अधिक ज़मीन ख़रीदने की होड़ में शामिल है। अब किसान भी मुँहमाँगी क़ीमत पर अपनी ज़मीन बेच रहे हैं।  जिससे भारतीय ग्रामीण परंपरा की नींव दरकती-सी जा रही है। हर पैसे वाला ज़मींदार बनना चाहता है। ग्राम, समाज के प्रति चेतना भी शिथिल पड़ती जा रही है। ज़्यादातर केवल भौतिक निवेश के लिए जमीन ख़रीद रहें हैं। कृषि भूमि छीज रही है।   बड़ी-बड़ी जोतें बढ़ते परिवार के साथ छोटी होती गई।  समय के साथ जमीन का बंटवारा होता गया और छोट-छोटी जोतों में खेती करना अव्यवहारिक।  खेती अनपढ़, अज्ञानी और कमज़ोर पेशा बनकर मात्र रह गया। ग्राम पलायन से भी कई सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हुई। लोग गांव छोड़कर रोजगार तलाशने शहर चले गये। इससे चालाक भूमाफिया वर्ग सक्रिय हुआ और उन छोटी-छोटी कृषि भूमियों को लोभ, लालच व सपने दिखाकर, औने-पौने दामों में खरीदकर वहाँ अमानक कॉलोनियां बसाई जा रही हैं। परिणामस्वरूप लोग अपने ही गांव में बेघर, बेजमीन हो गये। आज की सच्चाई एवं सामाजिक दर्द यही है। इस होड़ के कारण भूदान आंदोलन के जनक आचार्य विनोबा भावे ज़्यादा याद आ रहे हैं। 

विनोबा जी की प्रेरणा से लोगों ने भूदान किया। न जाति देखी और न पंथ और न मज़हब देखा।  भूदान के बाद विनोबा जी ने वो जमीन भूमिहीनों को दे दी।  भूमिहीनों के पास जमीन में फसल उपजाने के लिए न तो पैसा था, न पानी। यह भी दुःखद सच्चाई है कि थोड़े ही दिनों में ही वो जमीन भी या तो भूमाफियाओं ने खरीद ली या दानदाता ने वापस कब्जा कर लिया।  भूदान आंदोलन सरकारी प्रबंधन के ग़ैर-सहयोग के कारण विफ़ल भी माना गया। परंतु यह सत्य है हजारों लोगों ने उनके प्रभाव और प्रेरणा से समाज हित में भूदान किया। विनोबा जी का भूदान आंदोलन कालांतर में ज़रूर विफ़ल कहा गया। पर देश उनकी गांधीवादी सोच, भाषिक चेतना, भूदान आंदोलन के कारण सदैव याद करेगा।  एक और महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया - चंबल, यमुना खादरों के डाकुओं से आत्मसमर्पण एवं उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित करना। बाद में जयप्रकाश नारायण ने भी इस दिशा में काफी कार्य किया।  

ऐसे महापुरुषों के त्याग एवं समर्पण को पढ़कर यह कहा जा सकता है कि सच में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की विरासतें कमज़ोर पड़ रही है। विनोबा जी कहते थे “हमारा शरीर स्वयं ही प्रेम और लगाव की अद्भुत मिसाल है। अंगों में परस्पर अनुपम प्रेम होता है। सब अंग एक दूजे की सेवा में लगे होते हैं ताकि शरीर सुखी रहे ।  सोते हुए में भी एक अंग को दूसरे की फ़िक्र होती है ।  शरीर पर कहीं भी मच्छर बैठ जाए तब तत्काल हाथ उठ जाता है काश! समाज भी शरीर-सा हो जाए, जिसमें सभी को सभी की फिक्र हो लेकिन ऐसा होता नहीं है इसलिए दुख दर्द की अवस्था कही न कही बची-बनी रहती है।  जब प्रेम का अभाव होता है, तब दुःख अक्सर घृणा में बदल जाता है और घृणा ही हिंसा पर उतारू हो जाती है। “ 

आज देश की युवा पीढ़ी अपनी भाषा और लिपि को हीनता बोध से देखती है। रोमन लिपि की अपसंस्कृति हावी है। ऐसे में विनोबा जी के  विचारों को अपनाने की आज ज़्यादा ज़रूरत है। परमार्थ का भाव लुप्त होता जा रहा है। हड़पने की दबंगई चलन में है। काश कि “सबै भूमि गोपाल की” यह सोचकर भूदान और बेघरों के लिए सहयोग हेतु फिर से दरियादिली दिखाते हुए लोग आगे बढ़ते हुए आएं। 

विनोबा जी को नमन🙏

-डॉ साकेत सहाय

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक

hindisewi@gmail.com


Saturday, September 9, 2023

भारत


 आज कल भारत और इण्डिया की बड़ी चर्चा है। सबके अपने तर्क है, वितर्क है, कुतर्क है, विमर्श है। इण्डिया पर किंतु-परंतु हो सकते हैं पर भारत तो अपने-आप में विशिष्ट भाव है। 

‘ गायन्ति:  देवा किल गीत किल गीत कानि, धन्यास्तु ने भारत भूमि भागे’ -विष्णुपुराण 

अत: निवेदन है  भारत को यूरोपियन या किसी ख़ास विचारधारा के चश्मे से न देखें। भारत हमारी सशक्त पहचान का बोध कराता है और इण्डिया ओढ़ी हुई परंपराओं का।  यह कहा जा सकता है -

‘भारत भाषिक, परम्परागत एवं सांस्कृतिक रूप से एक ईकाई है। हमारी सांस्कृतिक परंपराओं को भी देखकर यह कहा जा सकता है कि भारत में रहने वाले किसी पंथ, मज़हब या रिलीजन से जुड़े सभी समुदाय तमाम विभिन्नताओं के बावजूद सांस्कृतिक रूप से एक ही समाज के अंग है। भले विभाजनकारी मानसिकता ने देश को मज़हब विशेष के नाम पर बाँटा परंतु पाकिस्तान आज भी इसी विशाल भारतीय संस्कृति का भाग है। चाहे कोई खिलाफत या अन्य विचारधारा कितना भी भारतीय इस्लाम को तुर्की या सऊदी के साथ जोड़ने का प्रयास कर लें परंतु यह भारतीयता ही है कि इसने इस्लाम को भी भारतीय रंग में रंग दिया।’

भारत सबको जोड़ता है, तोड़ता नहीं ! 

भारत का वृहत्तर  समाज आज भी अपने घरों में, पूजा स्थलों में भगवान शिव, श्रीराम, श्रीकृष्ण, के साथ ही गौतम बुद्ध, महावीर, गुरु नानक महाराज को सम्मानपूर्वक रखता है। ये हमारे लिए प्रात: वंदनीय है। भारत अपने गुण धर्म के बल पर अस्तित्व में है। कितने ही लुटेरे गोरी, गजनी, मंगोल, चंगेज, बिन कासिम,  बाबर, औरंगजेब, अंग्रेज, जिन्ना जैसे आए यह समाज अपने सत्य बल पर सदैव जीवंत रहा, आगे भी रहेगा, बस अपने भीतर के भारत को बनाए रखें। 

रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में 

“भारत कोई नया देश नहीं है। जिस भाषा में उसकी संस्कृति का विकास हुआ, वह संसार की सबसे प्राचीन भाषा है।  जो ग्रंथ भारतीय सभ्यता का आदि-ग्रंथ समझा जाता है, वही समग्र मानवता का भी प्राचीनतम ग्रंथ है। विदेशियों के द्वारा बार-बार पद-दलित होने पर भी भारत अपनी संस्कृति से मुँह मोड़ने को तैयार नहीं हुआ। अब जो वैज्ञानिक और औद्योगिक सभ्यता आ रही है, वह भी भारत से उसके अतीत का प्रेम नहीं छीन सकेगी। सत्य केवल वही नही है, जो पिछले दो सौ वर्षों में विकसित हुआ है। उस ज्ञान का भी बहुत-सा अंश सत्य है, जिसका विकास पिछले छह हजार वर्षों में हुआ है। भारत को वह नवीन सत्य भी चाहिए, जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि को संभव बनाता है, और  प्राचीन काल का वह सत्य भी जो शारीरिक समृद्धि के लिए आत्मा के हनन को पाप समझता है।”

#भारत

©डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...