Saturday, March 16, 2024

अपनी देवनागरी लिपि - केदारनाथ सिंह

 अपनी देवनागरी लिपि


ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी व अन्य कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह जी के स्मृति दिवस पर नमन ! 

 

और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ 

मेरी जिह्वा पर नहीं 

बल्कि दांतों के बीच की जगहों में 

सटी है।  

                                                     (फर्क नहीं पड़ता)    



~केदारनाथ सिंह

•••

यह जो सीधी-सी, सरल-सी

अपनी लिपि है देवनागरी

इतनी सरल है

कि भूल गई है अपना सारा अतीत

पर मेरा ख़याल है

'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले

नहीं आया था दुनिया में

'च' पैदा हुआ होगा

किसी शिशु के गाल पर

माँ के चुम्बन से!

'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं

कि फूट पड़े होंगे

किसी पत्थर को फोड़कर

'न' एक स्थायी प्रतिरोध है

हर अन्याय का

'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़

जो किसी कंठ से छनकर 

बन गयी होगी 'माँ"!

स' के संगीत में

संभव है एक हल्की-सी सिसकी

सुनाई पड़े तुम्हें।

हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे

किसी लिखते हुए हाथ की 

तकलीफ़ दबी हो

कभी देखना ध्यान से 

किसी अक्षर में झाँककर

वहाँ रोशनाई के तल में

एक ज़रा-सी रोशनी

तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी।

यह मेरे लोगों का उल्लास है

जो ढल गया है मात्राओं में ।

अनुस्वार में उतर आया है

कोई कंठावरोध!


पर कौन कह सकता है

इसके अंतिम वर्ण 'ह' में 

कितनी हँसी है

कितना हाहाकार !

••• •••

~केदारनाथ सिंह

जन्म7 जुलाई, 1934
जन्म भूमिचकिया गाँव, बलिया (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु19 मार्च, 2018
मृत्यु स्थाननई दिल्ली

प्रमुख आधुनिक हिंदी कवियों एवं लेखकों में से हैं। केदारनाथ सिंह चर्चित कविता संकलन ‘तीसरा सप्तक’ के सहयोगी कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं। कविता पाठ के लिए दुनिया के अनेक देशों की यात्राएँ की हैं।

आपको ज्ञानपीठ पुरस्कारमैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कारव्यास सम्मान (1997) प्राप्त है। 




Thursday, March 14, 2024

कांशीराम




आज प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ एवं भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के अधिकारों एवं कर्तव्यों के लिए आवाज बुलंद करने वाले मान्यवर #कांशीराम  (15 मार्च, 1934 – 09 अक्टूबर 2006) की जन्म जयंती हैं ।   #कांशीराम जी सत्ता में वंचितों की भागीदारी के समर्थक थे। पर आधुनिक रुप में नहीं जहां दलितों के आवाज के नाम पर समाज में #कपोल-कल्पित अवधारणाएं स्थापित की जा रही है ।  #कथित मनुवादी भय दिखाकर सनातन समाज को बांटने का कार्य किया जा रहा है। कांशीराम जी ने #संतुलित धारा के साथ कार्य किया। वे अविभाजित भारत के उस प्रांत में जन्में थे जहां अनुसूचित जातियों की एक बड़ी आबादी निवास करती थीं। उन्होंने सरकारी नौकरियों में इस वर्ग को आवाज देने हेतु बामसेफ का गठन किया। 

आज #दलित विमर्श के नाम पर #सनातन परंपराओं को विभाजनकारी मानसिकता के तहत गाली देने का षड्यंत्र चल रहा है ।  जरूरत है इससे बचने की। क्योंकि सामाजिक सुधार का मतलब उत्थान होता है न किसी वर्ग को हर वक्त गाली देना।  इससे विरोध और संघर्ष पनपता है। समाज सार्थक संघर्ष एवं समन्वय से मजबूत होता है। जय भीम, जय मीम से ज्यादा जरूरी है #जय #भारत की । 

इसी संदर्भ में एक बात उल्लेखनीय है कई अनुसूचित जाति के शिक्षक जो विश्वविद्यालयों, संस्थानों में उच्च पदों पर नियुक्त हैं  वे कैसे दलित हो सकते हैं । वे भी उसी प्रकार की वर्गवादी आचरण करते हैं जिस मानसिकता की वजह से ब्राहमणवाद पनपा।  अतः समाज की सशक्तता के लिए जरूरी है कि हम समरसता के लिए कार्य करें । 

वैसे दलित, वंचित  कोई भी हो सकता है।   आज कुछ बड़े  नेता दलित नेता बनकर अपने हित साध रहे  हैं  । शिक्षण संस्थानों में यह ज़हर व्याप्त है। अब ऐसे जहर से शिक्षण संस्थानों का कितना भला होगा? ऐसी सोच से बच्चों में कैसी सोच निर्मित होगी। 

कभी गौतम बुद्ध क्षत्रिय होकर भी दलित समर्थक हो जाते है। पर अंबेडकर जी का सुपुत्र ब्राह्मण महिला से उत्पन्न होकर भी  दलित रहता है। यह कौन सी स्वार्थ नीति है।

कांशीराम जी की जयंती  पर इन  बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

साहित्य और बाज़ार




साहित्य अब बाजार की गिरफ़्त में आता जा रहा है। साहित्य सिर्फ़ होर्डिंग, बैनर तक सिमटता जा रहा है।  यह सिस्टम और बाजार का घालमेल है।  उदारीकरण के बाद से साहित्य में बाजार का निर्णायक दख़ल शुरू हुआ।  अब लेखक पहले की भांति बाजार का प्रतिरोध करने की बजाय उससे जुगत भिड़ाने लगे। साहित्य और बाज़ार के घालमेल से लेखन उनके लिए व्यवहार, साधना, पीड़ा, भोग, यथार्थ से अधिक शौक का विषय होने लगा।  लेखन का एकमात्र ध्येय चर्चित होना रह गया। ऐसे में प्रतिबद्धता और सरोकार जैसे शब्द गौण हो गए। इसमें प्रकाशक भी शामिल है।  साहित्य के नाम पर साहित्य से इतर सब कुछ। 

कुछ दिनों पूर्व मैं एक लेखन प्रतियोगिता में निर्णायक के रूप में शामिल था।  यह संस्था पिछले पाँच सालों से हिन्दी साहित्य के प्रसार हेतु गतिविधियाँ आयोजित करा रही है।प्रतियोगिता में मैंने यह देखा कि अधिकांश प्रविष्टियाँ रिश्तों के विघटन, अनैतिक संबंधों पर ही प्रेषित किए जाते हैं। हम सभी जानते है साहित्य का एक स्थायी भाव बोध होता है।  इसमें समाज, देश और काल का ऐतिहासिक  भाव बोध भीछुपा होता है। पर इस प्रकार के नकारात्मक भाव बोध से हम किस प्रकार के समाज का निर्माण चाह रहे हैं?  अब किसी को साहित्त्य के मूल अर्थ से मतलब नहीं रह गया है।   इस नई प्रवृत्ति का असर यह हो रहा है कि बाजार साहित्य को उसकी मूल चेतना से काट कर उसे सिर्फ क्रय-विक्रय की वस्तु बनाने की दिशा में सक्रिय है। इस  पर एक कहानी जो कहीं पढ़ी थी, उसे आप सभी से साझा कर रहा हूँ। कहानी ज्ञान और विचार को किसी परिधि में बांधने से बचने की बात करती है । 

एक राजा था , उसे राजगुरु नियुक्त करना था । उसने विद्वानों से कहा कि गाँव से बाहर उत्तर दिशा में एक वन-भूमि है , उस भूमि में आप जितनी धरती को घेर कर बाड़ा बना सकेंगे , उतनी धरती मैं आपको दे दूँगा ।जिसका बाड़ा सबसे बड़ा होगा , उसे राजगुरु नियुक्त किया जायेगा । 

पंडित- लोग वनभूमि में पँहुच गये , और अपनी शक्ति-साधन के अनुसार बड़े से बड़ा बाड़ा बनाने लगे । दूसरे दिन राजा पँहुचा , विद्वानों ने अपने द्वारा बनाये गये बाड़े दिखलाये , एक से एक बड़ा बाड़ा बनाया गया था । सब के अन्त में एक पंडित चुपचाप खड़ा उन बाड़ों को देख रहा था । राजा ने उससे पूछा - तुम्हारा बाड़ा कहाँ है ? वह बोला कि इन पंडितों के द्वारा बनाये गये बाड़ों के बाहर की धरती का जो विस्तार है , वह सब मेरा है । राजन‌ , परिधियाँ तो हमेशा संकीर्ण और सीमित ही होती हैं , भले ही वे कितनी ही बड़ी क्यों न हो । विस्तार तो परिधियों के बाहर ही है । इसलिए मैने परिधि बनायी ही नहीं , परिधियों के बाहर का विस्तार मेरा है । राजा ने उसी को राजगुरु नियुक्त कर लिया ।

अब जरूरी है कि साहित्य को किसी परिधि में बांधने वालों से बचा जाए । साहित्य के प्रति समाजोपयोगी सरोकार रखने वाले लोग आगे आए।  साहित्य को सुरसा रूपी बाजार से तुरंत बचाया जाए, क्योंकि बाज़ार साहित्य के मूल पक्ष कला और भाव दोनों को नष्ट करने की ओर अग्रसर है। 

साहित्य को सत्ता से नहीं, बाजार से असल खतरा है।  आज बाजार जिस गति से साहित्य को निगल रहा है, अगर हम अब भी नहीं चेते तो भविष्य में चेतने के लिए कुछ बचेगा नहीं हमारे समक्ष। 

#बाज़ार #लिखना #साहित्य #साकेत_विचार

©️डा. साकेत सहाय

    14 मार्च, 2024

Wednesday, March 13, 2024

सुविचार_साकेत

 सुविचार



‘डर के आगे हार है

विश्वास के आगे जीत है। ‘

©️डा. साकेत सहाय

    14 मार्च, 2024

#साकेत_विचार

#भाव_विचार_भाषा

13 मार्च, 1940


आज विशेष 


देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए सैकड़ों सेनानियों ने अपना बलिदान दिया था। 

आज का दिन उन्हीं में से एक है। जब महान क्रांतिकारी पंजाब में जन्मे भारत माता के अमर सपूत ऊधम सिंह जी ने १३ मार्च, १९४० की ऐतिहासिक तारीख़ को माइकल ओ’डायर की हत्या करके जलियांवाला बाग कांड के नृशंस हत्याकांड का  बदला लिया था ।   ऊधम सिंह जी पर अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार का गहरा असर पड़ा और उन्होंने हर कीमत पर इसका बदला लेने का प्रण लिया ।  इस नृशंस हत्याकांड का बदला लेने के लिए वे लंदन तक गए और वहां जाकर उन्होंने पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ डायर की हत्या कर दी। आजादी के इस दीवाने ने निहत्थे हिंदुस्तानियों की मौत का आदेश जारी देने वाले ओ’डायर पर 13 मार्च, 1940 को ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर उसकी जान ले ली और देश के प्रति समर्पण एवं सर्वोच्च बहादुरी की नयी मिसाल कायम की। शहीद उधम सिंह जी के साहस, त्याग एवं बलिदान को शत शत नमन !

#आज़ादी #स्वाधीनता #ऊधम_सिंह #भारतीय _स्वाधीनता_संग्राम #जलियाँवाला #साकेत_विचार


Tuesday, March 12, 2024

क से कविता

 


 क से कोमल लिखा 

तो वे प्रसन्न हुए 

वाह! बड़ा सुंदर, मोहक शब्द है। 

क से काम लिखा 

तो वे असहज हो गए 

और जब 'क' से कर्तव्य लिखा 

तो वे मौन हो गए ।


©️डा. साकेत सहाय

    11 मार्च, 2024

#साकेत_विचार

#कविता #लिखना #भाषा 


#WorldsLargestLiteratureFestival #FestivalofLetters2024 #SA70

Friday, March 8, 2024

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

 #अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

#InternationalWomen'sDay

महिला और पुरूष  दोनों ही सृष्टि की आत्मा है।  एक के बिना दूसरे का अस्तित्व शून्य है। आइए महिला दिवस पर इस समभाव को स्वीकारें । 

भारतीय संस्कृति में पुरुष को नाथ और स्त्री को देवी  के रुप में सर्वोच्च मानने की परंपरा स्थापित रही हैं। भारतीय संस्कृति में औपनिवेशिक प्रभाव ने इस परंपरा को विकृत किया है। हम और आप अपने सात्विक  इतिहास से कोसों दूर हैं । जहाँ तक समानता की बात है तो स्त्री और पुरूष को  उनकी प्रकृति के अनुरूप उच्चतम शिक्षा,श्रेष्ठ संस्कार दें तथा समाज दोनों के गुण एवं अवगुण का आकलन कर उच्चतम सामाजिक मानदंड स्थापित करने की मंशा रखते हुए उनसे व्यवहार करें। स्त्री में करुणा,दया,प्रेम,रचनात्मकता ,सृजनात्मकता जैसे  दिव्य गुण ईश्वर द्वारा नैसर्गिक रूप से प्रदत्त रहते  हैं। पुरुष को परमात्मा ने अलग जिम्मेदारी दी है। पश्चिम प्रेरित समाज आजकल महिला सशक्तिकरण की आड़ में पुरुष को महिला बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं महिला को पुरुष जिससे सामाजिक ढांचे में व्यापक परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं । इस वजह से कई दुष्परिणाम देखने को आ रहे हैं। जबकि जरूरत है महिला एवं पुरूष को उनके गुणों का पूरा सम्मान मिले और समाज दोनों के समवेत संस्कार से परिष्कृत हो। 

सादर

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामना.....

समस्त मातृ शक्ति को नमन!

#साकेत_विचार

महाशिवरात्रि

देवाधिदेव महादेव के आराधना पर्व महाशिवरात्रि की आप सभी को हार्दिक शुभकामना!  हर-हर महादेव!!


भगवान शिव समस्त जगत के आदि कारक माने जाते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता  है।  शिव व्यक्ति की चेतना के अर्न्तयामी हैं । वेदों में शिव ‘रुद’ और शिव ‘कल्याण’ भी है। शिव - लय भी, प्रलय भी; कला भी, काल भी; डमरू भी, त्रिशूल भी; गंगाजल भी, विष भी! दिशा-दिशा में हर-हर है।  कहा भी गया है- ‘कंकर-कंकर में शंकर’ । 

भगवान शिव से जुड़ी एक कथा हैं- 

'एक बार माँ काली क्रुद्ध अवस्था में थीं।  देव, दानव और मानव सभी उन्हें रोकने में असमर्थ थे। तब सभी ने माँ काली को रोकने हेतु भगवान शिव का सामूहिक स्मरण किया।  शिवजी ने भी यह अनुभव किया कि माता काली को रोकने का एकमात्र मार्ग है -प्रेम और वे माँ काली के मार्ग में लेट गए। माँ काली ने ध्यान नहीं दिया और उन्होंने उनकी छाती पर पैर रख दिया।  अभी तक महाशक्ति ने जहाँ-जहाँ कदम रखा था, वह जगह नष्ट हो गया था। पर यहां अपवाद हुआ । माँ काली ने जब देखा उनका पैर भगवान शिव की छाती पर हैं, वे पश्चाताप करने लगीं। इस कथा का सार यहीं हैं कि हर कठिन कार्य का सामना आत्म बल  के साथ किया जा सकता हैं।

इसी संकल्प के साथ आप सभी को पुन: महाशिवरात्रि के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामना!  महादेव से देश, समाज व संगठन के समृद्धि की प्रार्थना करता हूँ। 

सादर                                                    

🙏

जय शिव-शंकर ! 

©डा. साकेत सहाय

Hindisewi@gmail.com

#साकेत_विचार

Thursday, March 7, 2024

अज्ञेय

 


आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तंभों में से एक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी का जन्मदिन है। आपका जन्म वर्ष 1911 में उतर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। कालेज के दौरान आप सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए और कई बार जेल भी गए। कारावास में रहकर अपनी कुछ प्रमुख कृतियों का सृजन किया। 1943 में काव्य संग्रह तार सप्तक का संपादन किया। 1947 में अपने संपादन में नया प्रतीक पत्रिका में आधुनिक साहित्य की नई धारणा के साहित्यकारों को स्थान देकर साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। चार अप्रैल, 1987 को आपका निधन हुआ। उनकी स्मृति में उनकी दो रचनाएँ- 

 (१)

‘मन बहुत सोचता है’ -अज्ञेय  

 

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो  

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?  

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,  

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!  

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,  

खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,  

पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,  

धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,  

सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,  

वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—  

इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!  

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,  

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!  

स्रोत :पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 137)

संपादक : अशोक वाजपेयी  

रचनाकार : अज्ञेय  

प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन  

संस्करण  : 1997 कविता


(२)


जो पुल बनाएँगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएँगे।

सेनाएँ हो जाएँगी पार

मारे जाएँगे रावण

जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएँगे

      _  अज्ञेय।

#अज्ञेय #हिंदी #कविता

#साकेत_विचार

Wednesday, March 6, 2024

हिंदी की वर्तमान स्थिति व हमारी मनोवृत्ति

 हिंदी की वर्तमान स्थिति व हमारी मनोवृत्ति



 

अक्सर भारत में राजभाषा हिंदी की स्थिति तथा इसके प्रयोग की मनोवृत्ति पर सवाल उठते रहते है।  क्या हिंदी के प्रयोग को लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है?   हिंदी का प्रश्न सिर्फ भाषा का प्रश्न नहीं है बल्कि इस प्रश्न का संबंध हमारी राष्ट्रीयता से भी जुड़ा हुआ है।  परंतु इधर इस सोच में भी परिवर्तन आ गया है। हिंदी के प्रति जिस संकल्पशील निष्ठा की ज़रूरत है उसकी झलक हिंदी से जुड़े लोगों के अलावा और कहीं नहीं दिख रही है। 


यह भी कहा जाता है कि गैर सरकारीगैर शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्य वास्तव में हिंदी के  प्रचार-प्रसार में ज़्यादा सहायक हैं। इसका मतलब है कि अन्यत्र इस विषय में सकारात्मक सोच का अभाव है या नकारात्मक सोच सकारात्मक सोच पर ज्यादा हावी  हो गया है। जिससे राजभाषा के रूप में हिंदी में किए गए अच्छे कार्य छुप जाते हैं।  


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे नीति निर्माताओं ने गहन विचार-विमर्श के बाद ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था। यह राजभाषा देश के सभी निवासियों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सभी पर समान रूप से लागू है। इस देश की अधिकांश बड़ी सरकारी एवं निजी कंपनियों का कार्यक्षेत्र अखिल भारतीय है। सरकारी क्षेत्र में तो राजभाषा नीति लागू ही है। 


ऐसे में  हम सभी को विचारना चाहिए कि एक ऐसी संस्था में कार्य कर रहे हैं जिसका स्वरूप अखिल भारतीय है और हमारा संपर्क अनेक भाषा-भाषी व्यक्तियों से होता है। उस परिस्थिति में हमसे क्या अपेक्षित है और हमारा व्यवहार कैसा हो ?

 

इससे पहले हम इस पहलू पर विचार कर लें कि सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच क्या है और इसका प्रभाव किस प्रकार पड़ता है? –

• सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या होती है। वह हर काम में समस्या देख लेता है। 
• सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास कार्यक्रम होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास बहाना होता है। 
• सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति काम करने का इच्छुक होता है और नकारात्मक सोच वाल व्यक्ति कहता है कि यह काम मेरा नहीं है। 
• सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या में समाधान होता है जबकि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान में समस्या होती है। 
• सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास सोच होती है कि कठिन ज़रूर है पर असंभव नहीं है।

 

क्या हम सभी ने कभी इस विषय में गंभीरता से सोचा है कि भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुसार हमें अपना काम-काज हिंदी’ में ही क्यों करना चाहिए अंग्रेजी में क्यों नही


 हिंदी में करो या अंगेजी में क्या फर्क पडता है?


 ऐसे बहुत से सवाल है जो अक्सर पूछे जाते है।  इन सभी से राजभाषा प्रहरियों को अक्सर जूझना पड़ता है।   दुर्भाग्यवश  इन सवालों पर बहुत गंभीरता से कभी चर्चा नहीं की जाती है। 

 

पहला सवाल- सरकारी कर्मचारियों को अपना सरकारी काम-काज हिंदी में क्यों करना चाहिए?  

उत्तर- हमारे देश भारत में, तानाशाही नहीं, एक स्पष्ट लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था हैदेश का शासन जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता हैसरकारी काम करने व करवाने के क्या नियमहोंगें- इसका निर्धारण करना- हम सरकारी कर्मियों का काम नहीं, उन जन-प्रतिनिधियों का है, जिन्हें जनता ने चुनकर भेजा है।  सरकारी कर्मचारी हमें किसी ने जबर्दस्ती नहीं बनायाबल्कि हमने इसे स्वयं स्वीकार किया है।  नियुक्ति के समय हम सभी ने शपथ ली है कि सरकार द्वारा समय-समय पर बनाये गये नियमों का पालन करेंगें।  सरकार हमसे जो काम करवाती है - उसके बदले हमें वेतन देती है-जिससे हमारे परिवार का गुजारा चलता है।  हम एक अच्छा सभ्य जीवन जीते है।  हिंदी’ को राजभाषा का संवैधानिक दर्जा मिले-74 वर्ष बीत चुके है लेकिन सरकारी काम-काज में, अभी तक हमने मूल रूप में इसे कितना अपनाया है यह बात किसी से छिपी नहीं है। 


जिस अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के रुप में,कुछ वर्षों के लिए अपनाने की छूट दी गयी थी-वही वास्तव में राजभाषा के सिंहासन पर जमी बैठी है।  राजभाषा ‘हिंदी’ को लागू करने के संबंध में सरकार की नीति अभी तक सहयोग व प्रोत्साहन की रही है।  कोई जोर-जबर्दस्ती का रवैया अभी तक नहीं अपनाया गया है  हालांकि कानून बन गए है।  लेकिन लोकतांत्रिक देश होने का नाजायद फायदा कुछ अंग्रेजीपरस्त अधिकारी और कर्मचारी हिंदीमें काम करने का प्रयास ही नहीं करते-जबकि सरकार की तरफ से हर प्रकार का सहयोग उन्हें दिया जा रहा है।  रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते है-भय बिनु होय न प्रीतिअर्थात भय दिखाये बिना तो प्रेम भी नहीं होता है।  क्या हम सभी उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे है।  जब सरकार राजभाषा नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान करेगी ? क्या हमारा कोई नैतिक दायित्व नहीं बनता कि जनता का काम, उस जनता की भाषा में करें जिसे देश की 93% से अधिक आबादी आसानी से समझती है।  थोड़ी-सी सुविधा और एक विदेशी भाषा के प्रति अनावश्यक मोह के लिए 

लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्यक जनता को, उसके अधिकारों से वंचित कर देना – कहां तक जायज है? 


दूसरा सवाल – सरकारी काम-काज अंग्रेजी में क्यों नहीं? 

अंग्रेजी ही नहीं विश्व की कोई भाषा बुरी नहीं है।

 

अंत में, इन परिस्थितियों पर विचार करने के बाद यह कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति,परिवार,संगठनया समाज कमजोर नहीं होता। अगर कमजोर होता है तो हमारे अंदर का आत्मविश्वास और नेतृत्वकर्ता  अगर बात स्वयं के स्तर पर आती है तो किसी व्यक्ति के मन का विश्वास ही जीत की नींव तैयार करता है।  परिवारसंगठन, समाज के बारे में भी यही तथ्य लागू होता है।  इन सभी को सार्थक नेतृत्व एवं आत्मविश्वास द्वारा ही शिखर पर ले जाया जा सकता है।   दुर्भाग्यवश, हिंदी के ऊपर भी यह तथ्य लागू होता है।  हिंदी एक सर्वश्रेष्ठ भाषा हैइसमें अपार शब्द भंडार है, हिंदी ने देश को जोड़ने में, आजादी दिलाने में इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन सभी तथ्यों के बावजूद, हिंदी आज भी अंग्रेजी के समक्ष दोयम दर्जे की भाषा मानी जाती है , विशेष रूप से उन लोगों के बीच जो देश को दिशा देते है। परंतु हिंदी के मूल तथ्य से जो परिचित हैं वे गरीब हैकमजोर है उनके हाथों में कुछ नहीं। जिससे वे हिंदी के लिए कुछ नहीं कर पाते बस अफसोस करते रहते है।  लेकिन तभी तक जब तक वे मध्य या निम्न वर्ग का हिस्सा बने रहते है।  जैसे ही उनके पास अर्थ की ताकत आती है वे भी अंग्रेजी की माला जपने लगते है।  और यह बहस काफी पुरानी प्रतीत होती है।    

 

ऐसे में, अगर हम सभी वास्तव में हिंदी के प्रति कुछ करना चाहते है, इसे इसके वास्तविक पद पर आसीन करना चाहते है तो हम सभी को जिन्हें हिंदी से मातृभाषा, संपर्क भाषाराष्ट्रभाषाराजभाषामीडिया की भाषारोजगार की भाषा, सिनेमा की भाषाकला-संस्कृति की  भाषासंस्कार की भाषा के  रुप में थोड़ा भी फायदा हुआ है या वे जो हिंदी की मदद से सफलता की सीढ़िया चढ़े है उन्हें आगे बढ़कर हिंदी के गुणों, ताकत को गौरवान्वित करने की जरुरत है।  न कि थोथी भाषणबाजी । 

हालाँकि स्थिति में बदलाव आ रहे है। जो एक अच्छा संकेत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति व तकनीकी शिक्षण में हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के प्रयोग से सकारात्मक संकेत गया है। आशा है और अधिक बदलाव होंगे। 


पर इसी के साथ यह भी ज़रूरी है कि हम अपने अंदर झांके।  शुरुआत स्वयं से करें।  अपने बच्चों के समक्ष हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को संपन्न भाषा के रुप में चित्रित करें।  तकनीकचिकित्सा की भाषा के रुप में हिंदी की महत्ता को स्थापित करें  तभी विभिन्न उपनामों से अलंकृत राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, विश्व भाषा हिंदी सशक्त होगी।  हिंदी सशक्त होगी तो समस्त भारतीय भाषाओं का प्रसार होगा। 

 

 

 

डॉ साकेत सहाय

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक

भाषा-संचार विशेषज्ञ

www.vishwakeanganmehindi.blogspot.com

 

 

 

 

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...