Tuesday, June 7, 2022

सहिष्णु भारत

 चलनी चलल सूप के बोले ।

जेकरा में बहत्तर छेद।।

इस्लामिक संगठन, पाकिस्तान,  तालिबान के लिए जिनके यहां दूसरे पंथ को मानने वालों की हैसियत दोयम दर्ज़े की है और तो और वो भी बोल रहे है जिन्होंने एक धर्म विशेष से घृणा के नाम पर वहाँ के मूल निवासियों को ही बाहर धकेल दिया। 

इस देश में सबका सम्मान रहा है होना  भी चाहिए ।  ईश्वर के सभी दूत पूज्यनीय है। यही मानव धर्म है। इसी मानव धर्म के सबक़ ने दुनिया के समक्ष यह दिखाया है कि कैसे धर्म विशेष के नाम पर बँटवारे के बाद भी इस  देश का समाज समरस की भावना के साथ जीता है। लाख ज़ख़्म मिले, पर सहिष्णुता क़ायम रही। इस देश की परंपरा, संस्कृति, मूल्य के आराध्य शिव, राम, कृष्ण का अपमान भी सहिष्णु समाज ने सहन किया।  यह देश महादेव ‘शिव’  का है जो सबके कल्याण में रत रहते है। यह हमारा धर्म है कि ईश्वर के सभी दूतों का सम्मान हो और यह मूल भावना सर्व समाज में होनी चाहिए। पर यह भी विचारणीय है कि कश्मीर में आए दिन हो रही हत्याओं का वहाँ की कश्मीरियत कभी खुलकर विरोध नहीं करती। इस देश ने विभाजन और षड्यंत्र का ज़हर बहुत पीया है, अब ज़रूरत है इस देश में भारतीयता का सम्मान  करने की। अन्यथा, हर ऐरा-गैरा हमें सिखाते रहेगा। यह भी भारत है -


https://www.uptak.in/neighbouring-news/varanasi/varanasi-muslim-woman-found-lord-shiva-in-her-dream-then-her-whole-life-changed


जय हिंद! जय भारत!


#साकेत_विचार

#भारत

Sunday, June 5, 2022

पर्यावरण, लोकभाषा और संस्कृति

 पर्यावरण, लोकभाषा और संस्कृति




दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-

"दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।"


आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस अवसर पर भारतीयता की मूल प्रकृति को दर्शाने वाली लोकभाषा एवं संस्कृति से बृहत्तर समाज की दूरी को लेकर मेरे मन में कुछ चिंतन उभरते हैं। आज़ादी के अमृत वर्ष पर क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है कि इस देश की राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप इसकी अपनी कोई भाषा सरकारें या व्यवस्था अभी तक स्वीकार नही कर पायी है।  साथ ही इस देश की व्यवस्था और समाज ने भी अपनी लोकभाषाओं को तिरस्कृत कर। त्याज्य दिया है। जिस कारण हम आज भी भाषाई एवं वैचारिक तौर पर ग़ुलाम की भाँति है।  पर्यावरण संरक्षण हेतु भी हमारे विचार उधार से शासित होते है। जबकि हमारी संस्कृति में भूमि, जल, आकाश की तमाम महिमाएँ हैं।

फिर हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण की निर्मिति में गिरावट क्यों? यह प्रश्न निश्चय ही विचारणीय है।  

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वर्गीय अनुपम मिश्र कहते हैं ‘किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझकर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं।  हम 'विकसित' हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी।  एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पलते-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है।‘

इस पूरे उद्धरण को यदि समझें तो भाषा, संस्कृति और पर्यावरण के अंतरसम्बन्धों को सहजता से समझा जा सकता है।  भाषा या बोली मात्र बोलने का जरिया नहीं होते, उनमें एक संस्कृति छुपी होती है।  भाषा के बदलने से एक पूरा समाज प्रभावित होता है।  क्योंकि यह हमारे दिमाग को बदलता है।  औपनिवेशिक शासन व्यवस्था और तदन्तर गढ़े विकास ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही हमारी सामाजिकता को भी नष्ट किया है।  इस व्यवस्था ने जहर की भांति धीरे-धीरे पूरे समाज एवं संस्कृति को बदलकर रख दिया है।  जिसमें एक बड़ी आबादी को हमारी संस्कृति का सब कुछ पुराना, पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है।  इस सोच ने पर्यावरण और प्रकृति का बहुत बड़ा नुकसान किया है।  अंधाधुंध विकास ने हमारे पूरे प्राकृतिक चक्र को बिगाड़ कर रख दिया है।  जल, जंगल और जमीन के मूल स्रोत के निवासियों को हमने अंग्रेजों से मिले उधार की सीख के आधार पर पिछड़ा एवं आदिवासी मान लिया।  जबकि भारत इन्हीं पिछड़े और सम्पन्न इलाकों में मिले प्राकृतिक संसाधनों से एक समृद्ध देश माना गया।  

भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही प्रकृति और पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। हमारी संस्कृति में पर्यावरण के विविध स्वरूपों को “देवताओं” के समकक्ष मानकर उनकी पूजन-अर्चन करने की परंपरा रही है। “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या” अर्थात पृथ्वी हमारी माता है एवं हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं। इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों यथा पीपल, तुलसी, वट के वृक्षों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। अग्नि, जल एवं वायु को भी देवता मानकर उन्हें पूजने की परंपरा रही है। समुद्र, नदी को भी पूजन करने योग्य माना गया है। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु एवं सरस्वती आदि नदियों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। हमारे यहाँ तो पशु एवं पक्षियों का भी आदर करना सिखाया गया है।

इन सभी के बावजूद औपनिवेशिक शासन व्यवस्था तथा अपनी भाषा एवं संस्कृति को निम्नतर देखने की प्रवृत्ति ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण का बहुत बड़ा अहित किया है। हमने अंधाधुंध विकास को ही सब कुछ मान लिया, जिसका परिणाम हमारे सामने है। देश के तमाम गांवों के निवासी आज भी पर्यावरण की सरकारी परिभाषा को नहीं समझते है।  पर उन्हें प्रकृति से प्रेम करना आता है क्योंकि यह उनकी संस्कृति और परंपरा  का हिस्सा है। जबकि सरकारी शब्दावली में एक हद तक पर्यावरण को बस विकास से जोड़कर देखने की परंपरा रही।  सरकार ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर तमाम योजनाएँ चलाई पर उनमें देशीपन का अभाव रहा।  यहीं पर हमारी संस्कृति और भाषा का महत्व स्थापित होता है।  

अपनी भाषा, संस्कृति और ज्ञान से कटकर हमने अपने जल के स्रोतों कुएं, तालाब को मृतपाय बना डाला।  देश के गांवों में स्थित वनों को विकास और आबादी के कारण कृषि क्षेत्र में बदल दिया गया ।  हमारे पुरखे प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को समझते थे।  आज भी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में ‘ओरण’(अरण्य से बना शब्द) की व्यवस्था है।  इस प्रकार के ओरण गांवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं। इन ओरणों के रक्षा का दायित्व ग्रामीणों के ऊपर ही होता है और इनको अकाल के समय में ही खोला जाता है। स्वर्गीय अनुपम मिश्र अपने आलेख में कहते है ‘इन वनों की रखवाली इनका श्रद्धा और विश्वास करता रहा है।‘   हज़ार-बारह सौ वर्ष पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे। पर इस प्रकार की समृद्ध परंपरा से सरकारें अपरिचित है।  क्योंकि हमारी सरकारों का एक बड़ा वर्ग अपनी भाषा और संस्कृति से कटा हुआ है।  हमने अपनी ग्रामीण व्यवस्था एवं परंपरा को पिछड़ा मान लिया।  यही कारण है  कि  हमने अपनी कृषि की प्रत्येक समृद्ध परंपरा को बिना सोचे-समझे पिछड़ा मान लिया।  

परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा स्थापित अधिकांश योजनाएँ समाज की मूलभूत आवश्यकताओं से कटी हुई, क्योंकि इन्हें तैयार करने वाले शिक्षा व्यवस्था के कारण ग्रामीण परम्पराओं से अपरिचित रहे।  जन से कटे रहने के कारण अधिकांश योजनाएँ असफल सिद्ध हुई।  इसका मूल कारण रहा इन योजनाओं को तैयार करने वाले अधिकांश नीति-निर्माता किंडर गार्डेन शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े अथवा व्यवस्था इनकी पोषक रही।   पर्यावरण आधारित सरकार की अधिकांश योजनाओं के नाम को देख लें तो ऐसा प्रतीत होगा इन योजनाओं को तैयार तो भारत में किया गया है पर इनका सोच एवं क्रियान्वयन पश्चिम आधारित रहा।  अत: ये अधिकांश समाज से कटी रही। हमने नदियों के जल को  पानी अथवा विद्युत स्रोत मानकर उनका दोहन किया।  हमने नदियों को प्रदूषण का केंद्र बना डाला, वह भी तब जब इस देश में राजा भगीरथ की कथा जनश्रुतियों में मौजूद है।  पर यह केवल श्रुतियों तक सीमित रह गया, जिसका नुकसान हम सब देख रहे हैं।

अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को समझें।  इस महत्व के प्रसार में हमारी लोक भाषाओं का बहुत बड़ा योगदान है।  हम सभी अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। इस देश की मूल प्रकृति की रक्षा के लिए जनभाषाओं को अपनाया जाना बेहद आवश्यक है।  इससे जहां हम अपने समाज, संस्कृति, परंपरा की रक्षा कर सकते है वहीं देश के लोकतांत्रिक पर्यावरण को भी मजबूती दे सकते हैं।  लोकभाषाएँ इस देश की जीवतंता के लिए आवश्यक है क्योंकि वे गुण, भाव से समावेशी, सर्वग्राही है जो प्रकृति एवं भारतीयता का मूल तत्व है।

आईए! पर्यावरण दिवस के अवसर पर इस देश के निवासियों के सशक्तिकरण के लिए, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी एवं देशी भाषाओं को दृढ़तापूर्वक अपनाने का संकल्प लें। ताकि लोक के माध्यम से पर्यावरण के प्रति सुषुप्त पड़ चुकी चेतना को जागृत किया जा सके। जो भारतीय भाव धारा पृथ्वी को मातृभूमि और अपने आपको उसका पुत्र समझने की चिंतन को व्याख्यायित करती है। वह यदि भौतिकवाद की अंधी दौड़ में सब कुछ भूल-सी गई है तो यह समाज के लिए चिंतनीय के साथ ही भावी पीढ़ी के लिए भी एक  भयावह संकेत है। जबकि हमारी भाव धारा तो एक छोटे से तृण के प्रति भी उदार रही है। दूब को पूजने वाला समाज क्यों एक वट वृक्ष के सूख जाने, कट जाने अथवा नया रोपित करने के प्रति उदार नहीं होता। इस पर्यावरण दिवस पर भारतीय भाव धारा की उसी चेतना के प्रति जागृत होने, करने की आवश्यकता है। अथर्ववेद (१२/१/१२) में कहा गया है- 

माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: 

अर्थात् ‘यह भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। ‘

पर्यावरण दिवस का यही मूल संकल्प हो तो सब सार्थक व समृद्ध हो जाए। 

©डॉ. साकेत सहाय

साहित्यकार

लेखक संप्रति पंजाब नैशनल बैंक में मुख्य प्रबंधक(राजभाषा) व पटना अंचल में पदस्थापित है। 

संपर्क- hindisewi@gmail.com



Saturday, June 4, 2022

अभिमन्यु अनत- मॉरीशस के प्रेमचन्द


आज मॉरीशस के ‘प्रेमचन्द’ के रूप में ख्यात साहित्यकार अभिमन्यु अनत जी की पुण्यतिथि है। वे मॉरीशस के हिन्दी कथा-साहित्य के सम्राट  माने जाते हैं। उनका जन्म ०९ अगस्त,  १९३७ को मॉरीशस के उत्तर प्रान्त में स्थित त्रियोले गांव में हुआ था।  उन्होंने अपनी उच्च-स्तरीय उपन्यास एवं कहानियों के माध्यम से मॉरीशस को विश्व हिन्दी साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित किया।  सजग, प्रतिबद्ध और कर्मठ रचनाकार रहे अभिमन्यु अनत अपनी कहानियों को अपने समय के बयान के तौर पर लिखते हैं। हिंदी प्रेम के कारण उन्होंने मॉरीशस की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में भी हिंदी साहित्य को प्रतिष्ठित किया। हिंदी साहित्य के इतिहास में उनके कृतित्व के कारण उनके युग को मॉरीशस के साहित्याकाश में ‘अभिमन्यु अनत युग ' के रूप  जाना जाता है। ११वें विश्व हिंदी सम्मेलन से कुछ ही माह पूर्व उनका देहावसान हुआ था। जिसकी छाया सम्मेलन पर भी पड़ी।  

उनकी प्रमुख रचनाएँ ‘कैक्टस के दांत', 'नागफनी में उलझी सांसें', 'गूँगा इतिहास', 'देख कबीरा हांसी', 'इंसान और मशीन', 'जब कल आएगा यमराज', 'लहरों की बेटी', 'एक बीघा प्यार', 'कुहासे का दायरा' लाल पसीना इत्यादि रही। उनकी रचनाओं में शोषण, दमन, बेरोजगारी और अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने की दृष्टि है। उनका प्रसिद्ध उपन्यास रहा ‘लाल पसीना', जिसे महाकाव्यात्मक उपन्यास माना जाता है।  

अभिमन्यु अनत को उनके लेखन के लिए अनेक सम्मान प्रदान किए जा चुके हैं जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, यशपाल पुरस्कार, जनसंस्कृति सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार आदि शामिल हैं। 

उनकी एक कविता 

(साभार-हिंदी समय)


अधगले पंजरों पर 

-अभिमन्यु अनत 


भूकंप के बाद ही

धरती के फटने पर

जब दफनायी हुई सारी चीजें

ऊपर को आयेंगी

जब इतिहास के ऊपर से

मिट्टि की परतें धुल जायेंगी

मॉरीशस के उन प्रथम

मजदूरों के

अधगले पंजरों पर के

चाबुक और बाँसों के निशान

ऊपर आ जायेंगे

उस समय

उसके तपिश से

द्वीप की संपत्तियों पर

मालिकों के अंकित नाम

पिघलकर बह जायेंगे

पर जलजला उस भूमि पर

फिर से नहीं आता

जहाँ समय से पहले ही

उसे घसीट लाया जाता है


इसलिए अभी उन कुलियों के

वे अधगले पंजार पंजर

जमीन की गर्द में सुरक्षित रहेंगे

और शहरों की व्यावसायिक संस्कृति के कोलाहल में

मानव का क्रंदन अभी

और कुछ युगों तक

अनसुना रहेगा।

आज का कोई इतिहास नहीं होता

कल का जो था

वह जब्त है तिजोरियों में

और कल का जो इतिहास होगा


अधगले पंजरों पर

सपने उगाने का।


नमन उनके कृतित्व को🙏

-साकेत सहाय 

साहित्यकार


Wednesday, June 1, 2022

नरगिस दत्त- एक महान अदाकारा





 भारतीय सिनेमा जगत को अपने मार्मिक एवं जीवंत अभिनय से गौरवान्वित करने वाली नरगिस जी का आज जन्मदिन है। अपनी शानदार अदाकारी से सिने प्रेमियों के दिलों पर वे दशकों तक राज करती रही। अपने अभिनय से वे प्रत्येक भूमिका में जान डाल देती थीं।   नरगिस एक हिन्दू पिता की संतान थीं तथा वाराणसी शहर से उनका नजदीकी नाता था। पहली बार प्रसिद्ध फिल्म निर्माता एवं निर्देशक महबूब खान ने उन्हें अपनी फिल्म 'तकदीर' में अवसर दिया था। वर्ष 1949 में राज कपूर के साथ उनकी कई शानदार फ़िल्में बरसात, अंदाज आईं जिनकी सफलता ने उन्हें स्थापित  अभिनेत्रियों की श्रेणी में अग्रिम प॔क्ति में ला खड़ा किया।   

निर्माता, निर्देशक, अभिनेता राज कपूर के साथ उन्होंने लगभग 55 फिल्मों में साथ काम किया। वर्ष 1956 में आई फिल्म 'चोरी-चोरी' उन दोनों के जोड़ी की अंतिम फिल्म थी। वर्ष 1957 में महबूब खान की ही फिल्म 'मदर इंडिया' में नरगिस ने प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त की मां की भूमिका निभाई । फिल्म की शूटिंग के दौरान ही अचानक लगी आग के वक्त अपनी जान जोखिम में डालकर सुनील दत्त ने उन्हें मरने से बचाया था । इस घटना के बाद नरगिस ने कहा था कि 'अब नयी नरगिस का जन्म हुआ है।' 

इसके बाद उन्होंने सुनील दत्त को अपने जीवन साथी के रुप में चुन लिया था।  विवाह के काफी वर्षों बाद उन्होंने वर्ष 1967 में फिल्म 'रात और दिन' में काम किया। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के  राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पहला मौका था जब किसी अभिनेत्री को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। उनके नाम कई कीर्तिमान दर्ज है। 

वे प्रथम ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया और  राज्यसभा जाने वाली भी वे पहली अभिनेत्री थीं।  

प्राणघातक बीमारी कैंसर से जूझ रही नरगिस ने वर्ष 1981 की 03 मई को इस संसार को अलविदा कहा।  

उनकी शख्सियत को परवाज देने में महबूब खान साहब की उल्लेखनीय भूमिका रहीं । 

फिराक गोरखपुरी उर्फ रघुपति सहाय के शब्दों में यदि कहें तो

'बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते है।

#भारतीय_सिनेमा_नरगिस_दत्त


उनकी जयंती पर उन्हें सादर नमन!

 ✍©डॉ. साकेत सहाय

सुब्रह्मण्यम भारती जयंती-भारतीय भाषा दिवस

आज महान कवि सुब्रमण्यम भारती जी की जयंती है।  आज 'भारतीय भाषा दिवस'  भी है। सुब्रमण्यम भारती प्रसिद्ध हिंदी-तमिल कवि थे, जिन्हें महा...