अमृत विचार
दिनांक 31.08.2021
हिंदी विश्व में भारतीय अस्मिता की पहचान है। हिंदी भारत की राजभाषा,राष्ट्रभाषा से आगे विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है।
जापान में भगवान गणेश का रूप: कांगितेन
भारतीय संस्कृति में भगवान गणेश को विघ्नहर्ता, बुद्धि और समृद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है। लेकिन यह कम लोग जानते हैं कि जापान में भी गणेशजी की एक विशेष उपासना परंपरा है, जहाँ उन्हें "कांगितेन" (Kangiten) के नाम से जाना जाता है। यह स्वरूप सीधे तौर पर जापानी बौद्ध धर्म, विशेषकर शिंगोन संप्रदाय और एज़ोटेरिक (गूढ़) बौद्ध परंपरा से जुड़ा हुआ है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 📜
- गणेश पूजा का जापान में प्रवेश मुख्यतः चीन के माध्यम से बौद्ध धर्म के प्रसार के दौरान हुआ।
- संस्कृत में "विनायक" और "गणपति" के रूप में पूजे जाने वाले देवता का परिचय बौद्ध साधकों ने जापानियों को कराया।
- जापान में यह रूप कांगितेन के रूप में विकसित हुआ, जिसमें स्थानीय संस्कृति और बौद्ध तांत्रिक साधनाओं का प्रभाव दिखाई देता है।
कांगितेन का स्वरूप 🕉
- कांगितेन के कई रूप हैं, लेकिन सबसे लोकप्रिय रूप "शोतािकांगितेन" है, जिसमें दो शरीर (पुरुष और स्त्री) गले मिलते हुए दर्शाए जाते हैं।
- यह आलिंगन संपूर्णता, संतुलन, करुणा और आनंद का प्रतीक माना जाता है।
- हाथी का सिर और मानव शरीर, जो गणेशजी के मूल स्वरूप से जुड़ी पहचान है, यहाँ भी विद्यमान है।
धार्मिक महत्व
- बौद्ध परंपरा में कांगितेन को सौभाग्य, व्यापार में सफलता और पारिवारिक सुख-शांति के देवता के रूप में पूजा जाता है।
- इन्हें "आनंद देने वाले देव" (देवता ऑफ़ ब्लिस) भी कहा जाता है।
- जापानी व्यापारी और साधक अक्सर विशेष मंदिरों में गुप्त विधियों से कांगितेन की उपासना करते हैं, क्योंकि इसे अत्यंत पवित्र और निजी पूजा माना जाता है।
प्रमुख पूजा स्थल ⛩
- मात्सुचियामा शोतें (Matsuchiyama Shoten), टोक्यो – सबसे प्रसिद्ध कांगितेन मंदिरों में से एक, जहाँ भक्त व्यापारिक सफलता और पारिवारिक सुख के लिए प्रार्थना करते हैं।
- इकुतेरु शोतें, ओसाका – व्यापारियों के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय।
सांस्कृतिक अनुकूलन
- भारत में गणेशजी की खुली, सार्वजनिक पूजा होती है, लेकिन जापान में कांगितेन की पूजा अक्सर गुप्त विधियों से की जाती है।
- मूर्तियाँ और चित्र प्रायः आम जनता के सामने नहीं रखे जाते, बल्कि मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में ही पूजे जाते हैं।
- यह गूढ़ता, जापानी बौद्ध धर्म के तांत्रिक पक्ष से मेल खाती है।
कांगितेन का स्वरूप इस बात का अद्भुत उदाहरण है कि कैसे एक ही देवता, समय और सांस्कृतिक संदर्भ के साथ नए रूपों और परंपराओं में ढल सकता है। भारत के विघ्नहर्ता गणेश जब जापान पहुँचे, तो उन्होंने वहां के धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश में एक नया, फिर भी मूल भाव को सुरक्षित रखने वाला रूप पाया। यह भारत-जापान के सांस्कृतिक संबंधों की गहराई और आध्यात्मिक आदान-प्रदान का प्रमाण है।
#गणेश
#गणपति
#जापान
#गणेश_चतुर्थी
मेजर ध्यानचंद जी को नमन! अमृत विचार में
29.08.2022
अमृत विचार
दिनांक 30.08.2021
आज खेल दिवस पर हॉकी को जादूगर मेजर ध्यानचन्द को शत-शत नमन !!!
कोई समय था, जब भारतीय हॉकी का पूरे विश्व में दबदबा था। उसका श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे; पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये।
वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।
चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी, कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी; पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का जादूगर’ कहते थे।
भारत ने सर्वप्रथम 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भाग लिया। ध्यानचन्द भी इस दल में थे। इससे पूर्व इंग्लैण्ड ही हॉकी का स्वर्ण जीतता था; पर इस बार भारत से हारने के भय से उसने हॉकी प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। भारत ने इसमें स्वर्ण पदक जीता। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के समय उन्हें भारतीय दल का कप्तान बनाया गया। इसमें भी भारत ने स्वर्ण जीता। इसके बाद 1948 के ओलम्पिक में भारतीय दल ने कुल 29 गोल किये थे। इनमें से 15 अकेले ध्यानचन्द के ही थे। इन तीन ओलम्पिक में उन्होंने 12 मैचों में 38 गोल किये।
1936 के बर्लिन ओलम्पिक के तैयारी खेलों में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। फाइनल के समय फिर से दोनों टीमों की भिड़न्त हुई। प्रथम भाग में दोनों टीम 1-1 से बराबरी पर थीं। मध्यान्तर में ध्यानचन्द ने सब खिलाड़ियों को तिरंगा झण्डा दिखाकर प्रेरित किया। इससे सबमें जोश भर गया और उन्होंने धड़ाधड़ सात गोल कर डाले। इस प्रकार भारत 8-1 से विजयी हुआ। उस दिन 15 अगस्त था। कौन जानता था कि 11 साल बाद इसी दिन भारतीय तिरंगा पूरी शान से देश भर में फहरा उठेगा।
1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहाँ दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे।
भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
माननीय भारत गणराज्य के राष्ट्रपति
माननीय प्रधानमंत्री, भारत
माननीय मुख्यमंत्री, बिहार
माननीय मुख्य सचिव, बिहार
माननीय सांसद , सारण संसदीय क्षेत्र
विषय - भारत की शान देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी के विद्यालय बिहार के छपरा जिला स्कूल को विरासत स्मारक का दर्जा दिये जाने के संबंध में।
उक्त विषय के संबंध में सूचित करना है कि जैसा कि आप अवगत ही है कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने बिहार के छपरा जिला स्कूल से भी शिक्षा ग्रहण की थी। भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी के विद्यालय छपरा जिला स्कूल को विरासत स्मारक का दर्जा दिया जाना न केवल सारण संसदीय क्षेत्र बल्कि भारत के राष्ट्रीय गौरव से भी संबंधित है । अत : यह विषय भारत के राष्ट्रीय पहचान से भी जुड़ा हूआ है। इसी विद्यालय में डॉ राजेंद्र प्रसाद की शैक्षणिक नींव मजबूत हुई । यही पर उनके बारे में लिखा गया “ examinee is better than examiner” अत : आप सभी निवेदन है कि इस दिशा में उचित कार्रवाई करें ।
निवेदक,
डॉ साकेत सहाय
पूर्व छात्र
निवासी सारण जिला
Rajiv Pratap Rudy
Narendra Modi
Nitish Kumar
#साकेत_विचार
“छपरा जिला स्कूल-विरासत स्मारक”
छपरा जिला स्कूल -बिहार के सारण (छपरा) ज़िले का एक ऐतिहासिक विद्यालय है। इसकी स्थापना ब्रिटिश काल में हुई थी (19वीं शताब्दी के मध्य)। इसे ज़िले के प्रमुख शैक्षिक संस्थानों में गिना जाता है, जहाँ से कई विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी और प्रशासनिक सेवाओं में जाने वाले छात्र निकले। इस स्कूल की इमारत औपनिवेशिक स्थापत्य शैली (colonial architecture) का उदाहरण है-ऊँचे दरवाज़े, मेहराबदार खिड़कियाँ, और लाल-ईंटों की संरचना।
विरासत स्मारक के रूप में महत्व
यह सिर्फ़ एक शिक्षण संस्था नहीं रही, बल्कि आज़ादी के आंदोलन और शिक्षा प्रसार दोनों का गवाह रहा है।
यहाँ कई राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेता और विद्वान अध्ययनरत रहे। यह विद्यालय छपरा शहर की पहचान का प्रतीक है। स्थानीय लोग इसे “छपरा का शैक्षिक तीर्थ” मानते हैं।
छपरा जिला स्कूल केवल एक विद्यालय नहीं बल्कि एक शैक्षिक-सांस्कृतिक विरासत का जीवंत स्मारक है, जिसके छात्र एवं शिक्षकों ने शिक्षण, स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सुधार में अपनी अहम भूमिका निभाई है।
आप सभी का सहयोग अपेक्षित है । भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी के विद्यालय को विरासत स्मारक का दर्जा दिया जाना समय की माँग है । मैंने इस संबंध में माननीय मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, महामहिम राष्ट्रपति महोदया, सांसद महोदय को ईमेल के माध्यम से संज्ञान लेने हेतु निवेदन किया है । यह आप सभी की माँग है । मीडिया मित्र भी संज्ञान लें ।
धन्यवाद
#हिंदी #आत्मबल
आज सुबह ट्विटर पर जब एक ट्वीट पढा कि 'अंग्रेजी मोह से ग्रसित चैनल के पत्रकार महोदय जब अपना सवाल ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता से अंग्रेजी में पूछते है तो इस पर नीरज चोपड़ा कहते हैं, सर! हिंदी में प्रश्न पूछिए।
यह खबर बहुत बड़ी है। क्योंकि यह देश के निवासियों के भाषाई आत्म बल को जगाता है। उनके भाषाई प्रेम को दर्शाता है। आज नीरज चोपड़ा को कौन नहीं जानता है? वे खेल क्षेत्र के लिए आशा की नयी किरण हैं । उनकी यह पहल बहुत बड़ा संदेश हैं ।
हालांकि आप सभी को यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगेगी, पर मेरे जैसे हिंदी प्रेमी के लिए इस घटना ने इसी बहाने जाने-अनजाने महात्मा गाँधी की याद दिला दी। 'जब आजादी के बाद बीबीसी पत्रकार उनसे अंग्रेजी में प्रश्न पूछता हैं तो वे कहते हैं जाओ जाकर दुनिया को कह दो गाँधी को अंग्रेजी नहीं आती । गांधीजी जैसा जिगरा सबका नहीं । फिर भी नीरज ने दुनिया को बहुत बड़ा संदेश दिया है । भाषा केवल संवाद या रोजगार का जरिया मात्र नहीं बल्कि देश के आत्म बल का प्रतीक भी होता है।
आज यदि देखें तो हर स्तर पर अंग्रेजी या हर बात में हिंदी के विकृत रूप 'हिंग्लिश' का प्रयोग या चलन ज्यादातर मामलों में हीनता बोध या अज्ञानता की उपज को ही माना जा सकता है। ऐसे लोगों के लिए हिंदी केवल 'यूज और थ्रो' की भाषा बनी रही। गुलाम मानसिकता के कारण अंग्रेजी से उनकी पुरानी अदावत हैं। अंग्रेजी शासन की मानसिकता रही कि प्रत्येक देशी चीज़ को निकृष्ट मानो, हां यह अलग बात है कि साथ में चोरी से देशी चीजों का दोहन भी करों । आज़ादी मिलने के बाद भी हमारी सोच लगभग वहीं रही । इसी सोच की उपज है- अंग्रेजीवादी मानसिकता । यह एक सोच है। जो एक जहर के रूप में हमारी परंपरा ,भाषा, सोच , व्यवस्था सभी कुछ को बैसाखी आधारित बना रही है। यह समस्या अब ज्यादा विकराल हो रही है। क्योंकि जिस पीढ़ी ने आजादी की लड़ाई लड़ी, देखी, महसूस किया वह अब दिवंगत हो रहीं है। बाकियों के लिए हिंदी या अन्य पक्ष बेकार की बातें है। ऐसे में हमारी भाषा, परंपरा, विरासत के क्षय होने का डर है। इसे पूरे भारतीय समाज के लिए समझना जरूरी है कि हम सब अपनी भाषा, व्याकरण, शब्द, प्रयोग आदि के महत्व को समझे। इस हेतु अंग्रेजी जातिवाद का विरोध जरूरी है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि हिंदी हमारे घरों में सम्मान से रहे। उसे मूल हक मिले, उसे इंवेट मैनेजमेंट का हिस्सा न बनाया जाए । जो बनाए उसका प्रतिकार हो। बाकी तो जो हो रहा है उसे सब देख ही रहे हैं । सब कुछ सरकारें नहीं करती, कुछ जन दबाव भी जरूरी है । इस प्रकार हम स्वतः समझ सकते हैं कि नीरज ने कितना बड़ा कार्य किया है।
एक और बात
कुछ लोगों के लिए पूर्वोत्तर विशेष रूप से मिजोरम की मुख्य भाषा अंग्रेजी है पर आज चैनल पर जब भारतीय महिला हाॅकी टीम की खिलाड़ियों का उनके गौरवमयी प्रदर्शन के लिए साक्षात्कार लिया जा रहा था; तो उसमें भी मिजोरम की महिला खिलाड़ियों के शानदार हिंदी को देखकर लगा कि वास्तव में हिंदी सबकी भाषा हैं । सबको जोड़ने की भाषा हैं । अंग्रेजी तो गुलामी के व्यामोह से उपजी भाषा है। जहां यह आपको अपनी संस्कृति से दूर करती है और भारत में तो यह सांस्कृतिक आक्रमण का हथियार बनती जा रही है ।
आइए हम सब भी प्रत्येक स्तर पर अपनी भाषा को सम्मान दें । क्योंकि पेट में गया जहर तो सिर्फ एक व्यक्ति को मारता है पर अंग्रेजी हीनता का कीड़ा करोड़ो भाषाई विकलांगों को जन्म दे रहा है ।
जय हिंद! जय हिंदी!!
पोस्ट में हनुमानजी की तस्वीर इसलिए लगाई क्योंकि हनुमानजी से बड़ा आत्म बल का प्रतीक कोई और हो ही नहीं हो सकता ।
#हिंदी #साकेत_विचार #भारत_की_भाषा_हिंदी
©डॉ. साकेत सहाय
#हिंदी #शिक्षण #teaching #साकेत_विचार
प्रेमचंद की जयंती पर उनका एक पत्र पढ़िए जो जयशंकर प्रसाद के नाम है। उन दिनों प्रेमचंद मुंबई में थे और फ़िल्मों के लिए लेखन कर रहे थे-
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अजंता सिनेटोन लि.
बम्बई-12
1-10-1934
प्रिय भाई साहब,
वन्दे!
मैं कुशल से हूँ और आशा करता हूँ आप भी स्वस्थ हैं और बाल-बच्चे मज़े में हैं। जुलाई के अंत में बनारस गया था, दो दिन घर से चला कि आपसे मिलूँ, पर दोनों ही दिन ऐसा पानी बरसा कि रुकना पड़ा। जिस दिन बम्बई आया हूँ, सारे रास्ते भर भीगता आया और उसका फल यह हुआ कि कई दिन खाँसी आती रही।
मैं जब से यहाँ आया हूँ, मेरी केवल एक तस्वीर फ़िल्म हुई है। वह अब तैयार हो गई है और शायद 15 अक्टूबर तक दिखायी जाय। तब दूसरी तस्वीर शुरू होगी। यहाँ की फ़िल्म-दुनिया देखकर चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। सब रुपए कमाने की धुन में हैं, चाहे तस्वीर कितनी ही गंदी और भ्रष्ट हो। सब इस काम को सोलहो आना व्यवसाय की दृष्टि से देखते हैं, और जन-रुचि के पीछे दौड़ते हैं। किसी का कोई आदर्श, कोई सिद्धांत नहीं है। मैं तो किसी तरह यह साल पूरा करके भाग आऊँगा। शिक्षित रुचि की कोई परवाह नहीं करता। वही औरतों का उठा ले जाना, बलात्कार, हत्या, नक़ली और हास्यजनक लड़ाइयाँ सभी तस्वीरों में आ जाती हैं। जो लोग बड़े सफल समझे जाते हैं वे भी इसके सिवा कुछ नहीं करते कि अंग्रेज़ी फ़िल्मों के सीन नक़ल कर लें और कोई अंट-संट कथा गढ़कर उन सभी सीनों को उसमें खीच लायें।
कई दिन हुए मि. हिमांशु राय से मुलाक़ात हुई। वह मुझे कुछ समझदार आदमी मालूम हुए। फ़िल्मों के विषय में देर तक उनसे बातें होती रही। वह सीता पर कोई नई फ़िल्म बनाना चाहते हैं। उनकी एक कम्पनी क़ायम हो गई और शायद दिसम्बर में काम शुरू कर दें। सीता पर दो-एक चित्र बन चुके हैं, लेकिन उनके ख़्याल में अभी इस विषय पर अच्छे चित्र की माँग है। कलकत्ता वालों की ‘सीता’ कुछ चली नही। मैंने तो नहीं देखा, लेकिन जिन लोगों ने देखा है उनके ख़्याल से चित्र असफल रहा। अगर आप सीता पर कोई फ़िल्म लिखना चाहते हैं तो मैं हिमांशु राय से ज़िक्र करूँ ! मेरे ख़्याल में सीता का जितना सुंदर चित्र आप खींच सकते हैं, दूसरा नहीं खींच सकता। आपने तो ‘सीता’ देखी होगी। उसमें जो कमी रह गई गयी है, उस पर भी आपने विचार किया होगा। आप उसका कोई उससे सुंदर रूप खींच सकते हैं तो खींचिए। उसका स्वागत होगा।
प्रेस का हाल आपको मालूम ही है। मैंने ‘जागरण’ बन्द कर दिया। घाटा तो मेरे सामने ही कम न था, पर इधर उसकी बिक्री बहुत घट गयी थी। अब मैं ‘हंस’ को सुधारना चाहता हूँ। जैसी कि आपसे कई बार बातचीत हो चुकी है, इसका दाम 5 रु. कर देना चाहता हूँ और 100 पृष्ठ का मैटर देना चाहता हूँ। मगर अभी साल भर पाबंदी के साथ वक़्त पर निकालकर पाठकों में विश्वास पैदा करना पड़ेगा। ‘जागरण’ के कारण इसकी ओर ध्यान देने का अवसर ही न मिलता था। अब कोशिश करूँगा कि इसकी सामग्री इससे अच्छी रहे, कहानियों की संख्या अधिक हो और बराबर वक़्त पर निकले। आप अक्टूबर के लिए एक कहानी लिखने की अवश्य कृपा कीजिए। हाँ, मैंने ‘तितली’ नहीं देखी। उसकी एक प्रति भिजवा दीजियेगा।
मेरा स्वास्थ्य तो कभी अच्छा न था, अब और ख़राब हो रहा है। क़ब्ज़ की शिकायत बढ़ती जाती है। सुबह सोकर उठता हूँ तो कमर बिल्कुल अकड़ी रहती है, जब दो-तीन मील चल लेता हूँ तो वायु कम हो जाती है, कमर सीधी होती है और तब शौच जाता हूँ। मेरा विश्वास होम्योपैथी पर ही है, पर यहाँ होम्योपैथी कोई नहीं जानता। दो-एक डॉक्टर हैं तो वे मेरे घर से छः मील पर रहते हैं, जहाँ जाना मुश्किल है। यदि आप डॉक्टर सिन्हा से कोई चीज़ तजबीज कराके मेरे पास वीपीपी द्वारा भिजवा दें तो आपका थोड़ा-सा एहसान मानूँगा, अगर आपकी इच्छा होगी। अपनी जो तरकीबें थी, उनको आज़मा कर हार गया। वज़न भी दो पौंड घट गया है। जो देखता है पूछ बैठता है – आप बीमार हैं क्या? एक बड़े डॉक्टर से कंसल्ट किया। उसने कोयले का बिस्कुट खाने की सलाह दी। एक टिन खा गया, कोई लाभ न हुआ। हींग, अजवाइन, सौंठ सब देख चुका हूँ। कभी-कभी तो रात को नींद खुलती है तो क़मर में दर्द होता पाता हूँ और लेटना तकलीफ़देह हो जाता है। तब कमर पकड़कर धीरे धीरे टहलता हूँ। आप डॉक्टर साहब से ज़रूर कुछ भिजवाइये।
और क्या लिखूँ? बम्बई सुंदर है, अगर स्वास्थ्य ठीक हो, ज़्यादा महँगा भी नहीं, बहुत-सी चीज़ें तो वहाँ से भी सस्ती हैं। चमड़े की चीज़ें, कम्बल, विलायती सामान वहाँ से बहुत सस्ता। बिजली 4 आने यूनिट। खाने-पीने की चीज़ों में भी घी और मक्खन ख़राब, दूध बुरा नहीं, शाक-भाजी सस्ती और अफ़रात। आप चार पैसे में मीठा अभी तक ले लीजिए। संतरे रुपए के बीस-पच्चीस, केले बहुत सस्ते, मटर वहाँ के सेर से 4 आने सेर। यहाँ सेर केवल सात गंठे का है।
शेष कुशल है। गौड़ जी से मेरा आदाब अर्ज़ कहिएगा। चक्कर तो लगते ही होंगे। और मेरी तरफ़ से और अपनी तरफ़ से भी ‘हंस’ के अक्टूबर-नवंबर के लिए कोई हँसाने वाली चीज़ लिखने के लिए आग्रह –
भवदीय
धनपतराय
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#प्रेमचन्द #जयशंकर_प्रसाद
आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है। आज 'भारतीय भाषा दिवस' भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...