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भूले -बिसरे देशरत्न

    आज देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जन्मतिथि है। वास्तव में भारतरत्न थे। तीन बार कांग्रेस की अध्यक्षता करने वाले, संविधान सभा के पहले अध्यक्ष राजेंन्द्र बाबु अजातशत्रु थे। सदैव देशहित के लिए जिए। इसीलिए पटेल,गांधीजी या नेहरु की तरह अपना आभामंडल न तैयार कर पाए। गांधीजी को वास्तव में गांधी बनाने में उनका भी बड़ा योगदान था। चंपारन सत्याग्रह में राजकुमार शूक्ल के साथ उनकी भी भूमिका थी। परंतु,ह्मारे देश में आजादी के बाद उन्हीं नेताओं की पूछ ज्यादा होती है जिसके पीछे बड़ा वोट बैंक हो। उदाहरण आप सभी के सामने है, अंबेडकर, नेहरु,पटेल, (दलित, ब्राहमण,ओबीसी) क्षमा कीजिएगा,इसमें इन नेताओं की गलती नहीं है। चूंकि, राजेंद्र बाबु के पीछे कोई बड़ा वोट बैंक नहीं था,इसीलिए आज उन्हें कोई टिवटर पर याद नहीं करता। और उनकी जयंती पर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया जाता। सत्ता या विपक्ष सब नंगे है।

जीवन

मानव जीवन से जुड़ी सारी चीजें स्वयं एक कहानी है। चाहे इसे 140 शब्दों में लिखें या 14000 या 1400000 में मतलब एक ही है जिंदगी बाधाओं, सफलताओं, रुसवाईयों से गुजर कर ऊपर जाने का नाम है। साकेत सहाय ब्लॉग www.vishwakeanganmehindi.blogspot.com

हिंदी का प्रश्न

बार-बार मन में यह प्रश्न कौंधता है कि देश की भाषा समस्या का कारण क्या है ?  क्या यह समस्या एक विशेष भाषा से राजनैतिक दुराव की देन है या अंग्रेजीवादी मानसिकतावादी से एक अतिरिक्त लगाव की उपज।  दोनों ही विचार मन में आते है।  लेकिन इस स्थिति का जिम्मेवार कौन है ? जबकि संविधान सभा ने  सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था। हमारे जन प्रतिनि‍धियों ने भी हिन्दी की महत्ता एवं गुणों को स्वीकारते हुए वर्ष 1947  में ही इसे संघ की राजभाषा के रुप में स्वीकार किया था।  क्या हमारी राजभाषा भी सरकार के अन्य चिन्हों,  प्रतीकों की तरह प्रतीकवाद की शिकार हो गई ? हम सभी इसका दोष आसानी से राजनैतिक दलों या सरकार को देते है।  परंतु, क्या हमने अपने अंदर कभी झाँकने की कोशिश की है ?  कि हम सभी अपने कर्तव्य पालन हेतु कितने तत्पर है? हिन्दी महज भाषा नही वरन् राष्ट्रवाद की प्रतीक है।  फिर क्यों हम अपने तथाकथित राजनैतिक, व्यक्तिगत हितों के तले राष्ट्रनायकों की वास्तविक इच्छा को रौंद रहे है।  और – तो - और, जिन राजनैतिक वजहों से हिंदी वास्तविक सत्ता को प्राप्त नहीं कर पाई तो वहीं दूसरी भारतीय भाषा

भाषा, भावुकता और यथार्थ के बीच में पिसती हिंदी

भाषा का मामला भावुकता का नहीं ठोस यथार्थ का है।   जब यथार्थ दरवाजे के रास्ते आक्रमण करता है, तो भावुकता खिड़की के रास्ते भाग निकलती है।   लेकिन ऐसा करने वाली भावुकता को निहायत ही सतही मानना चाहिए।   अगर वह सचमुच भावुकता है तो ऐसा नही करेगी। वह यथार्थ से मुकाबला करेगी और उसे मार गिरायेगी।   यह कोई मुश्किल काम नही है।   भावुकता की वजह से ही देश भर में खादी चल पड़ी थी। यह भावुकता ही है जो भारतीयों को उन अनिवासी भारतीयों से जोड़ती है जो लक्ष्मी की आराधना करने के लिए विदेश चले गए।   फिर वही बस भी गए।   देशभक्ति भी एक भावुकता है जो राष्ट्रीय संकट के समय सभी भारतीयों को ऐक्यबद्ध करती है।   इसलिए भावुकता की ताकत को कम करके नही आंकना चाहिए।  भावुकता की वजह से हम उन आईआईटी इंजीनियरों को अपना मानते है जो हमारी सब्सिडी के बल पर पढ़ाई कर डालर की सेवा कर रहे है।  और हमारा देश आज भी तकनीक के मामले में पिछ्ड़ा है।  बस हम खुश होते है कि नोकिया का सीईओ भारतीय है।  दरअसल भावुकता भी एक यथार्थ है।   इसलिए यथार्थ और भावुकता की टकराहट को एक यथार्थ बनाम दूसरे यथार्थ की टकराहट के रुप में देखना चाहिए ।