Monday, August 22, 2022

पाकिस्तानी जहर

 आज फिर पाकिस्तान से सनातन धर्म के विरुद्ध घृणा की खबरें आईं। यह कितना अफ़सोसजनक बात है कि सुदूर इसरायल-फिलीस्तीन संघर्ष पर आंसू बहाने वाले कथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवी अपने ही भारत से 75 साल पहले इस्लाम के नाम पर बंटे पाकिस्तान और भारतीय जवानों के खून से बने बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के नंगे नाच पर मौन रहते हैं ? इनके सहिष्णु  विचार कहाँ चले जाते है? अविभाजित भारत की माटी पर हिंदुओं के कत्ले-आम पर इन सहिष्णु सौदागरों का खून क्यों नही खौलता? आज यह स्थापित सत्य है कि भारत को विभाजित करने का सबसे बड़ा हथियार सनातन धर्म, पंथ, हिंदुओं को जाति, वर्ण, भेद, भाषा  के आधार पर बांट दो। प्रारंभ बौद्ध, जैन, सिक्ख से होकर दलित तक । साथ ही मुस्लिम, ईसाई में से ज्यादातर जो इसी मिट्टी से उपजे है उन्हें भी यहाँ की परंपरा, भाषा, संस्कृति, संस्कार से काट दो। उन्हें इस प्रकार रंग दो की वे सांस्कृतिक रूप से अरब, तुर्क, रोम से प्रभावित हों। अंग्रेजी एवं अंग्रेजों ने यही रणनीति अपनाई । अब हम इस साजिश को अपनी नियति एवं मूढ़ता  की वजह से इतिहास का अंग मानकर स्वीकार कर रहे है। 

भारत तब तक एक रहेगा जब तक इसकी  संस्कृति जिंदा रहेगी। अफगानिस्तान, पाकिस्तान से भारतीयता समाप्त हो गई । अतः हम सब एक हो। हिंदु, मुस्लिम, ईसाई न बनें । हिंदु मुस्लिम सिक्ख ईसाई से पहले भारतीय बने। आप एक मानवतावादी के रूप में पाकिस्तान और बांग्लादेश में हो रहे धर्म विशेष के विरुद्ध हिंसा का विरोध करें। 

जय हिंद! जय भारत!! #भारतीयता #हिंदू

©डॉ साकेत सहाय

#साकेत_विचार

https://dainik-b.in/vGQYTiWZGsb

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Friday, August 19, 2022

द हिंदू के कुछ अंश हिंदी में

 प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘द हिंदू’ के कुछ भाग अब हिंदी में….


हिंदी की शक्ति इसके बोलने, समझने वालों की संख्या में निहित है। बाज़ार इसका लाभ अपने कारोबार प्रसार के लिए उठाता रहता है। आज का समाज अपनी ज़रूरतों के लिए हिंदी से लाभ  उठाता है। राजनीति, कला, फ़िल्म, संगीत भी हिंदी का प्रयोग अपने असीम लाभ के लिए ही करती है। आज़ादी के बाद स्वार्थ की यह प्रवृत्ति हावी रही। यही कारण रहा कि हिंदी में एक राष्ट्रीय समाचार पत्र का अभाव अखिल भारतीय स्तर पर खटकता रहा। हिंदी संपर्क, संवाद संबंधी ज़रूरतों की वजह से पूरे देश में व्यवहार्य रही, पर पठन-पाठन में सिमटती रही। एक दशक पूर्व तक बंगाल, उड़ीसा, असम, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना आदि तक में हिंदी की पत्रिकाओं की बिक्री  होती थीं, पर समय, राजनीति और गुणवत्ता के अभाव में इनकी बिक्री कम होती रही। सोशल मीडिया, मोबाइल ने भी इसे कमजोर किया। हिंदी में एक राष्ट्रीय अख़बार का अभाव बना रहा। अब कल की ही बात लें जब मैंने १५ अगस्त की खबरें देखने  के लिए चैनल खोला तो दक्षिण के राज्यों का कवरेज नाममात्र का था, आज़ादी के बाद राष्ट्रभाषा हिंदी के समाचार पात्रों में इस राष्ट्रीय दृष्टि का अभाव रहा। चैनलों ने प्रयास किया, परंतु उसमें गुणवत्ता का अभाव रहा। मैंने अपनी पुस्तक इले. मीडिया: भाषिक संस्कार एवं संस्कृति में इस पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। 

अब एक स्वागत योग्य कदम चेन्नई, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित समाचार पत्र द हिन्दू की ओर से आया है। द हिंदू ने हिंदी में आने का प्रारम्भिक प्रयास किया है। शुरुआती कदम के रूप में समाचार पत्र  के संपादकीय एवं अन्य लेख हिंदी में भी प्रकाशित किए जाएँगे।  द हिंदू के ट्वीट से यह पता लगा है। 

परीक्षाओं की तैयारी करने वालों की नज़र में आज भी द हिंदू की अलग अहमियत है। अब हिंदू की ज़िम्मेदारी है कि वह हिंदी में पूर्ण संस्करण उसी गुणवत्ता के साथ निकालें, ताकि अंगेजीवादियों की दृष्टि बदलें। साथ ही इसकी पैठ अखिल भारतीय स्तर पर हों। 

#हिंदी

#साकेत_विचार

#TheHindu


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Wednesday, August 17, 2022

फादर कामिल बुल्के को नमन








आज फ़ादर कामिल बुल्के (1 सितंबर 1909 - 17 अगस्त 1982) की पुण्यतिथि है। बेल्जियम के मूल निवासी  बुल्के  भारत मिशनरी के काम से आए थे। परंतु भारत प्रेम ने उन्हें मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त बना दिया।  उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
अकादमिक लिहाज़ से कामिल बुल्के की सबसे मशहूर कृति अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश (1968) मानी जाती है।  कामिल बुल्के को भारत सरकार ने सन् 1951 में भारत की नागरिकता प्रदान कर दी। 1934 में ये भारत की ओर निकल गए और नवंबर 1936 में मुंबई पहुँचे। दार्जिलिंग में एक संक्षिप्त प्रवास के बाद, उन्होंने गुमला में पाँच साल तक गणित पढ़ाया। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा और अवधी सीखी। उन्होंने 1938 में सीतागढ़, हज़ारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। उन्होंने कहा था, "1935 में मैं जब भारत पहुँचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुख हुआ, मैंने यह जाना कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा।"

1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। भारत की शास्त्रीय भाषा में इनकी रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री और आख़िर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1945-49) में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। शोध का शीर्षक था - 'राम कथा की उत्पत्ति और विकास।'

उनके सम्मान में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में छात्रावास का नाम 'फ़ादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास' रखा गया है।

17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनका देहांत हुआ।

यह संयोग है कि आज आधुनिक युग के तुलसीदास कहे जाने वाले फादर कामिल बुल्के की पुण्यतिथि पर मुझे महावीर मंदिर जाने का सौभाग्य मिला। आज बहुत कम लोगों को स्मरण होगा कि कामिल बुल्के ने अपने शोध ‘ राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ के सहारे भारतीय संस्कृति को जानने और समझने का अपने जीवन-पथ का एकमात्र ध्येय बना लिया।  हिंदी के इस अनन्य प्रेमी को नमन🙏

#साकेत_विचार
#हिंदी
#बुल्क़े

Friday, August 5, 2022

राम मंदिर का शिलान्यास और 05 अगस्त का महत्व

 05 अगस्त, हम सभी के लिए बड़ा ही ऐतिहासिक दिवस हैं । जब श्रीरामचन्द्र अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होकर पुनः स्थायी रूप से विराजमान हुए। यह कोई साधारण घटना नहीं रही।  इस परिघटना की भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक पुनरोदय में अभूतपूर्व भूमिका रहेगी।  श्रीराम भारतवासियों के लिए आराध्य मात्र नहीं वरन् हमारी जीवन शैली के प्रतीक हैं । राम जैसे नायक जिस समाज के समक्ष उपस्थित हो उसे दूसरों के समक्ष देखने की क्या आवश्यकता? 

श्रीराम भारतीय संस्कृति के प्रणेता हैं । चाहे सुख हो या दुःख श्री राम सभी में प्रेरणा देते हैं । चूँकि वे स्वयं इन परिस्थितियों का सामना करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। प्रभु श्रीराम की जीवन लीला के पथ में मर्यादा ही सबसे बड़ा पाथेय रहा। पितृ, मातृ, पति, मित्र, शासक, प्रशासक, नीतिज्ञ आदि के प्रत्येक धर्मपालन में वे सबसे बड़े आदर्श हैं ।  राम हमारी विरासत हैं, उमंग हैं, संस्कृति एवं संस्कार हैं । जिनसे भारतीय सभ्यता-संस्कृति पुष्पपित-पल्लवित हुई। राम को जानने-समझने के लिए यह जरूरी है कि हम रामायण एवं रामचरितमानस दोनों ग्रंथों के जीवन मूल्यों को समझें । समाज जिन आदर्शों एवं मूल्यों से ऊर्जस्वित होता है वे सभी कुछ इन ग्रंथों में हैं । 

05 अगस्त का दिवस हमें हीनता से उबरने का भी बोध कराता है।  एक विदेशी आक्रांता द्वारा देश के ऐतिहासिक नायक की जन्मभूमि को पद दलित करना भला कौन-सी मर्यादा थीं । माननीय सर्वोच्च न्यायालय का कोटि-कोटि अभिनन्दन जिसने भारतवर्ष के इस ऐतिहासिक घाव को भरने का सुअवसर दिया। साथ ही भारतीय इतिहास की भूलों को सुधारने का भी। 

भारत के विरुपित इतिहास ने भारतीयों के जनमानस को कुंठित करने का जो मार्ग अपनाया था, उसे 05 अगस्त का दिन मर्यादित स्वर देने का मार्ग प्रशस्त करती है। अब वक्त आ गया है जब भारतीय समाज को पुन: नचिकेता, प्रह्लाद और ध्रुव जैसे नायकों को स्मरण करते हुए अपने नौनिहालों को सींचित करना होगा। 

एक बात यहाँ लिखना ज़रूरी है कि ज्यादातर मामलों में हमारे देश यह परिपाटी स्थापित हो चुकी है कि एक वर्ग या विचारधारा के लोगों द्वारा हिंदुओं में उपस्थित  धार्मिक या जातिगत भेदभाव को पूरे समाज के साथ जोड़कर पेश किया जाता है। उनकी चिंता जायज हैं पर समरसता की खबरें भी वे लाए तो ज्यादा अच्छा । इससे बहुसंख्यक समाज के बहाने बहुस्तरीय रुप में एकता का मार्ग प्रशस्त होगा।  प्रार्थना है राम मंदिर के मर्यादित कार्य से शासन के स्वर मर्यादित हो!

अब यह विचारणीय है कि क्या कोई पंथ, समुदाय बुरा हो सकता है। तब क्यों ज्यादातर धार्मिक बुराईयों को केवल सनातन पंथ से ही जोड़कर दिखाया जाता है ?  इन सब के पीछे इस देश की बुनियाद को कमजोर करने की साजिश दिखती है।  क्या सारी बुराईयां सनातन पंथ में ही विद्यमान  है।  यहाँ सनातन का मतलब बौद्ध, जैन, सिक्ख परंपराओं से हैं । क्या कथित प्रबुद्ध लेखकों ने कभी इस पर कुछ लिखा है कि जिन हिंदुओं ने अपने पुरखों का धर्म छोड़कर  चाहे जबरदस्ती, चाहे भेदभाव के कारण भी इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाया था, उन पिछडों की इस्लाम या ईसाई धर्म में आज क्या स्थिति है? इस प्रकार की समस्या केवल हिंदू समाज में ही नहीं है। 

सामाजिक या धार्मिक बुराईयां सामंती कुंठाओं की उपज है जो सत्ता, व्यवस्था और पंथ में एक समान उपस्थित हैं । ऐसे लोगों को धर्म से अधिक शिक्षा का महत्व समझना चाहिए । उन लोगों को यह जरूर समझना चाहिए कि किसी भी धर्म या कर्तव्य पालन को समझें बिना शिक्षा का कोई मोल नहीं है। धर्म लोगों को सही मार्ग पर चलना सिखाता है।  उच्च शिक्षित भी असत्य के मार्ग पर चलते है और मानव जीवन को कुमार्ग पर लाने के सारे प्रयत्न करते हैं । अतः समाज, अर्थ और शिक्षा से धर्म को न जोड़े । शिक्षा और धर्म दोनो अलग विषय है और जीवन शैली में दोनों का  महत्व है।

इस अवसर पर मुझे अपनी एक कविता ' इतिहास'  का स्मरण हुआ। 


                                                     इतिहास ..........


इतिहास

भारत की जहालत का

बदनामी का

संपन्नता का

विपन्नता का

................................ 

कौन-सा

कुभाषा का

कुविचारों का

या अपने को हीन मानने का

..............................


सौहार्दता की आड़ में

अपने को खोने का

विश्व नागरिक की चाह में

भारतीयता को खोने का


....................................


समरसता की आड़ में अपने को खोने का

इतिहास है क्या

सिकंदर को महान बनाने का

या

समुद्रगुप्त से ज्यादा नेपोलियन को

या

फिर स्वंय को खोकर

दूसरों को पाने का

या 

दूसरों को रौंदकर अपनी पताका फहराने का


...............................

आधुनिकता की आड़ में 

पुरातनता थोपने का ।

समाज सुधार आंदोलनों को 

धार्मिक आंदोलन का नाम देने का  

या

कौमियत को धर्म का नाम देने का 


.............................


क्या धर्म को विचार का नाम देना आंदोलन है 

या फिर 

अंग्रेजी दासता को श्रेष्ठता का नाम देना 

या फिर सूफीवाद की आड़ में

भक्तिवाद को खोने का


..........................

या फिर

इतिहास है अतीत के पन्नों पर

खुद की इबारत जबरदस्ती लिखने का

या शक्तिशाली के वर्चस्व को स्थापित करने का

कहते है भारत सदियों से एक है 

तो फिर जाति-धर्म के नाम पर 

रोटी सेंकना क्या इतिहास है। 

क्या देश की सांस्कृतिक पहचान नष्ट करना 

इतिहास है?

...................

यदि यह इतिहास है ?

तो जरूरत है इसे जानने-समझने की

इतिहास है तटस्थता का नाम

तो फिर यह एकरूपता क्यूँ

क्या इतिहास दूसरों के रंगों में रंगने का नाम है

या दूसरों की सत्ता स्थापित करने का ।

©डॉ. साकेत सहाय

Wednesday, August 3, 2022

मैथिलीशरण गुप्त



 जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। 

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। 

हिंदी साहित्य में खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि जिन्हें राष्ट्रकवि के रूप में भी जाना जाता है ऐसे महान साहित्यकार “मैथिलीशरण गुप्त” (3 अगस्त 1886 - 12 दिसंबर 1964) जी का जन्म दिवस है ।  गुप्त जी ने हिन्दी साहित्य की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय समाज की अमूल्य सेवा की, उन्होंने अपने काव्य में भारतीय राष्ट्रवाद, संस्कृति, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित किया।  साकेत इनकी महान रचना है जिसमे नारियों की दुरावस्था  के प्रति सहानुभूति झलकती है –

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी । 

आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।


हिंदी साहित्य ही नही अपितु देश के ऐसे महान कवि को नमन! जिसके काव्य में देश के सभी वर्गों की उपस्थिति की झलक मिलती है... 

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करो मन को।

Tuesday, August 2, 2022

राजर्षि पुरूषोतम टण्डन दास

 हिंदी के अनन्य सेवक व लेखक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, तेजस्वी वक्ता, समाज सुधारक और महान स्वतंत्रता सेनानी 'भारतरत्न' पुरुषोत्तम दास टंडन जी की जयंती पर उन्हें सादर नमन !   राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेता, समाज सुधारक, कर्मठ पत्रकार तथा तेजस्वी वक्ता थे। उनका जन्म 1 अगस्त, 1882 को इलाहबाद में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय से पूर्ण कर विधि स्नातक की योग्यता हासिल की और 1906 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे, उसी वर्ष इलाहबाद के लिए कांग्रेस के भी प्रतिनिधि चुने गए। 1919 से हुए जालियाँवाला बाग हत्याकांड के लिए बनी कांग्रेस समिति से वे सम्बद्ध रहे, और फिर 1920-21 के असहयोग आंदोलन तथा गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने उच्च न्यायालय की प्रैक्टिस छोड़ दी तथा एक योद्धा की भूमिका का निर्वाह किया। 1937 में चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बहुमत मिला, इसका पूरा श्रेय टंडन जी को गया, 1937 से 1950 तक वे उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रवक्ता रहे और वहाँ के पहले मंत्रिमंडल में विधानसभा अध्यक्ष (स्पीकर) चुने गए। वे 1946 में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए, 1952 में लोकसभा के तथा 1957 में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1949 में उनके प्रयास से ही हिंदी भारत की राजभाषा बनी। वे एक उच्च कोटि के रचनाकार भी थे और उनके बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की वजह से देवराहा बाबा ने उन्हें राजर्षि की उपाधि से अलंकृत किया। 26 अप्रैल, 1961 को भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न' की उपाधि से विभूषित किया। 1 जुलाई, 1962 को भारत माता के ये सपूत प्रयागराज में पंचतत्व में विलीन हो गए।

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...