भाषा, भावुकता और यथार्थ के बीच में पिसती हिंदी
भाषा का मामला भावुकता का नहीं ठोस यथार्थ का है। जब यथार्थ दरवाजे के रास्ते आक्रमण करता है, तो
भावुकता खिड़की के रास्ते भाग निकलती है।
लेकिन ऐसा करने वाली भावुकता को निहायत ही सतही मानना चाहिए। अगर वह सचमुच भावुकता है तो ऐसा नही करेगी। वह
यथार्थ से मुकाबला करेगी और उसे मार गिरायेगी।
यह कोई मुश्किल काम नही है।
भावुकता की वजह से ही देश भर में खादी चल पड़ी थी। यह भावुकता ही है जो
भारतीयों को उन अनिवासी भारतीयों से जोड़ती है जो लक्ष्मी की आराधना करने के लिए
विदेश चले गए। फिर वही बस भी गए। देशभक्ति भी एक भावुकता है जो राष्ट्रीय संकट
के समय सभी भारतीयों को ऐक्यबद्ध करती है।
इसलिए भावुकता की ताकत को कम करके नही आंकना चाहिए। भावुकता की वजह से हम उन आईआईटी इंजीनियरों को अपना मानते है जो हमारी सब्सिडी के बल पर पढ़ाई कर डालर की सेवा कर रहे है। और हमारा देश आज भी तकनीक के मामले में पिछ्ड़ा है। बस हम खुश होते है कि नोकिया का सीईओ भारतीय है।
दरअसल भावुकता भी एक यथार्थ है। इसलिए यथार्थ और भावुकता की टकराहट को एक
यथार्थ बनाम दूसरे यथार्थ की टकराहट के रुप में देखना चाहिए । इस टकराहट में वह यथार्थ जीत जाता है जो मजबूत
होता है। यानी जो हारता है, वह भावुकता
नही उसका छदम है। हिंदी भाषी या दूसरी
भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी भाषा का द्वंद भी कुछ-कुछ भावुकता बनाम यथार्थ का
है। यानि कि भावुकता में हम भले ही कह ले
कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं किसी भी मामले में अंग्रेजी से कमतर नहीं। लेकिन हम सभी भली-भांति जानते है भावुकता या
दूसरे, जो हिंदी भाषी स्वंय हिंदी न जानते हुए भी या हिंदी (यहां हिंदी का प्रयोग
सभी भारतीय भाषाओं के प्रतीक के रुप किया जा रहा है) से रखते हुए भी अपने बच्चों
को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजते है।
उनमें अपनी मातृभाषा के प्रति प्रतिबद्धता नहीं होती ऐसी बात नहीं है। तीसरी बात यह है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों
में पढ़ाना काफी खर्चीला होता है, फिर भी क्लर्क, चपरासी, दरबान, धोबी, बढ़ई, नाई और
सफाई कर्मचारी भी अपना और अपने परिवार वालों का पेट काट कर, अपने बच्चों को
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजना चाहते हैं और भेज रहे है तो इसका कुछ मतलब
होना चाहिए।
कोई बच्चा हिंदी स्कूल में पढ़ा रहा है, तो इसका मतलब है कि
उसके माता-पिता गरीब या अविकसित है।
जैसे-जैसे मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग में आने वाले लोगों की संख्या
बढ़ेगी, भारतीय भाषाएं बुरे दिनों में साथ न देने वाले मित्रों की तरह गायब होने
लगेंगी। जब पूरा भारत संपन्न हो जाएगा, तब
देश की सड़कों और बाजारों में सिर्फ अंग्रेजी बोली जाएगी। अब भी ऐसे वाणिज्यिक स्थान हैं जहाँ हिंदी की
अपेक्षा अंग्रेजी कई गुना ज्यादा बोली जाती है।
और ये कोई मिशनरी संस्थाओं द्वारा संचालित नही की जाती है।
अक्सर हिंदी प्रेमी लेखको और पत्रकारों पर यह आरोप लगाया जाता
है कि वे खुद तो हिंदी के पक्ष में अभियान चलाते है लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी
माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं। मेरी
समझ से, यह तथ्य है आरोप नहीं। इसलिए कि
इस तथ्य के पीछे मौजूद विडंबना को समझने की कोशिश नहीं की जाती।
जब ऐसी कोशिश होगी, तब सहज ही यह
समझ आ जाएगा कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, यह एक जीवन व्यवस्था भी
है। जब तक उस जीवन व्यवस्था पर निर्णायक
प्रहार नही किया जाता जिसमें अंग्रेजी को फूलने-फलने का खतरनाक अवसर मिलता है, तब
तक भारतीय भाषाओं के चिरायु होने की आशा नहीं की जा सकती। वे अगर बचेंगी तो इसीलिए कि उनका प्रयोग करने
वालों तक विकास नाम की पश्चिमी चिड़िया अब तक नही पहुँची है।
भाषा के मुद्दे को जब तक राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक, व
औद्योगिक व्यवस्था से नही जोड़ा जाएगा, तब तक इस परिवर्तन आंदोलन का राष्ट्रव्यापी युद्ध औंधे मुँह गिरने को बाध्य है। इसकी एक अच्छी मिसाल है तमाम हिंदी भाषी राज्यों की
स्थिति। हिंदी के लिए जरुरत है सामाजिक
व्यवस्था को बदलने की। अंग्रेजी हटाने के
एक प्रयोग ने लाखों बच्चों का भविष्य अंधकारमय कर दिया। भारत में अंग्रेजी कल हट सकती है बशर्ते एक ऐसी
राष्ट्रीय हुंकार भरी जाए जो इस एलिट उन्मुख व्यवस्था पर चौतरफा धावा बोल दे। हिंदी की जमीन सामान्य जन से जुड़ी है, तो
अंग्रेजी का संबंध भारत में शोषण और संग्रह की प्रक्रिया से है। इस प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से
शामिल हुए बगैर आप संपन्नता की मध्यवर्गिता की सीढ़िया नही चढ़ सकते। हमारा राजनीतिक प्रतिष्ठान शोषण और संग्रह की
इस प्रकिया दलाल बन चुका है। इसमें हमारी
सारी राजनैतिक धारायें शामिल है। यह
गांधीजी का ही कलेजा था कि उन्होंने अपने बच्चों को स्कूली शिक्षा से दूर
रखा। इसके लिए उन्होंने पत्नी से, एक बेटे
से और अन्य अनेक लोगों से अपनी कटु आलोचना भी सही।
अंत में मैं, यह कहना चाहूंगा कि केवल सीसैट का प्रश्न नहीं है दरअसल अब वक्त सभी जगह भारतीय भाषाओं को पुर्नस्थापित करने की। तभी संविधान के अनुच्छेद 351 की भावना के साथ न्याय होगा।
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